अगर सरकार आत्मविश्वास में रहती, तो अंतरिम बजट कोई बड़ा मौका नहीं था और उसे यों ही निकल जाने देती। लेकिन आत्मविश्वास एक खूबी है, जो भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार में नहीं दिखती। जरा भाजपा सांसदों के लटके हुए चेहरों पर ही नजर डाल लें, खासतौर से राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और उत्तर प्रदेश के भाजपा सासंदों पर, तो आप मुझसे सहमत होंगे। इसलिए प्रधानमंत्री मोदी ने फैसला किया कि अंतरिम बजट पेश करने के अवसर को एक खास आयोजन में बदल दिया जाए। कार्यवाहक वित्तमंत्री (उस खिलाड़ी की तरह जिसे पहली बार खेलने का मौका मिला) ने इस मौके को एक शानदार आयोजन बनाने की पूरी कोशिश की। इसके पीछे विचार यह था कि सरकार के इस आखिरी काम में जोश भर दिया जाए। दुर्भाग्य से इसका नतीजा उससे बहुत अलग देखने को मिल सकता है जो कि प्रधानमंत्री और अंतरिम वित्तमंत्री ने चाहा है।
अशोभनीय
वादों की हकीकत सामने आनी शुरू हो गई है। सबसे पहले हम उस बड़े वादे पर गौर करते हैं जिसमें पीएम-किसान योजना के तहत दो हैक्टेयर या इससे कम जमीन वाले हर किसान को साल भर में छह हजार रुपए तीन किस्तों में देने का वादा किया गया है। सरकार ने इस योजना को एक दिसंबर, 2018 से प्रभावी करते हुए चुनाव आयोग की आंखों में धूल झोंकने की कोशिश की! ऐसा कैसे संभव हो सकता है? क्या सरकार किसान के बैंक खाते में पहली किस्त के दो हजार रुपए एक दिसंबर, 2018 से डालेगी और बैंकों को उस तारीख से ब्याज देने का निर्देश देगी? अगर यह रकम चुनाव आचार संहिता लागू होने के पहले जारी कर दी जाती है, तो ऐसे में चुनाव आयोग इस बारे में अपने को असहाय बता कर बच सकता है, और चुनाव आयोग अगर दूसरी किस्त नहीं रोकता है तो लोग यह नतीजा निकालेंगे कि एक और महत्त्वपूर्ण संस्था को दबा दिया गया या उस पर भी कब्जा कर लिया गया।
घूस
अब पीएम-किसान योजना की खूबियों को देखें।
हर सीमांत और छोटे किसान, जो दो हेक्टेयर या इससे कम की जमीन का मालिक है, को इस योजना में शामिल किया गया है। यह देश की कुल कृषि का 86.2 फीसद बैठता है। जो इसमें शामिल है वह तो महत्त्वपूर्ण है ही, जिसे इसमें शामिल नहीं किया गया वह भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है। मालिक किसान, चाहे वह खेती कर रहा हो या नहीं कर रहा हो, या फिर बंटाई पर जमीन दे दी हो, इस योजना में शामिल है और उसे पैसा मिलेगा। बंटाई पर खेती करने वाला इसमें शामिल नहीं है, खेतिहर मजदूर को भी इस योजना में शामिल नहीं किया गया है, गैर-कृषि ग्रामीण गरीबों जैसे छोटे दुकानदारों, हॉकर, बढ़ई, सुनार, हज्जाम आदि भी इसमें शामिल नहीं है। शहरी गरीब तो इस योजना से पूरी तरह बाहर रखे गए हैं।
मालिक किसान के परिवार को सत्रह रुपए रोज मिलेंगे। मैं योजना का कोई मखौल नहीं उड़ा रहा हूं, यह तो सरकार है जो डीजल, बिजली, खाद, बीज आदि के दाम बढ़ा कर, खेती के उपकरणों जैसे ट्रैक्टर और फसल कटाई की मशीनों पर जीएसटी लगा कर और किसानों को उनकी फसल का उचित दाम न देकर उनके जले पर नमक छिड़क रही है। क्या सत्रह रुपए रोजाना से किसी किसान-परिवार के कष्ट या गरीबी कम हो पाएगी? जाहिर है, नहीं। कई राज्यों में पांच सौ रुपए महीने (या छह हजार सालाना) की यह रकम वृद्धों या दिव्यांगों या विधवाओं को मिलने वाली पेंशन से भी कम होगी। यदि सत्रह रुपए या पहली किस्त के रूप में दो हजार रुपए गरीबी कम करने का पर्याप्त कदम नहीं है तो फिर यह है क्या? सीधी-सादी भाषा में यह वोटों के लिए दी जा रही नगदी है। सरकार चुनाव में वोट हासिल करने के लिए मतदाताओं को पैसा देगी, जैसा कि अवैध रूप से हासिल धन के उपयोग से कुछ राजनीतिक दल इस कला को आजमाते आए हैं। पीएम-किसान योजना के तहत मतदाताओं को घूस देने के लिए पहली बार सरकारी पैसे का इस्तेमाल किया जाएगा।
क्या राज्य सरकारों ने भूमि के मालिकाना हक संबंधी रेकार्डों को अद्यतन कर उनका मिलान कर लिया है? एक तरफ तो चार फरवरी को सरकार ने राज्यों को जमीनों के मालिकाना हक संबंधी रेकार्ड अद्यतन करने के बारे में लिखा, और उसी दिन दूसरी ओर सचिव ने यह घोषणा की कि पहली किस्त तत्काल जारी की जाएगी और सरकार दूसरी किस्त भी चुनाव के पहले जारी कर सकती है। लगता है सचिव सरकार के राजदार हैं!
शेखी
दूसरा बड़ा वादा पेंशन योजना का है, यानी पहली अटल पेंशन योजना के विफल होने के बाद दूसरी पेंशन योजना। पुरानी अंशदायी योजना मई, 2015 में शुरू की गई थी और दिसंबर, 2018 तक इसमें सिर्फ एक करोड़ तैंतीस लाख लोग ही पंजीकृत हो पाए। कुछ लोग थे जो इसके अंशदान के जटिल गणित को समझ गए थे, जिसमें निश्चित लाभ के साथ उपभोक्ता के अंशदान का पैसा मिलने की बात थी। नई योजना दिखने में तो आसान है, लेकिन इसमें हर महीने पचपन से सौ रुपए का अंशदान एक लंबे समय तक करना है जो इकतीस से बयालीस साल का होगा और जिसमें साठ साल की उम्र से तीन हजार रुपए मिलने शुरू होंगे। ऐसे में व्यावहारिक रूप से इसका कोई आर्थिक मतलब नहीं रह जाता। इसमें पंजीकरण कराने की अधिकतम आयु सीमा यदि पचास साल है (जैसा कि उनके भाषण से अनुमान लगा सकते हैं), तो कार्यवाहक वित्तमंत्री भी समझते हैं कि दस साल के लिए कोई इसमें पैसा नहीं देगा। मुझे लगता है कि दस करोड़ श्रमिकों और कामगारों के इसमें पंजीकरण कराने का जो प्रस्ताव है, उसकी कोई उम्मीद नहीं है, कार्यवाहक वित्तमंत्री ने इसके लिए पांच सौ करोड़ रुपए रखे हैं! (बजट भाषण के अनुच्छेद 37 से अलग बजट दस्तावेजों में इस आबंटन का उल्लेख कहां है?)
इसके अलावा और भी हवाई बाते हैं, जो खुले में शौच मुक्त जिले और गांव, हर घर को बिजली, मुफ्त एलपीजी कनेक्शन, रोजगार पैदा करने वाला मुद्रा लोन से जुड़ी हैं। बावजूद इसके तथ्य यह है कि इनमें से हर दावे को लेकर सरकार का पर्दाफाश हो चुका है। शिक्षाविदों, गैर-सरकारी संगठनों और पत्रकारों ने मौकों पर जाकर जो रिपोर्टें तैयार की हैं, उनसे झूठ सामने आ गया है। कुल मिला कर अंतरिम बजट से यह उजागर होता है कि लोकसभा चुनाव के लिए भाजपा की रणनीति मतदाताओं को घूस देने और शेखी बघारने वाली है।