चारु सिंह
खड़ी बोली हिंदी के इतिहास पर गौर करें, तो यह शुरू ही होता है हिंदी पर खतरे की चीख-पुकार के साथ। नागरी रक्षा और गोरक्षा हिंदी आंदोलन के साहित्यकारों की चिंता का केंद्रीय विषय थे। यही वह आधारशिला थी, जिस पर प्रतापनारायण मिश्र के ‘हिंद, हिंदू और हिंदी’ तथा बालकृष्ण भट््ट की हिंदू जाति (हिंदू राष्ट्र) की विचारधारा खड़ी थी। हिंदी तब भी खतरे में थी और अब भी है! तब खतरे की वजह थी उर्दू भाषा और अब हिंदी को खतरा है समाज विज्ञान और इसकी सबाल्टर्न धारा के बुद्धिजीवियों से!
शंभुनाथ का लेख ‘समाज विज्ञान का बिजूका’ (14 जून) जड़ मार्क्सवाद और यांत्रिक भौतिकवाद का एक बेहतरीन नमूना है। इस तरह के मार्क्सवाद को स्टालिन ने अपनाया था और बाद में उसके देसी-विदेशी शिष्यों ने। इन विद्वानों ने मार्क्सवाद की इतनी जड़ और संकीर्ण व्याख्या की, जिसे मार्क्स ने कभी सोचा न होगा। मार्क्स ने तो एक ऐसी विश्वदृष्टि की नींव रखी थी, जिसे भविष्य में और विकसित किया जाना था और ऐसा किया भी गया, कुछ दूसरे मार्क्सवादी चिंतकों द्वारा। पर जिनमें मार्क्सवाद को कुछ नया दे सकने की क्षमता नहीं थी, उन्होंने इसे ईश्वरीय किताब की तरह कंठस्थ कर लिया और इबारतों की जड़ता में ही क्रांति के स्वप्न देखने लगे। इनसे अलग हर बौद्धिक इन्हें वर्ग-शत्रु नजर आता है। ताज्जुब है कि शंभुनाथ जैसे विद्वानों के लिए खतरा केवल ‘विदेशी पूंजी’ है, देसी पूंजीवाद उन्हें कभी दिखाई नहीं देती या शायद यह उनकी ‘राष्ट्रीय प्रतिरोध’ की सैद्धांतिकी का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है।
‘आलोचना’ पत्रिका ने ‘जनतंत्र का जायजा’ विषय पर केंद्रित दो अंकों में विभिन्न क्षेत्रों से जुड़े विद्वानों के कुछ लेख क्या प्रकाशित कर दिए, हिंदी के सुधी आलोचक को ‘साहित्यिक आत्मविसर्जन के दृश्य’ नजर आने लगे। मानो साहित्य का इतिहास, समाज, राजनीति या शिक्षा से कोई संबंध ही न हो। तब तो ‘साहित्यिक आत्मविसर्जन’ के सबसे पहले गुनहगार रामविलास शर्मा ठहराए जाएंगे, जिन्होंने हिंदी के साथ ही इतिहास, समाज विज्ञान, राजनीति हर विषय पर लिखा। शंभुनाथजी की मानें तो कहना होगा कि रामविलास शर्मा ने ‘साहित्य को हेय ठहराते हुए समाज विज्ञानों के जरिए अपनी पहचान बदल डालने की होड़’ शुरू की।
पत्रिका को पढ़े बिना ही शंभुनाथजी ने घोषणा कर डाली कि यह पत्रिका ‘कथा, कविता, आलोचना’ का अवमूल्यन करते हुए, उनके स्थान पर समाज विज्ञान को स्थापित करना चाहती है। यह केवल किसी बेहतर प्रयास को हतोत्साहित या गलतबयानी करने का मामला नहीं है। शंभुनाथजी को पता होना चाहिए कि वे कुछ ऐसे विद्वानों का अपमान कर रहे हैं, जो इतिहास, शिक्षाशास्त्र, राजनीतिविज्ञान के विशेषज्ञ होने के बावजूद हिंदी के साहित्यिक रूपों पर लिखते रहे हैं। क्या हिंदी का बौद्धिक समाज इतना कृतघ्न हो गया है कि वह अपने सहयोगियों को पहचान कर उन्हें धन्यवाद देने के बजाय ‘तथ्य चोर’ कह कर उनका अपमान करे?
‘सब धान बाईस पसेरी’ का जुमला सार्थक करते हुए शंभुनाथजी ने ‘आलोचना’ के दोनों अंकों में प्रकाशित सभी लेखों को ‘सबाल्टर्न अध्ययन से प्रभावित’ ठहरा दिया है। अगर उन्होंने पत्रिका को एक बार पढ़ने की जहमत उठाई होती, तो वे जान पाते कि ‘आलोचना’ कोई सबाल्टर्न अध्ययन की शृंखला नहीं बन गई है। इसमें मार्क्सवाद, नारीवाद, दलित अध्ययन जैसी दूसरी धाराओं को पर्याप्त जगह दी गई है। तथ्य तो यह है कि इन दोनों अंकों में एकमात्र पार्थ चटर्जी का लेख सबाल्टर्न अध्ययन से संबंधित कहा जा सकता है। आश्चर्य है शंभुनाथजी गलत तथ्य के आधार पर इतनी लंबी आलोचना कर गए।
सीएसडीएस को सबाल्टर्न अध्ययन शृंखला से जोड़ना दूसरा गलत तथ्य है। सीएसडीएस और सबाल्टर्न पर ‘विदेशी पूंजी’ का आरोप कुछ वैसा ही है, जैसे स्त्री स्वातंत्र्य की बात करने वाली स्त्रियों पर बाजार की गुलामी का आरोप लगाना। इस तरह की अफवाह उड़ाने का मकसद शोषित समुदाय के उन मुद्दों से ध्यान भटकाना होता है, जिन पर अपने अध्ययन के जरिए वे ध्यान दिलाना चाह रहे हैं।
आखिर यह सबाल्टर्न है क्या? वर्ग आधारित विश्लेषण के ढांचे में स्त्री, दलित, आदिवासी, अल्पसंख्यक, ऐसी कई पहचानें थीं, जो छूट-सी गई थीं। पितृसत्ता और जाति पर टिकी भारतीय संस्कृति को समझने के लिए एकमात्र वर्ग-आधारित अध्ययन पद्धति अपर्याप्त थी। इसे समझते हुए कुछ भारतीय इतिहासकारों ने यहां के समाज के अध्ययन की एक निम्नवर्गीय या सबाल्टर्न अध्ययन पद्धति विकसित की। अफसोस कि भारतीय विद्वानों को उनकी मौलिकता का श्रेय भी शंभुनाथजी नहीं देना चाहते और इसे अमेरिका की सेना से जोड़ कर पाठकों को गुमराह करने का प्रयास कर रहे हैं।
‘राष्ट्रीय प्रतिरोध’ जैसे सर्वसमावेशी नारों का सहारा लेते हुए शंभुनाथ जिस तरह दलित, स्त्री और दूसरे उपेक्षित स्वरों को दबा देना चाहते हैं, वह पहले भी हुआ है और तभी सबाल्टर्न या दूसरी अध्ययन पद्धतियों की जरूरत पड़ी। सबाल्टर्न अध्ययन की भी अपनी सीमाएं हैं और तभी गायत्री चक्रवर्ती स्पीवाक को अपने लेख ‘कैन द सबाल्टर्न स्पीक’ में कहना पड़ा, ‘सबाल्टर्न कैन नॉट स्पीक’। वे स्त्री की बात करते हुए कहती हैं कि निश्चित रूप से पुरुष सुधारकों ने स्त्री अधिकारों के लिए लड़ाइयां लड़ी हैं, लेकिन सबाल्टर्न को स्त्री के रूप में पढ़ना या सुनना संभव नहीं है। यही वह कारण है, जो नारीवादी या दूसरी अध्ययन पद्धतियां अस्तित्व में आर्इं।
शंभुनाथजी को बेनेडिक्ट एंडरसन की ‘इमैजिंड कम्युनिटी’ की अवधारणा से शिकायत है, जहां भारत जैसे ‘राष्ट्रों’ को एक विनिर्माण माना गया है। इससे असहमति का आशय यह हुआ कि वे ‘भारतीय राष्ट्र’ की प्राकृतिक सत्ता में यकीन करते हैं। अगर यह इतना ही प्राकृतिक है, तो कश्मीर से लेकर पूर्वोत्तर और छत्तीसगढ़ तक कहीं अफस्पा तो कहीं सलवा जुडूम की जरूरत क्यों है? सर्वग्रासी राष्ट्रीयता की बात करने वाले कभी शोषित तबकों की बात नहीं करेंगे। फासीवाद के दौर में भी धर्मनिरपेक्षता इन्हें ‘फैशन’ मालूम होती है। इनका मानना है, ‘‘विकृत हिंदुत्व दरअसल, भ्रष्ट आभिजात्यवादी धर्मनिरपेक्षता की संतान है’’। यह भुलावा अपने आप को दिया जा सकता है, लेकिन थोपी हुई एकता के बोझ तले घुट रही चीखों को अगर समय रहते सुना नहीं गया, तो साहित्य की दुनिया में भले आप ‘खंड-खंड’ अस्मिताओं को जगह न दें, भौतिक जगत में इसे होने से रोक नहीं पाएंगे।
समस्त बौद्धिक विमर्श ‘मैगी’ की तरह एक ‘निर्मित उत्पाद’ हो या न हो, शंभुनाथजी जरूर बाबा रामदेव की तरह ‘शुद्ध देसी’ बौद्धिक उत्पाद निर्मित करना चाह रहे हैं, जिसके उत्पादन में शामिल होने के लिए ‘शुद्ध’ हिंदी वाला होना अनिवार्य होगा। विदेशों में रहने वाले को हिंदी पढ़ने या उस पर शोध करने की अनुमति बिल्कुल नहीं होगी।
अपनी बात का सार प्रस्तुत करने के लिए शंभुनाथजी एक कहानी चुनते हैं। कहने की जरूरत नहीं कि कहानी का पाठ और फलश्रुति वही है, जो कभी पुराणकर्ता ब्राह्मणों ने तय किया था। सबाल्टर्न दृष्टि इस ब्राह्मणवादी कहानी का निम्नवर्गीय पाठ करने को कहती है। शंभुनाथजी के लेख में इस कहानी के प्रयोग का अगर सबाल्टर्न अध्ययन किया जाए, तो निष्कर्ष कुछ इस तरह होंगे:
ब्राह्मणों द्वारा रचित यह कहानी बताती है कि स्वयंवर में जाने और सुंदर दिखने का अधिकार केवल विष्णु को है। नारद के लिए तय किया गया है कि वह अविवाहित रह कर विष्णु की पूजा-अर्चना करे। अगर नारद ने सुंदर दिखने या स्वयंवर में जाने की गुस्ताखी की तो उसका चेहरा बंदर का कर दिया जाएगा।
यही बात शंभुनाथजी अपने लेख से कहने की कोशिश कर रहे हैं कि बौद्धिक जगत में अपनी बात रखने का अधिकार कुछ चुने हुए लोगों को है। बाकी लोगों का कर्तव्य है कि वे ध्यान लगा कर उनकी बात सुनें। अगर स्त्री, दलित आदि ने अपनी बात कहने की कोशिश की और किसी पत्रिका ने उन्हें स्थान दिया, तो दोनों का चेहरा बंदर का बना कर पेश किया जाएगा।
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