मंडलीकरण ने पूंजी के केंद्रीयकरण का काम सबसे ज्यादा किया, उसने जो जीवन का रास्ता दिखाया, वह यह कि सुदूर गांव के लोग एक बेहतर जीवन की उम्मीद लिए गांव से नगर, नगर से महानगर और महानगर से वैश्विक नगरों में पलायन को मजबूर हों। जाहिर है, एक व्यक्ति का अपने मूल स्थान से विस्थापित होने में सिर्फ शरीर का भौतिक स्थानांतरण नहीं, बल्कि उसका मूल परिवेश से भाषिक और सांस्कृतिक विच्छेदन भी होता है। हालांकि फिजी और मॉरीशस जैसे कुछ देशों में गिरमिटियाई विस्थापन को कुछ हद तक अपवाद के रूप में स्वीकार किया जा सकता है, लेकिन यहां भी दो बातें स्पष्ट रूप से समझने की आवश्यकता है।

प्रथम यह कि इतिहास का वह विस्थापन व्यक्तिगत स्तर पर नहीं, बल्कि समूह या सामाजिक स्तर पर हुआ था। दूसरा, सामूहिक विस्थापन के बावजूद आज इन देशों की सांस्कृतिक और भाषाई समग्रता में मिश्रण स्पष्ट रूप में देखा जा सकता है। बहरहाल, भूमंडलीकरण की घोषणा के बाद होने वाला स्थानांतरण सिर्फ पैदल, बैलगाड़ी, तांगा या साइकिल से चल कर नहीं होता है, बल्कि इस रास्ते में ट्रेन और हवाई जहाज भी आते हैं, जिसके लिए टिकट और वीजा भी लेना पड़ता है। इन सबके चक्कर में सामने मोटी कमाई का सपना सबसे ऊपर होता है और अपनी मूल भाषा और संस्कृति की चिंता सबसे नीचे या नहीं के बराबर होती है।

आगे इस सपने का स्थानांतरण भी पीढ़ीगत हो रहा है, फलस्वरूप उन्हीं दूर-दराज गांवों के इर्दगिर्द तेजी से पसर रहे निजी कानवेंट स्कूलों ने भारतीय मध्यवर्गीय अभिभावकीय चिंताओं में खुद को फिट कर लिया है। आज हालत यह है कि भारत जैसे बहुभाषिक देश में, जो वैश्विक अर्थव्यवस्था में भी एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है, वहां के पूरे भूगोल के विभिन्न क्षेत्रों में अनेक बातों में विभेद हो सकता है, लेकिन इस बात में कोई विभेद नहीं है कि अगली पीढ़ी अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में पढ़े। इस स्तर पर अगर मूल्यांकन हो तो यह स्वीकार करने में कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि जितनी भाषाई अधीनस्थता की स्थापना अंग्रेजों ने सैकड़ों साल में शासन करके नहीं किया, उससे अधिक नुकसान स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद की नीतिगत-रिक्तता, सूचना प्रौद्योगिकीय प्रसार और भौतिकवादी जीवन की चाह ने किया है।

महात्मा गांधी ने भी स्वीकार किया था कि उस समय जो लोग अंग्रेजी नहीं जानते-समझते थे, उन तक अंग्रेजों का आधिपत्य उस तरह नहीं पहुंचा था, जिस तरह अंग्रेजी जानने वाले लोगों तक पहुंचा था। जबकि आज तो सूचना प्रौद्योगीकीय साधनों के माध्यम से सूचना और सूचना के माध्यम की भाषा यानी अंग्रेजी प्राय: हर परिवार तक पहुंची है। बहरहाल, आज जिस विकास के मॉडल को हमने अपनाया है, उसमें उस मान्यता को धक्का लगा है कि धरती पर होने के कारण सूरज की ऊर्जा, पेड़ों द्वारा मिले शुद्ध आक्सीजन और जल-स्रोत पर हमारा समान अधिकार है, क्योंकि आज देश के अनेक महानगरों के अनेक हिस्से ऐसे हैं, जहां इन तीनों पर हमारा अधिकार नहीं है।

दिल्ली जैसे महानगरों में शायद ही किसी को बिना मशीन के साफ किए पीने लायक पानी मिलता हो। दूसरी ओर शुद्ध आक्सीजन के लिए भी मशीनें बिकनी शुरू हो चुकी हैं। इन सबके मूल में विस्थापन एक बड़ा कारण है, जिससे भाषाई मानवाधिकार का भी हनन होता है। क्योंकि एक व्यक्ति जब अपना गांव छोड़ कर नगर की ओर कूच करता है, तो अधिकांश स्थितियों में अपनी भाषा वहीं गांव में छोड़ कर जाता है।
संयुक्त राष्ट्र की मानवाधिकार समिति ने किसी व्यक्ति की निजता को सुरक्षित रखने के लिए स्पष्ट किया है कि ‘कोई व्यक्ति अपने जीवन की परिधि में अपनी पहचान स्वतंत्र रूप से व्यक्त कर सकता है।

चाहे वह दूसरों के साथ संबंधों में प्रवेश कर रहा हो या अकेले। समिति का विचार है कि किसी व्यक्ति का उपनाम (और नाम) उसकी अस्मिता का एक महत्त्वपूर्ण अंग है और किसी की निजता के साथ मनमाने या गैरकानूनी हस्तक्षेप के खिलाफ संरक्षण में किसी के स्वयं के नाम को चुनने और बदलने का अधिकार शामिल है।’ जबकि हाल में आस्ट्रेलिया में अनेक भारतीय छात्रों पर प्राणांतक हमले इन्हीं आधारों पर हुए हैं।

हालांकि यूरोपीय संदर्भों में किसी सार्वजनिक स्थल पर अल्पसंख्यक भाषा के निजी उपयोग जैसे- सार्वजनिक सड़कों पर अपनी भाषा में निजी बातचीत करना या सार्वजनिक पार्क में इसके उपयोग पर कोई सरकारी प्राधिकरण प्रतिबंध लगाता है, तो इस तरह के प्रयास को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन माना जाता है।

हालांकि वैधानिक प्रावधानों से परे वास्तविक धरातल पर क्या व्यवहृत है, उसका भी परीक्षण होना चाहिए। दूसरा यह कि अल्पसंख्यक भाषाभाषी किसी ऐसे आभिजात्य स्थल पर क्या अपनी भाषा के बल पर पहुंच पाता है? अगर वृहत्तर भाषा के बल पर वहां पहुंच भी जाए, तो क्या उस व्यक्ति में ऐसा आत्मविश्वास होता है कि अपनी भाषा में अपने विचार रख सके? भारत जैसे देश में कुछ साल पहले मुंबई के एक सार्वजनिक कार्यक्रम में जब एक वक्ता ने अंग्रेजीमय माहौल में अपनी बात हिंदी में रखी थी, तो उस कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे सैम पित्रोदा ने पूरी सभा से इसके लिए माफी मांगी थी। ध्यान रहे कि यह स्थिति हिंदी के साथ थी। अगर यह बात दिमासा, तुलु और भीली के साथ होती, तो क्या होता?

हालांकि किसी बहुभाषिक देश के सार्वजनिक स्थल पर नितांत अल्पसंख्यक भाषाओं के साथ समेकित न्याय नहीं हो पाता और कई स्तरों पर यह व्यावहारिक भी नहीं लगता, लेकिन देश की किसी सभा में हिंदी में बोलना अपराध नहीं है, जिसके लिए माफी मांगी जाए। ध्यान रहे कि भाषिक मानवाधिकार के संरक्षण की जिम्मेदारी भी उसी राष्ट्र-राज्य से अपेक्षित होती है, जिससे हम सड़क, स्वास्थ्य और शिक्षा आदि की अपेक्षा करते हैं। लेकिन यह भी सही है कि देश की संसद में भी यह अधिकार सुनिश्चित नहीं है। देश की बाईस संविधान-संरक्षित भाषाओं में भी यह अधिकार नहीं है। इनमें से अधिकांश भाषाओं में किसी के बोलने और सदन के शेष सदस्यों को उसके समझने की व्यवस्था की पहल तो वर्तमान राज्यसभा के सभापति द्वारा की जा रही है।

किसी राष्ट्र में रहने वाले प्रत्येक नागरिक उसी राष्ट्र के मूलभूत अंग होते हैं और इस तरह से प्रत्येक नागरिक के भाषा, भेष और परिवेश की जिम्मेदारी भी उसी राष्ट्र-राज्य की होनी चाहिए। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वर्ष 2019 को संयुक्त राष्ट्र संघ ने ‘अंतरराष्ट्रीय जनजातीय भाषा वर्ष’ घोषित किया था। हाल ही में प्रधानमंत्री ने अपने ‘मन की बात’ के एक कार्यक्रम में उत्तराखंड की रंग-भाषा के संरक्षण के प्रयासों को संदर्भित करते हुए लोगों से अपनी भाषा और संस्कृति के प्रति संवेदित होने की अपील भी की थी। लेकिन स्थानीय भाषाओं के संरक्षण और संवर्धन का मुद्दा इतना सहज भी नहीं है, क्योंकि इनसे शिक्षा और रोजगार के सवाल सीधे जुड़ते हैं, जिस पर देश में अभी बहुत कुछ किया जाना जरूरी है।

किसी भाषा का संरक्षण सिर्फ भाषा के अस्तित्व का संरक्षण नहीं होता, बल्कि एक सांस्कृतिक विरासत, देश की विविधता का एक अनिवार्य रंग, वैश्विक प्रतिरोध के लिए आवश्यक एक दीवार और सबसे बड़ा एक व्यक्ति की प्राथमिक क्षमता का संरक्षण और संवर्धन होता है। स्वतंत्रता की मूल भावना के अनुरूप ही हम सब अपनी भाषा के प्रति सजग रहें, लेकिन दूसरों की भाषा के प्रति संवेदनशील भी हों। इस सबका एक ही रास्ता है कि वापस गांवों की ओर लौटा जाए और शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार सबका विकेंद्रीकरण हो, जो सुदूर गांवों तक पहुंचे।

इसमें महात्मा गांधी की अर्थव्यवस्था के मॉडल और रवींद्रनाथ टैगोर की शिक्षा पद्धति के बीच से भविष्य की पीढ़ी के लिए रास्ता निकाला जाए, तभी हम एक आदर्श समाज, लोकतंत्र और देश बना सकते हैं। अंतिम व्यक्ति के संविधान-प्रदत्त अधिकारों, चाहे वह भाषाई ही क्यों न हो, के संरक्षण के बिना हम सफल लोकतंत्र की कामना नहीं कर सकते, क्योंकि लोकतंत्र में पूंजी, संसाधन या भाषाई क्षमता के केंद्रीयकरण का विपरीत प्रभाव ही होता है।