आलम को जब घर में खाना बनाने के लिए रखा गया, तो सब बहुत खुश हुए थे, क्योंकि घर में दाखिल होते ही उसने सबका दिल जीत लिया था। बड़ी-बड़ी हंसती हुई आखें, घुंघराले बेपरवाह से बाल और उस पर उसकी अल्हड़ चाल ने उसको कुछ ऐसी शख्सियत दे दी थी कि कुछ देर में ही सबकी जुबान पर उसका ही नाम था। काम करने में वह बेहद फुर्तीला था। चाय कहा नहीं कि एक पल में वह गरम गरम प्याला हाजिर कर देता था।
आलम हमारे घर आने से पहले एक ढाबे में काम करता था। एक दिन पिता जी किसी काम से उस ढाबे के पास रुके हुए थे कि उन्होंने आलम को उनकी तरफ ताकते हुए पाया। उन्होंने ऐसे ही पूछ लिए कि क्या बात है, और आलम ने उनसे काम मांग लिया था। कहा था, मैं खाना बहुत अच्छा बनाता हूं। एक बार आजमा कर देखिए।
पिताजी को उसके चेहरे से झलक रही निष्कपटता कुछ ऐसी भा गई कि उन्होंने उसे तुरंत गाड़ी में बिठा लिया और घर ले आए। आलम उस समय कुछ अठारह साल का था और उसने घर तक के सफर में साफ कर दिया था कि उसको पढ़ने में कोई दिलचस्पी नहीं है, वह सिर्फ खाना बनाने का शौक रखता है। उसने यह भी बड़ी साफगोई से बता दिया था कि उसने ‘साहब’ को गुजरते कई बार देखा था और पहली बार से ही उसने मन बना लिया था कि जिस दिन भी उनकी गाड़ी एक पल के लिए रुकेगी, वह उनकी नजर थाम लेगा और उनके घर पर काम करने की अर्जी लगा देगा। जवाब में पिता जी ने कुछ नहीं कहा था, कुछ नहीं पूछा था, बस उसे घर ले आए और मां के हवाले कर दिया था।
मां ने भी उसके नाम पर कोई सवाल नहीं उठाया था। ‘तुम्हारा सामान कहां है?’ उन्होंने पूछा। ‘सब छोड़ आया हूं। वैसे भी छोड़ कर एक जोड़ी कपड़ा ही आया हूं।’ मां ने उसे नहाने का सामान दिया था और कहीं से तीन जोड़ी कपड़े निकाल लाई थी। सोने की व्यवस्था भी तुरंत करा दी गई थी। आलम तैयार होकर अपना जौहर दिखाने में लग गया था।
रात का खाना उसने बहुत अच्छा बनाया था। सबने जम कर तारीफ की थी। आलम ने मुस्करा कर, शरारत भरे अंदाज में कहा, ‘मांजी, कुछ बख्शीश मांग सकता हंू?’ ‘हां, बोलो।’ उन्होंने कहा था। ‘जी, मुझे रसोई के लिए एक ट्रांजिस्टर दे दीजिए। खाना बनाते समय मुझे गाने सुनना पसंद है।’ उसकी बेबाकी पर सब हंस दिए थे। आलम को मेरा वाला बड़ा ट्रांजिस्टर मिल गया था।
हफ्ते भर बाद फोन आया कि दादी का मायके का प्रवास पूरा हो गया है और वे अगले दिन हमारे साथ रहने आ रही हैं। दादी इलाहाबाद की थीं और उनके दोनों भाई नौकरी छोड़ कर धर्म की सेवा में लग गए थे। संन्यासी थे और पहले से ही कर्मकांडी थे। दादी भी बेहद धार्मिक विचारों की थीं। शुरुआत में छुआछूत में विश्वास रखती थीं, पर धीरे-धीरे उन्होंने चौके में अंडा और मटन भी बनाने की इजाजत दे दी थी। बस, उनकी पूजा की जगह पर घरवालों का भी बिना नहाए प्रवेश वर्जित था।
उनके आने की खबर से एक बार के लिए मां और पिताजी का ध्यान आलम पर गया था, वह मुसलमान था। अम्माजी शायद चौके में मुसलमान को बर्दाश्त नहीं कर पाएंगी। मां ने सुझाव दिया था कि आलम का नाम बदल दिया जाए और उसको हिदायत दे दी जाए कि वह अपना धर्म अम्माजी के सामने जाहिर नहीं करेगा। पिताजी ने उनकी बात नहीं मानी। ‘आलम आलम ही रहेगा। अम्मा जी से मैं बात करूंगा।’
अम्मा ने आते ही चाय की फरमाइश कर दी। क्योंकि मां की जुबान पर नाम चढ़ा हुआ था, सो उन्होंने अनायास ही पुकार लगा दी थी, ‘आलम, दो प्याली चाय ले आओ।’ ‘यह नया कौन है, बहू?’ ‘अभी, महीने भर पहले ही रखा। लड़का है। खाना बहुत अच्छा बनाता है।’ ‘और उसका नाम आलम है?’ ‘जी।’
‘मुसलमान है?’ ‘जी।’ मां तनाव में आ गई थी। ‘यह रेडियो वह भी बजा रहा है?’ ‘जी।’
मां कुछ और कहने ही वाली थी कि आलम चाय लिए कमरे में दाखिल हो गया। वह सकपका गई। अम्मां जी के गुस्से से वह परिचित थी। धर्म हानि होने से तो वह सातवें आसमान तक पहुंच सकता था। पिताजी भी दफ्तर से नहीं लौटे थे कि स्थिति को संभाल लेते। एक अजीब-सी आशंका पल भर के लिए कमरे में लोट गई थी।
अम्मा जी पलटीं और उन्होंने आलम को गौर से देखा। ‘अच्छा, तो तू है आलम। देखूं तो चाय कैसी बनाता है तू।’ उन्होंने हाथ बढ़ा कर प्याला पकड़ लिया और एक भरपूर चुस्की उसमें से ले ली। ‘चाय तो ठीक बनाई है। अब देखती हूं, खाना बनाने में तेरा हाथ कैसा है।’ उन्होंने मुस्करा कर कहा। आलम ने आगे बढ़ कर उनके पैर छुए और आशीर्वाद लिया।
मां ने एक भरपूर सांस छोड़ी। अम्मा जी तपाक से बोलीं, ‘तू क्या समझती थी बहू कि मैं मुसलमान देख कर भड़क जाऊंगी? अरे सुन, वो जमाने लद गए जब हिंदू-मुसलिम कर के अंगरेज हमें लड़ाया करते थे। मैंने गांधीजी की एक आवाज पर घूंघट छोड़ दिया, सड़क पर सत्याग्रह किया और तेरे ससुर के अंग्रेजों के दरोगा होने के बावजूद आजादी की लड़ाई लड़ी है। क्या वह लड़ाई मैंने हिंदू-मुसलमान करने के लिए लड़ी थी?’
मां उनकी बात सुन कर कुछ झेंप गई। ‘नहीं, आप इतना पूजा-पाठ करती हैं, तो इसलिए मैंने सोचा कि आपको अच्छा नहीं लगेगा… और ये भी तो ऐसे हैं कि बिना कुछ सोचे-समझे ले आए इसको। वैसे, लड़का बहुत अच्छा है…’
‘ठीक किया विक्रम ने। आदमी की सीरत देखनी चाहिए… यह हिंदू-मुसलमान क्या होता है? नेहरू जी की बात हमेशा याद रखा कर… पार्टीशन हुआ, दंगे हुए, पर फिर सब ठीक हो गया न? उन्होंने कोई भेदभाव किया? जिन्ना ने किया… और उसके देश में आज कोई उसका नामलेवा नहीं है। उसको फोटो बना कर टांग रखा है। इधर, नेहरू को देश ही नहीं, पूरी दुनिया आज तक याद करती है। और गांधीजी…. उनका कोई जोड़ है क्या? हिस्ट्री उठा कर देख ले, तू तो हिस्ट्री वाली है न?’
उन्होंने आलम को पुकारा। आलम फौरन से पेश्तर हाजिर हो गया। ‘देख आलम, अब मैं आ गई हूं। तुझे एक बात का पूरी पाबंदी से खयाल रखना है… नमाज तू पहले पढ़ या बाद में पढ़, मुझे इससे मतलब नहीं है, पर याद रख, दिन में मैं ठीक एक बजे खाना खाती हूं और रात को आठ बजे। ठीक टाइम पर खिलाएगा तो खूब आशीष पाएगा अपनी दादी से।’

