अटल बिहारी वाजपेयी ने कभी मुझसे कहा था, ‘जाएं तो जाएं कहां’। बाबरी मस्जिद गिराए जाने के कुछ दिन बाद मैं उनसे मिलने गई थी और उन्होंने स्पष्ट शब्दों में अपना दर्द व्यक्त किया था। सो, मैंने उनसे पूछा कि भारतीय जनता पार्टी को छोड़ क्यों नहीं देते हैं? इस सवाल के जवाब में उन्होंने उस फिल्मी गीत के शब्दों में जवाब दिया था। उनके शब्द मुझे इन दिनों बहुत याद आते हैं, क्योंकि कुछ ऐसा ही हाल है इस चुनाव में भारत के मतदाताओं का। जहां जाती हूं, मुझे मिलते हैं लोग जो या तो ‘हर हर मोदी, घर घर मोदी’ कहते हैं या अगर थोड़े निराश हैं, तो कहते हैं कि मोदी को वोट नहीं देंगे तो देंगे किसको?
पिछले आम चुनाव में विकल्प स्पष्ट थे। एक तरफ थे वे लोग, जो सत्ता में दशकों रहने के बाद भारत पर राज करना अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानने लगे थे। दूसरी तरफ था एक चायवाले का बेटा, जो परिवर्तन और विकास के वादे करके लोकप्रिय हुआ था देश भर में। इस बार नरेंद्र मोदी से अगर इतनी उम्मीदें नहीं जुड़ी हैं, जितनी पांच साल पहले थीं, तो इसलिए कि उनके खेमे में कुछ ऐसे लोग दिखने लगे हैं, जिनकी राजनीति का आधार सिर्फ नफरत है। पिछले दिनों मेरा उनसे वास्ता जरूरत से ज्यादा रहा है सोशल मीडिया पर, क्योंकि मैंने साध्वी प्रज्ञा ठाकुर को लोकसभा में भेजने के प्रयास का विरोध किया है।
पिछले हफ्ते मेरा लेख छपते ही नफरत की आंधी आ पड़ी मेरे ट्विटर खाते में। मेरे निजी जीवन को लेकर झूठी बातें कही गर्इं, मेरे चरित्र को लेकर गंदी-गंदी बातें कही गर्इं और ‘लटयन्स दिल्ली’ में रहने का आरोप लगा। हां, मैं बचपन से दिल्ली के इस इलाके में रहती आई हूं। तबसे जब यह दरबारियों का अड््डा नहीं था। सिर्फ एक खूबसूरत रिहाइशी इलाका, जिसमें रिहाइश पाना सौभाग्य माना जाता था, गुनाह नहीं। यहां रहना मुझे नसीब हुआ, क्योंकि मेरे नाना उन पांच ठेकेदारों में से थे, जिन्होंने एडविन लटयन्स के साथ नई दिल्ली का निर्माण किया था। सो, विरासत में मुझे यहां एक छोटा फ्लैट मिला है।
जो आरोप मुझे इन नफरत से भरे हिंदुत्ववादियों का सबसे अजीब लगा, वह यह कि मैंने वफादारी नहीं दिखाई है उस विचारधारा से, जिसके प्रतीक मोदी हैं। इस बात से जाहिर होता है कि मोदी के समर्थक राजनीतिक पत्रकारिता नहीं समझ पाए हैं। मेरे जैसे लोगों की वफादारी विचारों और नीतियों से होती है, राजनेताओं और राजनीतिक दलों से नहीं। सो, जब मोदी ने अपने शासनकाल में ऐसे काम किए हैं, जो मुझे अच्छे लगे हैं, मैंने उनकी तारीफ की है और जब मुझे उनकी नीतियां पसंद नहीं आई हैं, मैंने आलोचना की है। यही धर्म है राजनीतिक पत्रकारों का।
आज भी अगर मैं मोदी की समर्थक हूं, उनके नफरत भरे साथियों के बावजूद, तो इस लिए कि राहुल गांधी में मुझे आज तक एक भी गुण नहीं नजर आता है। उनके चुनाव अभियान में या तो मैंने झूठी बातें सुनी हैं मोदी के ‘पंद्रह अमीर दोस्तों’ को लेकर, रफाल सौदे को लेकर या फिर ऐसी आर्थिक नीतियों का समर्थन, जिनसे यादें ताजा होतीं हैं उनकी प्रिय दादी अम्मा के दौर की। उस दौर को समाजवादी आर्थिक नीतियों का सबसे सुनहरा दौर मानते हैं वामपंथी राजनीतिज्ञ। उस दौर में गरीबी हटाने के नाम पर अमीरों पर सत्तानबे प्रतिशत टैक्स लगा था। मुंबई में मेरे उद्योगपति दोस्त बताते हैं कि टैक्स भरने के लिए उनको उधार लेना पड़ता था। गरीबी हट गई होती तो कौन गिला करता, लेकिन न गरीबी हटी और न भारत में समृद्धि आई।
हम जैसे लोगों का हाल यह था कि गैस कनेक्शन या फोन लेने के लिए हमको सांसदों और आला अधिकारियों के पास जाकर मिन्नतें करनी पड़ती थीं। उनको इन चीजों का कभी अभाव न था जनता की बदौलत। सो, हमारे पैसों से उनको मिलते थे आलीशान आवास, मुफ्त बिजली, गैस, फोन और नौकर। उनकी रेल यात्राएं और विदेशी यात्राओं के भी पैसे हम देते थे, क्योंकि यही है समाजवादी दस्तूर। इंदिरा गांधी के पोते ने स्पष्ट किया है अपने हर भाषण में कि वे जिस दिन प्रधानमंत्री बनेंगे, तो वापस लाएंगे ऐसी नीतियां, जो पहले हुआ करती थीं। उनकी सरकार बनेगी तो गरीबी हटाने के नाम पर मुमकिन है कि भारत देश इतना गरीब हो जाएगा कि वेनेजुएला का जो आज हाल है, वह भारत का निकट भविष्य में हो जाएगा।
सो, ये हैं देश के सामने विकल्प। एक तरफ हैं वही लोग, जो सत्ता में रहने के इतने आदी हैं कि भारत पर राज करना अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानते हैं। दूसरी तरफ हैं मोदी, जिन्होंने काफी हद तक परिवर्तन अच्छे किस्म का लाकर दिखाया है, लेकिन साथ में यह भी दिखाया है कि उनके समर्थकों में कुछ ऐसे लोग, कुछ ऐसी संस्थाएं हैं, जिनका एक ही मकसद है और वह है नफरत फैलाना हिंदुओं और मुसलमानों के बीच। नफरत ने इन कइयों को इतना पागल कर दिया है कि वे मानते हैं कि एक दिन आएगा जब भारत के हर मुसलमान को पाकिस्तान भेज दिया जाएगा। कहते हैं जहरीली ट्वीट करके बार-बार कि जब पाकिस्तान मुसलमानों के लिए बना है, तो मुसलमानों को भारत में रहने का कोई अधिकार नहीं होना चाहिए। जानते हैं ये लोग भी कि मुसलमान कहीं नहीं जाने वाले हैं, लेकिन नफरत फैलाने में जैसे उनको शांति मिलती है।
समझ गए होंगे आप अभी तक कि अटलजी के वे शब्द मेरे कानों में क्यों इतनी बार गूंजते रहे हैं पिछले दिनों? मैं अकेली नहीं हूं, जिसके लिए ये शब्द खास मायने रखते हैं इन दिनों। लाखों भारतीय मतदाता आज पूछ रहे हैं अपने आप से ‘जाएं तो जाएं कहां।’