हिंदी साहित्य के वर्तमान आलोचना परिदृश्य पर उचित ही चिंता प्रकट की जाती है। सही है कि मूल्यपरक स्थायी महत्त्व की दीर्घजीवी आलोचना लिखने की बौद्धिक मशक्कत की प्रवृत्ति इन दिनों कम हुई है। लेकिन यह चिंता तब दृश्यओझल हो जाती है, जब एक साहित्यिक गोष्ठी की खबर अखबार में कुछ यों छपती है कि ‘आलोचकों को लेखक की चुनौती’, साथ ही यह भी कि ‘जिन वक्ताओं ने रचना पर अंगुली उठाई और सवाल खड़े किए, रचनाकार ने अपने वक्तव्य के दौरान ऐसे लोगों की बोलती बंद की।’ जैसे कि कोई साहित्यिक गोष्ठी न होकर बुश की चौपाल या चौराहे का हुड़दंग हो, जिसकी सफलता बोलती बंद कर दिए जाने से ही मापी जा सकती हो। यह सचमुच चिंता की बात है कि जब ‘बोलती बंद’ करने के विरोध में लेखकों और बुद्धिजीवियों द्वारा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के खतरे लगातार उठाए जा रहे हों तब साहित्य के कुछ यश:कामियों के बीच ‘बोलती बंद’ किए जाने का मुकुट पहना-पहनाया जा रहा है।
माना कि यह दौर ‘निंदक नियरे राखिए’ का नहीं है, लेकिन ऐसा भी क्या कि रचनाकार ‘खफनान’ या ‘मालीखूलिया’ रोग की गिरफ्त में इस कदर आ जार कि उसे मैत्रीपूर्ण आलोचना में भी षड्यंत्र की बू आने लगे और वह चीख-चीख कर कहने लगे कि ‘जो किताबी हैं और किताबों में ही गांवों को देखते हैं, उन्हीं लोगों को ऐसी घटनाएं काल्पनिक लगेंगीं।’ गोया कि आप कहानी न लिख कर अखबार की खबर लिख रहे हों। दरअसल, यहां ‘खफनान’ या ‘मालीखूलिया’ का संदर्भ प्रेमचंद की ‘हल्दी की गांठ वाला पंसारी’ शीर्षक उस टिप्पणी से जुड़ा हुआ है, जिसमें प्रेमचंद ने अपने एक समकालीन लेखक को सलाह दी थी कि ‘वह जल्दी किसी होशियार चिकित्सक से परामर्श करें वरना शायद रोग और भयंकर रूप धारण कर ले। मालीखूलिया के लक्षण यही हैं कि उसका रोगी समझता है, लोग उसका माल-असबाब ढोए लिए जाते हैं और वह अंधे कुत्ते की भांति बतासे भूंकने लगता है।’
साहित्य की दुनिया में असहमति को लेकर यह असुरक्षाबोध गंभीर विचार का मुद्दा है। आखिर एक रचनाकार महज गोष्ठी चर्चा और प्रशस्तिपूर्ण सम्मति को अपने अस्तित्व का प्रश्न बना कर इसके लिए व्यूहरचना के कीच में क्यों गहरे धंसता है? आखिर वह क्यों चाहता है कि आलोचक या पाठक अपने प्रश्नों और तर्कों को स्थगित कर महज एक आस्वादपरक उपभोक्ता या चीयर लीडर में तब्दील हो जाय? ऐसा क्यों कि लेखक को अगर प्रेमचंद बताया जाए, तो उसका चेहरा प्रफुल्ल हो जाए और जब प्रेमचंद के यथार्थ के बरक्स उसकी यथार्थ की समझ पर सवाल उठने लगें तो उसके माथे पर बल पड़ जाएं? लेखक तुरंता न्याय की तर्ज पर अपनी रचना में ‘यूटोपिया’ रचे और उसे आज का यथार्थ बताए तो ठीक, आलोचक यूटोपिया को यूटोपिया कहे तो षड्यंत्र।
कथाकार कागज पर ‘पितृसत्ता’ को धता देकर और अमीर, गरीब, वर्ण और जाति की सारी विषमताओं को तिरोहित कर समूचे गांव को परास्त करती कथानायिका की वीरांगना छवि गढ़ें और उसे आज के बदलते गांव की तस्वीर बताएं तो ठीक और आलोचक इसे रचनाकार का ‘कल्पनालोक’ और आदर्श करार दे तो यथार्थ के प्रति अज्ञानी। लेखक देशज मुहावरे और वातावरण का अवलंब लेकर ‘इंसाफ का तराजू’ की निर्मिति करे और अगर इसे आलोचक इल्मी और नाटकीय करार दे तो उसे आप भस्म करने की मुद्रा अपना लें! यह सब तब अधिक चिंतनीय हो जाता है, जब यह उन लेखकों द्वारा किया जाता है, जो लेखक के रूप में एक मुकाम हासिल कर चुके हैं और एक गोष्ठी की चर्चा से उनका कुछ बनना-बिगड़ना नहीं है।
मुद्दा मात्र एक गोष्ठी या रचनाकार का न होकर हिंदी साहित्य की उस आत्मरतिवादी प्रवृत्ति का है, जहां बेबाकी, तर्कशीलता और प्रश्नों का उठाया जाना लगातार निशाने पर और ‘अहो रूपम्, अहो ध्वनिम्’ का हुलास सिरमाथे है। कुछ ही दिन पहले की बात है कि एक वरिष्ठ लेखिका ने एक कथा-समारोह के भरे सभागार में जहां यह उद्घोष किया कि हमें न आलोचना की दरकार है और न आलोचक की, वहीं उसी समारोह में एक अन्य चर्चित कथाकार ने आलोचक की तुलना घोड़े की पीठ के घाव पर भिनभिनाती मक्खी से कर डाला। कहने की आवश्यकता नहीं कि ये रचनाकार आलोचना के प्रति कोई वीतराग योगी नहीं हैं, बल्कि अनुकूल आलोचना के प्रति स्वाभाविक रूप से खिले-खिले रहने वालों में है। ऐसे में आलोचक करे तो क्या करे? तुलसीदास के कथन की तर्ज पर ‘हम तो कहबै ठकुरसुहाती, नाहीं त मौन रहब दिन राती’ की मुद्रा अपना ले, तो वह भी सुख की नींद सो सकता है, वरना उसकी नियति बकौल कबीर ‘जागय और रोवय’ की है।
एक स्वनामधन्य ‘क्रांतिकारी’ कवि ने खुद अपना काव्यसंग्रह छपवाया और उस पर चर्चा के लिए अपनी पत्नी की अध्यक्षता और बेटी के संचालन में गोष्ठी आयोजित कर डाली और वक्ताओं के चुनाव में भी रणनीतिक कौशल अपनाया। कुछ तो इतने यश:कामी हैं कि गोष्ठी आयोजक से अनुकूल ‘फिक्सिंग’ न होने पर अपनी टोली के साथ बहिष्कार का प्रतिरोधी स्वर अपना लेते हैं। सचमुच किस्से अरबों हैं। पत्रिकाओं के अंक पलट डालिए, तो पाएंगे कि कुछ खास नाम एक-दूसरे की रचनाओं की प्रशंसा में पत्र और समीक्षाएं लिखते हैं। एक सज्जन ने तो एक गोष्ठी में अपने वक्तव्य की शुरुआत अपनी पत्नी को मशहूर कवयित्री बताते हुए उनकी काव्य पंक्तियों से कर डाली। एक अन्य लेखक ने तो मंच से अपने पक्ष में दलील देते हुए फेसबुक टिप्पणियों का ही बखान कर डाला और बोलते हुए कुछ अटके-भटके तो सामने मौजूद उस फेसबुकिए से ही पूछ लिया कि तुम क्या लिखे थे, उसने एक शेर पढ़ा तो लेखक महोदय ने उसे माईक से ब-आवाजे बुलंद उसे दुहरा डाला। मतलब, खुद ही मुवक्किल, खुद ही वकील, खुद ही अदालत और खुद ही जज। और तोहमत यह कि आलोचक नाम की संस्था मिटती जा रही है। सवाल यह है कि आलोचना की जरूरत किसे है?
ऐसे में याद आते हैं श्रीलाल शुक्ल, जिनके उपन्यास ‘राग दरबारी’ को लक्ष्य करते हुए मैंने उनकी व्यंग्य दृष्टि को काफी तीखेपन के साथ अपने एक विस्तृत लेख में उनके रहते ही प्रश्नांकित कर दिया था। श्रीलालजी ने मेरे उस लेख में न कहीं षड्यंत्र ढंढ़ा था और न मेरी गांव की समझ को ही खारिज किया था। इतना ही नहीं, उसके बाद तो उनकी मुझसे आत्मीयता बरकरार ही नहीं रही, बल्कि अधिक प्रगाढ़ हुई। हमारे ही शहर के वरिष्ठ लेखक मुद्राराक्षस तो आलोचना के प्रति इतने उदार और सहिष्णु हैं कि उन्होंने अपने ऊपर केंद्रित एक पत्रिका के प्रकाशन के लिए यह शर्त रख दी कि जब तक उसमें उनको ध्वस्त करने वाला मेरा पूर्व-प्रकाशित लेख न शामिल किया जाएगा तब तक वह पत्रिका प्रकाशन के लिए सहमत न होंगे। मुद्राजी द्वारा असहमति के प्रति यह सम्मान मुझे आज अपने उस लेख के लिए पुनर्विचार का बायस है।
सच है कि आलोचकों से लेखकों की नींद हराम होने की हिंदी साहित्य में लंबी परंपरा रही है। प्रेमचंद को तो आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने ‘प्रोपेगैंडिस्ट’ और ‘समाज सुधारक’ करार देकर कमतर आंका ही था। रांगेय राघव तो रामविलास शर्मा की परशुरामी आलोचना से इतने क्षुब्ध हुए थे कि ‘कुत्ते की दुम और शैतान’ सरीखी कहानी ही लिख डाली थी। लेकिन किसी ने आलोचकों को किसी षड्यंत्र में शामिल नहीं घोषित किया था। अफसोस कि आत्म-मुग्धता और कीर्ति की तुरंता चाहत के इस टुच्चे समय में आलोचना के बेबाकपन पर कुछ लोगों की भौंहें वक्र हैं। ढीठ चौधराहट की इस असहिष्णुता के विरुद्ध आलोचना के विवेक को जोखिम उठा कर भी बचाए रखने की जरूरत है।