कश्मीर घाटी में पिछले तीन महीनों में पच्चीस से ज्यादा स्कूल जला दिए गए हैं। काश कि हमने इस पर उतना ध्यान दिया होता, जितना हमने उन जख्मी बच्चों पर ध्यान दिया है, जो छर्रे वाली बंदूकों से जख्मी इसलिए हुए कि उन्होंने सुरक्षा कर्मियों पर हमले किए। सेक्युलर स्वभाव के पत्रकारों और राजनेताओं के लिए ये जख्मी बच्चे सबसे बड़ा राजनीतिक मुद्दा बन रहे हैं, जबसे हिंसा का नया दौर घाटी में शुरू हुआ है। सो, बहुत कम लोगों ने अभी तक स्कूलों के जलाए जाने में कट््टरपंथी इस्लाम के आसार देखे हैं। पिछले हफ्ते पहली बार कुछ पत्रकारों ने इस पर जब ध्यान देना शुरू किया तो मालूम हुआ कि चौबीस घंटों में तीन स्कूलों को राख कर दिया गया, इसी हफ्ते। यह खबर छपी कुछ अखबारों में, लेकिन इसका मतलब हम समझे नहीं हैं। क्या है स्कूलों को जलाए जाने का असली मतलब? क्यों शिक्षा को निशाना बनाया जा रहा है? यह सवाल न हम पत्रकारों ने पूछा है और न उन राजनेताओं ने, जो हल्ला मचाते हैं कश्मीर घाटी में सुरक्षा कर्मियों के ‘जुल्म’ को लेकर।
समस्या यह भी है कि आम कश्मीरी नहीं समझ पाए हैं कि उनके साथ क्या हो रहा है ‘आजादी’ के नाम पर। समझे नहीं हैं घाटी के लोग कि स्कूलों को जलाना उस मुहिम का अहम हिस्सा है, जिसके जरिए कश्मीरी इस्लाम का चरित्र पूरी तरह से बदला जा रहा है। यह मुहिम बीस वर्ष पहले शुरू हुई थी, जब हर ‘गैर-इस्लामी’ चीज को घाटी से मिटाने के लिए दाढ़ीवाले नौजवान पहली बार दिखे थे। श्रीनगर में सिनेमाघर और शराब की दुकानें जबर्दस्ती बंद किए इन लोगों ने और फिर महिलाओं को जबर्दस्ती हिजाब पहनाए। न उस समय हम समझे इस नए इस्लाम का मतलब और न ही अब समझ सके हैं।
समझे होते हम तो इराक में जो आइएसआइएस (या दाएश) को उखाड़ने का युद्ध चल रहा है इन दिनों, उस पर ज्यादा ध्यान देते। पिछले हफ्ते जो अबू बकर अल बगदादी का बयान आया था, उसको ध्यान से सुनते। जिस खिलाफत का इजाद बगदादी ने दो वर्ष पहले किया था, उसको समाप्त करने की लड़ाई उरूज पर है और जब तक आप इस लेख को पढ़ेंगे, मुमकिन है कि मोसुल शहर वापस इराकी सरकार के हाथों में आ चुका होगा। उधर जो आम लोग रिहा हुए हैं, उनका कहना है कि इस खिलाफत के इस्लामी उसूल इतने कट्टर थे कि महिलाओं को दंडित किया जाता था, अगर उनके हाथ दिखते थे। लड़कियों को शिक्षा देना महापाप माना जाता है, क्योंकि इस किस्म के इस्लाम का बुनियादी उसूल है कि सेक्युलर शिक्षा इस्लाम के रसूल ने हराम माना था। सो, इस खिलाफत में बच्चों को सिर्फ कुरान पढ़ाया जाता है और अगर कुरान की आयतें सीख नहीं पाते थे छोटे बच्चे तो उन पर ऐसे जुल्म ढाए जाते थे कि उनका जिक्र करना मुश्किल है।
खिलाफत कायम किया गया था उन इलाकों में जहां आबादी थी यजीदी और कुर्द लोगों की, जिनकी मातृभाषा अरबी नहीं थी और जिनका मजहब इस्लाम नहीं था, लेकिन इनको भी जबर्दस्ती कुरान की आयतें सिखाई गर्इं। मैं जब भी इस खिलाफत के बारे में लिखती हंू तो याद आती है उस दो साल की बच्ची की कहानी, जिसको सात दिन एक बक्से में बंद करके घर के बाहर तेज धूप में रखा गया, सिर्फ इसलिए कि उसकी तोतली जबान पर कुरान की आयतें नहीं चढ़ीं। भूखा-प्यासा रखा गया इस मासूम को, सो जब उसको निकाला गया शायद जिंदा न थी, लेकिन उसकी मां के सामने उसको इस बक्से में से निकाल कर ऊंचाई से फेंका उस जानवर ने, जिसने उसकी यजीदी मां को गुलाम बनाया था।
हो सकता है कि कश्मीर घाटी तक इस तरह की खबरें नहीं पहुंची हैं, हो सकता है कि कश्मीर की माताएं जानती नहीं हैं कि इस खिलाफत में छोटे लड़कों को सेना में भर्ती किया गया इस्लाम के नाम पर। इतना लेकिन कश्मीर घाटी के लोग जरूर जानते हैं कि अफगानिस्तान में जब तालिबान का राज था, तो औरतों को शिक्षा देने वालों के लिए सजा-ए-मौत थी। कश्मीर घाटी में यह खबर तो जरूर पहुंच गई होगी कि जहां भी वहाबी या सलफी इस्लाम के उसूल लागू होते हैं वहां औरतें अकेले बाजार भी नहीं जा सकती हैं।
इस किस्म के इस्लाम को कायम करने के लिए जरूरी है आम लोगों को अशिक्षित रखना, सो कश्मीर में अगर स्कूल जलाए जा रहे हैं, तो कोई छोटी बात नहीं मानी जा सकती है। कश्मीर घाटी के इस्लामीकरण का यह एक अहम कदम है, जिसका मकसद है कश्मीर को पाकिस्तान के और करीब लाना और घाटी से भारत की सभ्यता को पूरी तरह से मिटाना। इसलिए बहुत जरूरी है कि मोदी सरकार हमारी पुरानी कश्मीर समस्या के हल नए सिरे से ढूंढ़ने की कोशिश करे। हम पत्रकारों के लिए भी जरूरी है अब कि कश्मीरी बच्चों के असली जख्मों पर ध्यान देना शुरू करें।
अभी तक जब भी बातें होती हैं कश्मीर के बच्चों की, तो सिर्फ उन छर्रे वाली बंदूकों के जख्मों की बातें हम करते आए हैं, उन असली जख्मों का हमने जिक्र तक नहीं किया है अभी तक जो बच्चों को अशिक्षित रखने से होंगे। स्कूलों का जलाया जाना इत्तेफक नहीं है, सोची-समझी रणनीति है, जो बर्बाद करके रखेगी कश्मीर घाटी को। प्रधानमंत्री मोदी ने एक बार कहा जरूर था कि वे कश्मीरी बच्चों के हाथों में पत्थर नहीं, लैपटॉप देखना चाहते हैं, लेकिन उसके बाद वे चुप हो गए हैं। चुप रहने का समय नहीं है। ऊंची आवाज में बोलने की जरूरत है हम सबको, जो कश्मीर घाटी का भला चाहते हैं।