एक सुबह जब ग्रेगोर समसा अपने कष्टप्रद सपने से जागा तो उसने अपने को बिस्तर में एक घिनौने कीड़े के रूप में तब्दील पाया।’ – विश्व प्रसिद्ध साहित्यकार फ्रांज काफ्का के लघु उपन्यास ‘मेटामॉरफोसिस’ की कहानी इस पहली लाइन से शुरू होती है और फिर पाठक को एक जटिल यात्रा पर ले जाती है, जिसमे इंसान से कीड़ा बना जीव अपने अंदर की मानवता का सामंजस्य अपने कीड़ेपन से करने की कोशिश करता है। अंत में वह हार जाता है, क्योंकि उसके आसपास के लोग मानव होने के बावजूद भी कीड़े से बदतर थे।
काफ्का का यह लघु उपन्यास पिछले सौ सालों के साहित्य सृजन में सबसे उत्तम कृति मानी जाती है। एक भयावह तब्दीली से मुख्य पात्र का जूझना। पहले खुद स्वीकारना कि वह अब दो हाथ, दो पैर वाला सामान्य पुरुष नहीं रहा है, बल्कि कई पैर वाला वीभत्स-सा जंतु हो चुका है और अपने बदले हुए हालत को लेकर बेहद मजबूर है। फिर अपने परिवार और नजदीक वालों की प्रतिक्रिया से अपने को संभालना काफ्का की कृति की मुख्य विषय-वस्तु है।
अपने उपन्यास में काफ्का कहीं भी नहीं बताते है कि वह आदमी कीड़े में कैसे बदल गया था। बस, वह बदल गया- अचानक एक सुबह। इस तब्दीली को उन्होंने न समझा कर पाठक के सामने वह हकीकत पेश की है जो हमारे साथ कभी न कभी जरूर होती है। यानी कोई परिचित हमारे लिए कीड़े-सा हो जाता है। व्यक्ति ही नहीं- हम कभी-कभी बहुत सारे लोगों को भी कीड़े की श्रेणी में डाल देते हैं। न ही व्यक्ति और न ही कोई समुदाय इस अचानक एक सुबह कीड़े में तब्दील होने के बारे में कुछ कर सकता है। उसके लिए फैसला हो चुका है। किसी भी गुहार या तर्क का अब कोई फायदा नहीं होता है। वह कीड़े का जीवन बिताने के लिए एक तरह से श्रापित हो चुका है।
काफ्का की इस कृति के माध्यम से पाठक के लिए अधिनायकवाद, अलगाववाद, अस्तित्ववाद जैसी जटिल परिस्थितियों में मानवता के हनन की भयावह तासीर उभर कर सामने आती है। इस छोटे से उपन्यास में काफ्का ने बड़े हुनर से अचानक इंसान से कीड़े में तब्दील हुए व्यक्ति की व्यथा को चित्रित किया है। काफ्का की यह कथा वास्तव में उनके निजी जीवन और अनुभवों पर आधारित है। उनके पिता उनके लिए एक तानाशाह की तरह थे, जिनकी मर्जी से सारा परिवार चलता था। जब काफ्का बच्चे थे और बाद में भी, तो वे एक नाजुक किस्म के इंसान थे, जबकि उनके पिता शरीर और प्रवृत्ति, दोनों से दबंग थे। वे अपने बेटे को हेय दृष्टि से देखते थे और उन पर हमेशा हावी रहते थे। पिता का यह नकारात्मक प्रभाव उनकी रचनाओं में साफतौर पर दिखाई पड़ता है, जो कि वह बेलगाम सत्ता के लिए रूपक की तरह है।
नागरिक के जीवन में सरकारी तंत्र की भूमिका कितनी होनी चाहिए, अक्सर बहस का विषय होता है। काफ्का का कहना था कि किसी भी तरह की निगहबानी ठीक नहीं होती है, क्योंकि धीरे-धीरे वह बढ़ पर अपने चरम तक पहुंच जाती है। उस शीर्ष से फिर नागरिक ‘कीड़े-मकोड़े’ की तरह दिखने लगते हैं, जिनको समेटना सत्ता का एकमात्र काम रह जाता है। वह तरह-तरह के नए तरीके ईजाद करना शुरू कर देती है, जिससे इन ‘कीड़ों’ का सक्रमण सत्ता द्वारा खींचे गए दायरे में रहे और कदापि उन तक न पहुंचे। समेटने की प्रक्रिया क्रूरता को बढ़ावा देती है, क्योंकि नागरिक को कीड़े की श्रेणी में डालने के बाद मानवीय व्यवहार का औचित्य समाप्त हो जाता है।
वास्तव में शासक कीड़ों से अपना ध्यान हटाने के लिए नए-नए प्रयोजन रचने लगता है। काफ्का के उपन्यास में मुख्य पात्र (जो अब कीड़ा बन चुका है)के पिता अपने घर में घिनौने जीव से अपने को हटा कर नाश्ता करने में जुट जाते हैं या फिर उसकी बहन वायलिन बजाने लगती है, जब कुछ लोग घर पर आ जाते हैं। सब समस्या से रूबरू होने के बजाय चिड़चिड़ा कर देखने वालों के लिए कुछ और ही प्रस्तुति लेकर आ जाते हैं। दूसरे शब्दों में, वे मुद्दे से ध्यान भटकाने की पुरजोर कोशिश करते हैं। इस पर कोई विश्लेषण नहीं करता है कि एक आदमी कीड़ा कैसे बन गया था।
साथ ही कीड़े के अपने संघर्ष को भी काफ्का ने बड़ी खूबी से रेखांकित किया है। कीड़ा बनने के शुरुआती दौर में पात्र अपने को आदमी मानता है, पर दूसरों की प्रतिक्रिया देख कर वह अपने कीड़ेपन से अपने को समायोजित कर लेने की कोशिश करता है। अपनेपन से अलगाव तक की पूरी प्रक्रिया इस कहानी में मार्मिक तरीके से बयां की गई है।
एक व्यक्ति और उसके परिवार की कहानी होने के बावजूद काफ्का ने उसे उपदेशात्मक और सदा प्रासंगिक आयाम दिया है। आदमी से कीड़े में तब्दील होना अपने में एक राजनीतिक और सामाजिक रूपक या मेटाफर है। यह उसी पल में होता है, जिस पल में सौम्य शति, हठी और व्यसनी शति में परिवर्तित होती है। यह एक वास्तविक प्रक्रिया है, पर इस परिवर्तन का पता उस क्षण नहीं चलता है जब यह होता है। पर जब इसका एहसास होता है, तब बहुत देर हो चुकी होती है। क्रूरता शति में रच चुकी होती है। लोग कीड़े बन चुके होते है। हम अवाक् रह जाते हैं।

