दिविक रमेश का नया काव्य-संग्रह है- मां गांव में है। इससे पहले ‘गेहूं घर आया है’, ‘हल्दी चावल और अन्य कविताएं’ आदि को देखा जाए तो दिविक गंवई संवेदना के कवि लगते हैं। पर उनकी कविता में गांव और शहर दोनों की अनुभूतियां हैं। गांव में रह रही मां और गांव से जुड़ाव कवि की अनुभूतियों का वह अंतरंग हिस्सा है, जो कवि के संग शहर आ गया था। दिविक संबंधों के कवि हैं।
इस संग्रह की कविताओं में से कुछ ऐसी ही स्थानीयता और संबंधों की कविताएं हैं। ‘मां गांव में है’, ‘संबंध’, ‘घर’, ‘बेटी ब्याही गई है’, ‘रिश्ता ठीक वही रिश्ता’, ‘रिश्ता भिगो दूंगा’, ‘डोलू’, ‘अपने को जोड़ते हुए तुझसे’, ‘टूटा हुआ पुल’, ‘एक दृश्य संवाद’ और ‘स्मृतियों के बीच’ कविताओं को इस संदर्भ में देखा जा सकता है। इन कविताओं में दिविक अपने जीवन में जिन संबंधों को निर्मित और संवेदनशीलता के साथ उनका निर्वाह करते दिखाई देते हैं वही उनकी अनुभूति का संवेदनशील काव्यात्मक तत्त्व है। जीवन और रचना में भी: ‘ये संबंध ही हैं न जो नहीं थकते कभी रुखाली पर/ ये संबंध ही हैं न जो लबालब भरा रखते हैं सूखी नहरों तक को/ सपनों के आब से/ ये संबंध ही हैं न जो भूतों और आत्माओं तक का करते हैं सृजन/ ये संबंध ही हैं न जिन्होंने पुजवाया है नदियों, पहाड़ों और समुद्रों को/ प्राण दिए हैं जिन्होंने पत्थरों, शिलाओं को/ ये संबंध ही हैं न जिन्होंने बंधवाई है शाखाओं पर गांठें/ चढ़वाए हैं जनेऊ पीपल पर!’
मनुष्य का पूरी सृष्टि के साथ जो रागात्मक और सांस्कृतिक संबंध है, दिविक की कविता उन्हीं से व्याख्यायित होती है। ये संबंध अपने देश, काल और वातावरण के परे भी निर्मित होते हैं, जिसे कविता संभव करती है। मां, पिता, पत्नी, बेटी, गांव, घर के साथ संबंध फिर भी अपनों का संबंध है, पर वह संबंध जो घर, परिवार गांव से बाहर जाता हुआ शेष दुनिया से संबद्ध होता है, वह फिर-फिर अपने मानवीय और रचनात्मक दुनिया के संबंधों में ही लौटता है। मां, जैसे जीवन से कविता, गांव से शहर और कविता से जीवन और शहर से गांव के संबंधों के मध्य विचरण करती हो!
‘मां गांव में है’ कविता में मां ही नहीं, गांव अपने खेत खलिहान, चौपाल-कुएं और लोकगीतों के बीच विचरण कर रहा है। गांव उखड़ कर शहर पहुंच गया और शहर अपना विकास करते-करते गांवों को भी अपने आगोश में लेने लगा है। फिर भी ‘गांव में मां’ के होने की चिंता, उसके शहर न आ पाने की विवशता और उसी के साथ विकास का आख्यान भी कहती है कविता। ‘अपने को जोड़ते हुए तुझसे’ में उसी गांव में रह रही मां से लगाव है, जो कवि की संवेदना, स्मृति और काव्यात्मक अनुभूति में घुलमिल गई है। इस कवि की रचनात्मकता में जब भी वह आकार लेती है, अखंड होती है। यह अखंड, अटूट संबंधों की संवेदनात्मक अनुभूति है, जो शहर में इतने वर्ष रहने के बावजूद मां और अपने गांव से अलग नहीं हो पाई है।
इस संग्रह की बेटी से संबंधित दो कविताएं ‘बेटी ब्याही गई है’ और ‘डोलू’, इस अर्थ में विशेष हैं कि एक में बचपन और दूसरी में उसके ब्याह के बाद की विडंबनात्मक स्थितियां हैं, जो भारतीय मध्यवर्गीय समाज में बेटियों के ब्याह के बाद की स्थितियों को बयान करती हैं। ‘डोलू चढ़ती है कंधे पर/ तो हर पहाड़ हो जाता है बौना/ डोलू चलाती है पांव/ तो उमड़ उठती हैं लहरें समुद्र में/ डोलू बनाती है आकृतियां/ घिर आते हैं मेघ।’ इसी बेटी के बड़ी होने और ब्याही जाने के बाद माता-पिता बेटी की चीजों से अटे पड़े उसके कमरे को देखते हैं, जिसे धीरे-धीरे उसे अपने ससुराल ले जाना है और मां-पिता के घर के उस कमरे को खाली करना है।
पर मां-पिता दोनों इस प्रश्न को टाल रहे हैं। यह ‘जानते हुए भी/ कि कमरा तो करना ही होगा खाली/ बेटी को/ पर टाल रहे हैं/ टाल रहे हैं कुछ ऐसे प्रश्न/ जो भले ही बिन आवाज/ पर उठते होंगे मन में/ ब्याही बेटियों के/ सोचते हैं कितनी भली होती हैं बेटियां/ कि आंखों तक आए प्रश्नों को/ खुद ही धो लेती हैं/ और वे भी असल में टाल रही होती हैं।’ इन स्थितियों और प्रश्नों से बेटियों की नियति जुड़ी है। शायद पितृसत्ता के भौतिक प्रश्नों में सबसे अधिक उलझी वही होती हैं।
इसी क्रम में ‘बूढ़ा’ (पिता), ‘रग्वीरा’ और ‘एक दृश्य संवाद’ का ‘दादा’ जैसी कविताओं के चरित्रों को देखा जाए तो ये नितांत स्थानीय रंग लिए रागात्मक श्रमिक जन लगते हैं। यह मध्यवर्गीय काव्यानुभूति वाली सौंदर्य चेतना सुविधायुक्त जीवन से अलग ग्राम्य, श्रमिक, कलात्मक सौंदर्य संवेदना की कविताएं हैं। ‘बूढ़ा’ कविता में ‘वह जानता है/ उसकी बिवाइयों और झुर्रियों में फंसी/ रागिनी/ न रोटी देती है न खाट/ फिर भी वह उसे गाता है/ तंबाकू या खैनी की तरह/ अपने हाड़ों में चढ़ाता है।’ यह ग्राम्य और श्रमिक जन का अक्स लिए ‘बूढ़ा’ पिता एक दिन दुनिया से विदा लेता है, पर शहर में रह रहे मध्यवर्गीय पुत्र के लिए उसकी मृत्यु एक खबर भर लिए आती है। यह हमारे ग्रामीण जीवन का वह यथार्थ है, जो शहरी मध्यवर्गीय समाज के लिए मात्र सूचना है।
‘एक दृश्य संवाद’ की खांटी स्थानीयता मनुष्य के जीवन में अपनी स्थायी जीवंतता रचती है। हालांकि वह शहरी मध्यवर्गीय विकास के प्रभावों या दबावों को भी कम नहीं झेलती। यह कविता और जीवन दोनों की स्थानीयता है, जहां से दोनों जीवन-रस ग्रहण करते हैं। यह मनुष्यता के स्थानीय संस्करण तक सीमित नहीं है। ‘एक भारतीय हंसी’, ‘एक भारतीय पत्र मित्र इनद के नाम’ और ‘अफगान महिलाएं’ कविताएं इसी स्थानीयता से मानवता तक की रचनात्मक यात्राएं हैं। स्थानीयता मनुष्यता की सीमित परिधि नहीं है, उसमें विभिन्न स्थानीयताओं का कोलाज है। पर क्षेत्रीयताओं का भेद भी उसका एक यथार्थ है। जब कवि इस भेद को समझता है तो देर तक एक भारतीय हंसी हंसता है।
यहां मनुष्यता को अभेद होना चाहिए, पर वह भेद की राजनीति से अपने अर्थ को ग्रहण करता है। रचनात्मक अर्थों में जब एक भारतीय कवि अपने इराकी मित्र इनद और उसके देश की चिंता करता है, जिसमें ‘इराक का अपना आकाश/ शून्य हो गया है अपने ही बादलों से/ कि दरकने लगी है धरती’ तो इस स्थानीयता और वैश्विकता के बीच का भेद भी मिट जाता है। ‘अफगान महिलाएं’ (2001) कविता भी इस भेद को खत्म करती, वैश्विकता और मनुष्यता की आस्था और उम्मीद को अर्थ देती है।
इसी मनुष्यता के आख्यान के क्रम में ‘एक अनंत कथा’, ‘अदृश्य होते हुए’, ‘बहुत कुछ है अभी’, ‘कोई चाहता है रुकना अपने से’ और ‘बिना किसी भुलावे के’ कविताओं को देखा जा सकता है। इसी के साथ प्रकृति और प्रेम से संबंधित ‘चेजू द्वीप की यात्रा में’, ‘आखिरी फूल’, ‘प्यास’, ‘नन्हा पौधा’, ‘संपूर्ण यात्रा’ और ‘उसने कहा था’ कविताओं में प्रकृति और प्रेम के रूपाकारों को देखा जा सकता है।
नदी को संबोधित कविता में वे कहते हैं: ‘तुम सृजन हो/ चट््टानी देह का/ प्यास तो तुम्हीं बुझाओगी नदी।’ और ‘तुम सूत्र नहीं हो, नदी, न ही सेतु/ संपूर्ण यात्रा हो मुझ तक।’ यह मनुष्य तक नदी की संपूर्ण यात्रा ही नहीं, उसकी संपूर्ण चेतना के साथ संबंध स्थापित करना है, जिससे आस्तित्विक भेद मिट जाता है। इस भेद का मिटना ही प्रकृति का जैविक समाज के साथ संपूर्णता से संबद्ध होना है।
इसके साथ ‘युद्ध’, ‘सोचूं’, ‘दहाड़’, ‘प्रतिप्रश्न’, ‘डर’, ‘खोल दो’, ‘दैत्य ने कहा’, ‘जला देना होगा प्रार्थनाओं-स्तुतियों को’, ‘हमारी जानकारी में नहीं है’, ‘काश’ कविताएं युद्ध, आतंक, डर, उत्पीड़न, दहशत, सुनामी से संबंधित हैं। ‘उत्तर-कबीर’, ‘शब्दफूल’, ‘राग’, ‘ताज’ कविताएं भी अच्छी बन पड़ी हैं। स्थानीय शब्द- ओसन, रूखाली, खरोंड़, टिक्कड़, सांटे, खोर, गोड़ी, कूण, तावली, घलवा, सिट््टे और बिटोड़े संग्रह को स्थानीयता की पहचान तो देते हैं, पर उनके पूर्व के कविता संग्रहों की तुलना में इस संग्रह की कविताएं कुछ हद तक गद्यात्मक दिखती हैं, हालांकि वे नीरस गद्य नहीं हैं। भाषा में लय बनी रहती है।
दिविक की कविता जिस यथार्थ का सृजन करती है वह स्मृति और अनुभूति का ही सृजन है। ‘कितने आर्द्र होते हैं न मेघ/ हमारी स्मृतियों के/ और कितनी स्वप्नजीवी होती हैं न हमारी स्मृतियां भी/ लिपटी रहती हैं/ जो हमसे कसी कसी/ रात/ और दिन भी।’ यह स्मृति की कविता नहीं, कविता की स्मृति है, जिसमें मां के गांव में होने की चिंता और कचोट में स्वाभाविकता है।
दुर्गा प्रसाद गुप्त
मां गांव में है: दिविक रमेश; यश पब्लिकेशंस, 1/11848, पंचशील गार्डन, नवीन शाहदरा, दिल्ली; 395 रुपए।
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