पत्रकारों का सबसे बड़ा फर्ज है उन लोगों की आवाज उठाना, जो बेजुबान होते हैं। याद है मुझे अच्छी तरह कि जब पत्रकारिता की दुनिया में पहले-पहल कदम रखा था, हर दूसरे दिन किसी जवान लड़की के जल कर मरने की खबर मिलती थी दिल्ली पुलिस से, और छपती थी अखबार में अगले दिन इतनी छोटी कि कई बार लड़की का नाम भी नहीं छापा जाता था। फिर जब हम महिला पत्रकारों ने इन मौतों की तहकीकात शुरू की, तब मालूम हुआ दुनिया को कि अक्सर इन लड़कियों को मारा जा रहा था कम दहेज लाने के कारण। लड़कियों के नाम, उनकी तस्वीरें और उनकी कहानियां जब छपने लगीं, तब जाकर संसद में दहेज पर पाबंदी लगाने के लिए कानून पारित हुए।

आज अगर बलात्कार रोकने के लिए सख्त कानून बने हैं तो इसलिए कि महिला पत्रकारों ने इस देश की उन बेटियों की आवाज उठाई है, जो बेजुबान हैं। ऐसा नहीं कि इस घिनौने अपराध को हम पूरी तरह रोक पाए हैं, लेकिन इतना जरूर हो गया है कि आवाज न उठाई होती हम पत्रकारों ने तो आज वही परदा गिरा रहता ऐसे अपराधों पर, जो कभी इतना मोटा हुआ करता था कि महिलाएं खुद अपनी बेटियों को चुप रहने को कहा करती थीं घर की झूठी लाज रखने के बहाने।

इन चीजों को ध्यान में रखते हुए कहना पड़ रहा है मुझे आज बहुत दुख के साथ कि इस संक्रमण को लेकर बहुत कम पत्रकारों ने अपना फर्ज निभाया है। इस बीमारी से सबसे ज्यादा पीड़ित हुए हैं हमारे सबसे गरीब मजदूर, जो पूर्ण बंदी के बाद पैदल निकले थे महानगरों से, क्योंकि पूर्णबंदी की खबर उनको सिर्फ चार घंटे पहले मिली। उस रात के बारह बजे के बाद अपने गांवों तक जाने के लिए उनके पास कोई चारा नहीं रहा पैदल जाने के अलावा। यहां दाद देना जरूरी है बरखा दत्त को, जिसने इन लाचार लोगों के साथ कोसों चल कर अपने डिजिटल चैनल मोजो पर इनकी आवाज उठाई। इसके बाद प्रसिद्ध टीवी पत्रकारों को शर्मिंदा होकर इस समस्या पर ध्यान देना पड़ा।

पिछले सप्ताह देश के गृहमंत्री ने घोषित किया है कि प्रवासी मजदूरों को घर तक पहुंचाने के लिए खास प्रबंध किए जाएंगे। ऐसा न होता अगर तो कुछ मुट्ठी भर पत्रकारों ने भारत सरकार को शर्मिंदा न किया होता। कैसे शासक हैं हमारे कि खाड़ी देशों से भारतीय मजदूरों को वापस लाने के लिए नौसेना और वायुसेना की मदद ली जा रही है और देश के अंदर प्रवासी मजदूरों के लिए बसों का भी इंतजाम नहीं कर सके हैं अभी तक? अब इतनी देर हो गई है कि कई लोग घर पहुंचते-पहुंचते दम तोड़ चुके हैं। अफसोस कि अब भी सोशल मीडिया पर उनके लिए सहानुभूति नहीं, धिक्कार दिखता है। पिछले हफ्ते जब मैंने प्रवासी मजदूरों के हाल पर ध्यान आकर्षित करना चाहा, तो कई लोगों ने उनको गालियां दीं और मुझे भी।

इतना संवेदनहीन निकले कई लोग कि यहां तक कहने लगे कि इन मजदूरों को शहरों में ही रुकना चाहिए था, ताकि स्थानीय प्रशासन उनकी देखभाल कर सके। इतना भी उनको मालूम नहीं था कि पैदल जाने पर मजबूर इसलिए हुए हैं लाखों लोग कि उनके पास न पैसे बचे थे, न नौकरियां, न घर और न कोई साधन अपने बच्चों को जीवित रखने के। जब उनसे वे मुट्ठी भर पत्रकार मिलने गए, तो सबने कहा कि कई दिन भूखे रहने के बाद ही वे अपने ग्रामीण घरों तक पैदल जाने को मजबूर हुए थे। अफसोस कि जिन पत्रकारों ने उनकी आवाज उठाई उनको देशद्रोही कहा जा रहा है।

इस संक्रमण की कहानी इंसानों की बीमार होकर मरने की कहानी है। गरीब, लाचार लोगों के भूख से मरने की कहानी है, लेकिन एक दो अखबारों और टीवी चैनलों के अलावा हम पत्रकारों ने इसको आंकड़ों की कहानी बना कर छोड़ दिया है। आज इतने लोग मरे हैं। आज फलां जगह ‘हॉट स्पॉट’ बन गया है। आज सैंतीस हजार का आंकड़ा पार हो चुका है संक्रमित लोगों का। ऐसा नहीं कह रही हूं कि ये आंकड़े जरूरी नहीं हैं। बहुत जरूरी हैं, क्योंकि इन्हीं से हमको मालूम पड़ता है कि यह महामारी कहां तक फैल चुकी है।

लेकिन इन आंकड़ों के पीछे हैं इंसान, जिनकी कहानियां हम मीडियावालों की लापरवाही के कारण सामने नहीं आई है। इस बंदी में अखबर अपने फोन पर पढ़ने के बाद दिन भर टीवी और सोशल मीडिया पर खबरें देखती रहती हूं। विदेशी टीवी चैनल ज्यादा पसंद करने लगी हूं, क्योंकि उन पर मिलती हैं इंसानों की कहानियां। पिछले हफ्ते रोमानिया से कहानी थी एक महिला की, जिसने अपने नवजात बच्चे को पहली बार अपने गोद में उठाया, जब वह तीन हफ्तों का हो चुका था करोना के कारण।

हम पत्रकारों ने चूंकि इस देश के सबसे गरीब, सबसे लाचार लोगों की कहानियों को अनदेखा किया है, इसलिए हमारे शासकों ने भी अनदेखा कर दिया है। कहां हैं वे सांसद और विधायक जो जीत कर आते हैं इन्हीं लोगों के वोटों से?