महेंद्र राजा जैन
गोपेश्वर सिंह की टिप्पणी ‘समीक्षा की साख’ (31 मई) से शायद ही कोई असहमत हो। दरअसल, आज पुस्तक समीक्षा का आलम यह है कि समीक्षक को पुस्तक पढ़ने की जरूरत ही नहीं होती। वह पुस्तक का ब्लर्ब देख कर और पुस्तक की भूमिका के पृष्ठ उलट-पलट कर, भूमिका से ही कुछ अंश लेकर समीक्षा लिख डालता है।
अभी कुछ समय पहले ‘पुस्तक समीक्षा’ पर शोध कर रहे एक छात्र से मुलाकात हुई, तो उसने कहा: ‘सर, कोई ऐसी पुस्तक बताइए, जिससे मुझे कुछ सहायता मिल सके।’ मुझे आश्चर्य हुआ कि न तो उसे पता था, न उसके निर्देशक ने उसे ‘पुस्तक समीक्षा का परिदृश्य’ (किताबघर प्रकाशन) पुस्तक के विषय में बताया था, जो मेरे विचार से इस विषय की संभवत: एकमात्र पुस्तक है, जिसमें पुस्तक समीक्षा के विभिन्न पहलुओं पर विस्तार से विचार किया गया है। यह पुस्तक पढ़ कर पता चलता है कि पुस्तक समीक्षा साहित्य के हाशिये का विमर्श न रह कर अब केंद्र में आ गई है। शायद यह हिंदी की अकेली और पहली ऐसी पुस्तक है, जिसका विषय किताब के जीवन से सीधे जुड़ा है, यानी किताब की चिंता में तल्लीन खुद एक किताब। मुद्रित शब्द पर आए-छाए संकटों के बीच विश्वसनीय पुस्तक समीक्षा ही एक ऐसा अस्त्र हो सकता है, जिसके सहारे शब्दों के सार्वजनिक प्रहरी सीना तान कर, दृश्यलिप्त दुनिया को यह दिखा सकते हैं कि अंतत: शब्द ही ब्रह्म है।
आलोचना और समालोचना या समीक्षा- हालांकि ये दोनों शब्द लगभग समानार्थी हैं, पर प्रेमघन के शब्दों में ‘समालोचना का अर्थ है- पक्षपातरहित होकर, न्यायपूर्वक किसी पुस्तक के यथार्थ गुण-दोष की विवेचना करना।’ पर आज पत्र-पत्रिकाओं में छप रही अधिकतर समीक्षाओं को देखने पर ऐसा नहीं लगता। ‘अशोक के फूल’ निबंध में हजारीप्रसाद द्विवेदी ने ठीक ही लिखा है कि ‘साहित्य से संबंध रखने वाले जीव पांच प्रकार के हैं- लेखक, पाठक, संपादक, प्रकाशक और आलोचक… पढ़ने वाला आलोचना नहीं करता, आलोचना करने वाला पढ़ता नहीं। यही तो उचित नाता है। एक ही आदमी पढ़े भी और लिखे भी या पढ़े भी और आलोचना भी करे या लिखे भी आदि… तो साहित्य में अराजकता फैल जाए।’
मई 1931 में प्रेमचंद ने ‘हंस’ की संपादकीय में लिखा था कि ‘हिंदी में या तो समालोचना होती ही नहीं या होती है तो द्वेष या झूठी प्रशंसाओं से भरी हुई या ऊपरी उथली और बहिर्मुखी। ऐसे समालोचक बहुत कम हैं, जो किसी रचना की तह में डूब कर उसका तात्त्विक, मनोवैज्ञानिक विवेचन कर सकें।’ तब से आज तक यानी पिछले पचासी वर्षों में स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ जान पड़ता है। आज कई समीक्षा पत्रिकाएं निकल रही हैं। पत्र-पत्रिकाओं में पहले की अपेक्षा अधिक पृष्ठ पुस्तक समीक्षा के लिए दिए जाते हैं, पर समीक्षा की गुणवत्ता में कोई सुधार नहीं हुआ है। क्या कारण है कि कहां तो एक ही अंक में एक ही पुस्तक की कई समीक्षाएं दे दी जाती हैं और दूसरी ओर कई महत्त्वपूर्ण पुस्तकें असमीक्षित रह जाती हैं। आज आम धारणा है कि पत्र-पत्रिकाओं में छपी अधिकतर समीक्षाएं प्रायोजित होती हैं। कुछ लेखक अपने परिचितों-मित्रों से समीक्षाएं लिखवा कर अपने मित्र संपादकों की पत्रिकाओं में छपवाते हैं।
मेरा मानना है कि अधिकतर समीक्षक ईमानदार हैं। वे अपना नैतिक दायित्व समझते हैं। उनकी अंतश्चेतना उन्हें इस बात की इजाजत नहीं देती कि वे पूर्वग्रहग्रस्त समीक्षा लिखें। पर जैसा कि सभी क्षेत्रों में होता है, एक सड़ी मछली सारे तालाब को गंदा कर देती है। कुछ ऐसी ही बात साहित्य जगत में भी है। लेखक और समीक्षक साहित्य में दो अलग कोण हैं। यह भी कहा जा सकता है कि साहित्यिक समीक्षा विफल लेखकों की शरणस्थली है। किसी क्रुद्ध समीक्षक की टिप्पणी लेखक को किस प्रकार जमीन चाटने को विवश कर देती है, यह बहुत से लेखकों को पता होगा। वर्षों की मेहनत से लिखी गई तीन-चार सौ पृष्ठों की पुस्तक किसी भी समीक्षक की केवल सौ-दो सौ पंक्तियों की समीक्षा द्वारा आसानी से कबाड़ घोषित कर दी जाती है।
समीक्षक का कार्य कोई जनप्रिय कार्य नहीं है। उसका काम ‘बेस्टसेलर’ की भविष्यवाणी करना तो निश्चित नहीं है। उसका काम साहित्य जगत की समसामयिक आवाजों को ध्यान से सुनना है। समीक्षक ‘धर्मसंकट’ में तभी पड़ता है जब-
वह लेखक का परिचित होता है, पर उसे उसकी पुस्तक पसंद नहीं है।
वह लेखक को जानता है और उसे उसकी पुस्तक भी पसंद है।
वह लेखक को नहीं जानता और उसे उसकी पुस्तक पसंद नहीं है।
वह लेखक को नहीं जानता और उसे उसकी पुस्तक पसंद है।
हिंदी में हर साल हजारों पुस्तकें प्रकाशित होती हैं, पर इनमें से एक प्रतिशत की भी समीक्षा कहीं प्रकाशित नहीं होती। यह बहुत विचारणीय बात है। क्या वे पुस्तकें ऐसी नहीं होतीं कि उनकी समीक्षा प्रकाशित की जाए? लेखकों को शिकायत रहती है कि प्रकाशक समीक्षा के लिए पुस्तकें नहीं भेजते, प्रकाशकों को शिकायत रहती है कि समीक्षार्थ पुस्तकें भेजी जाती हैं, पर समीक्षा नहीं की जाती और संपादकों को शिकायत रहती है कि इतनी अधिक पुस्तकें समीक्षार्थ प्राप्त होती हैं कि सभी की तो बात दूर, पांच प्रतिशत की भी समीक्षा देना मुश्किल होता है।
किसी भी पत्रिका के लिए यह संभव नहीं कि सभी पुस्तकों की समीक्षा दी जा सके। अधिकतर पुस्तकें ऐसी होती हैं, जो न तो पत्रिका की रीति-नीति के अनुकूल होती हैं और न इस स्तर की कि उनकी समीक्षा दी जाए। शायद इसी कारण ‘धर्मयुग’ ने घोषित कर रखा था कि प्रकाशक पुस्तकें न भेजें। अगर ‘धर्मयुग’ किसी पुस्तक को समीक्षा योग्य समझता है तो प्रकाशक को लिख कर पुस्तक मंगा ली जाएगी। यह तो ठीक है कि संपादक के लिए संभव नहीं कि सभी प्राप्त पुस्तकों की समीक्षा छापी जा सके और किसी भी प्रकाशक के लिए यह घाटे का सौदा ही रहेगा कि सभी पत्रिकाओं को सभी पुस्तकें समीक्षार्थ भेजे।
ऐसे में संपादक को स्वविवेक से निर्णय कर ऐसी सभी पुस्तकों की समीक्षा देने की कोशिश करनी चाहिए, जो उसकी दृष्टि में पाठकों के लिए उपयोगी और महत्त्वपूर्ण हैं। अगर प्रकाशक ने ऐसी पुस्तक नहीं भेजी है और संपादक उसकी समीक्षा या उससे संबंधित कोई फीचर देना चाहता है, तो चाहिए कि अन्य साधनों से पुस्तक प्राप्त कर उसकी समीक्षा लिखवाए, तभी लेखकों, प्रकाशकों और पाठकों के साथ न्याय होगा।
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