राजकुमार कुंभज

यह अनायास नहीं है कि प्रखर छायावादी और मूलत: प्रगतिशील कवि सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ को अब से ‘हिंदूवादी कवि’ माना जाएगा। अब से पहले तक हम सभी (वामपंथी और गैर-वामपंथी) निराला को प्रगतिशील ही समझते, मानते और बताते आए हैं। इसलिए नहीं कि वे किसी पार्टी फोरम के कवि नहीं थे। इसलिए कि वे अपने कवि-स्वभाव और प्रकृति से ही प्रगतिशील थे, क्योंकि प्रगतिशीलता निस्संदेह कोई वाद नहीं है।

वामपंथी और गैर-वामपंथी दोनों ही विचार स्वीकार करते आए हैं कि प्रगतिशीलता कोई पंथ नहीं है। प्रगतिशीलता साहित्य का धरम-करम है, उसकी प्राकृत-प्रकृति, उसका सहज स्वभाव है। साहित्य प्रगतिशीलता का अपना सहज स्वभाव कैसे छोड़ सकता है? प्रगतिशीलता साहित्य का मुख्य मापदंड है। पर अब से निराला जैसे प्रगतिशील कवि कोे हिंदूवादी कवि बताने का जो प्रयास किया जा रहा है, वह जरा भी अनायास नहीं है। ‘राष्ट्रवादी चेतना’ को ‘हिंदू राष्ट्रवादी चेतना’ में रूपातंरित कर दिया जाना न सिर्फ भ्रामक, बल्कि एक सांस्कृतिक कुटिलता है।

साहित्य के मानदंडों को छोड़ कर, अन्य किसी भी किस्म के मानदंडों को निराला ने जीवन भर अस्वीकृत किया। उन्होंने किसी भी सांचे-खांचे और घाट-पाट को कभी मान्य नहीं किया। पर इधर मध्यप्रदेश भाजपा के मुखपत्र ‘चरैवेति’ ने निराला को ‘हिंदू राष्ट्रवादी चेतना के प्रखर कवि’ ठहरा दिया है। इस संदर्भ में उसका तर्क बड़ा मजेदार है।

‘चरैवेति’ के संपादक जयराम शुक्ल ने संपादकीय में निराला को ‘राम की शक्ति पूजा’ और ‘महाराज शिवाजी का पत्र’ जैसी लंबी कविताएं लिखने के आधार पर ‘हिंदू राष्ट्रवादी चेतना के प्रखर कवि’ ठहराया है। फरवरी, 2015 में प्रकाशित ‘चरैवेति’ के संपादकीय का आरंभ ही कुछ इस तरह होता है कि पढ़ने वाले का दिमाग एक झटके में सन्न रह जाए। वे लिखते हैं कि ‘‘महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ छायावादी दौर के सबसे ओजस्वी व तेजस्वी कवि थे। जिन्होंने अपनी रचनाओं में हिंदू राष्ट्रवादी चेतना का निडरता और प्रखरता के साथ उद्घोष किया।’’ क्या ये पंक्तियां आश्चर्यजनक नहीं हैं? क्या निराला सचमुच हिंदूवादी कवि थे?

गनीमत है कि निराला पर भाजपा की नजर जरा देर से पड़ी। उनसे पहले सरदार वल्लभभाई पटेल और कविगुरु रवींद्रनाथ ठाकुर की वसीयत पर भाजपा और आरएसएस अपनी दावेदारी ठोंक चुके हैं। यह स्वाभाविक है कि किसी भी कवि या उसकी किसी कविता की, कोई भी व्यक्ति अपने स्वतंत्र दृष्टिकोण से जांच-परख कर सकता है। उसके बारे में अपना मत व्यक्त करने की उसे स्वतंत्रता है, लेकिन मनमर्जी से की गई व्याख्या चौंकाती है। सामान्यतया उसी व्याख्या और अर्थ की अपेक्षा की जाती है, जिसमें अधिकतम सर्वग्राही, अधिकतम सर्वस्वीकार्य और अधिकतम सर्वसमावेशी दृष्टिकोण का प्रतिपादन मिलता हो। नई नजर, नई दृष्टि या नई आलोचना, समीक्षा का भावार्थ यह नहीं हो सकता है कि ‘नीर’ को ‘नील’ साबित करने की जिद पाल बैठें।

आश्चर्य होता है कि जयराम शुक्ल ने ‘राम की शक्तिपूजा’ को निराला का अद्भुत काव्य करार दे दिया और ‘महाराज शिवाजी का पत्र’ को अपने मन-मुताबिक एक औजार बना-बता दिया। वे स्थापना देते हैं कि निराला की यह ‘पत्र-गीत’ रचना आज भी पाठकों को झंकृत करती और कई मायनों में प्रासंगिक है। यही नहीं, उन्होंने निराला की उस एक अतिख्यात रचना को भी अपने लेपेटे में ले लिया है, जिसने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के संदर्भ में ‘जागो-फिर एक बार’ की हुंकार से देश के नौजवानों में देश के लिए मर-मिटने का जज्बा पैदा किया। जयराम शुक्ल ने ‘जागो फिर एक बार’ कविता को ‘सनातनी सांस्कृतिक गौरव’ की कविता कहा है। क्या निराला को सांस्कृतिक-राष्ट्रवाद का ज्ञान और बोध, ठीक वैसा और उतना ही था, जितना और जैसा कि यहां प्रतिपादित किया जा रहा है? निराला को ‘हिंदूवादी कवि’ घोषित करने का ‘कुचक्र’ क्यों चलाया जा रहा है?

निरपेक्ष समालोचकों-भाष्यकारों ने निराला के कविताबोध को व्यापक माना है। यहां तक कि उनकी कविता को किसी वाद या किसी खास प्रवृत्ति की कविता मानने से परहेज किया है। निराला की कविता में किसिम-किसिम के बोध, प्रवृत्तियां और जातीय-चेतना के अहसास हैं। वे राष्ट्रवादी चेतना के कवि तो हो सकते हैं, बल्कि स्वीकार भी किए गए हैं, लेकिन उन्हें ‘हिंदू राष्ट्रवादी चेतना के कवि’ साबित करना क्या एक अनर्थकारी उपक्रम नहीं है? ‘राम की शक्तिपूजा’ कोई कर्मकांडी हिंदुत्ववादी पूजा-अर्चना नहीं है। वह तो शक्ति अर्जन का मानवीय आख्यान है। वहां, मनुष्य की जातीय संवेदनाओं से सराबोर संकल्पों की साधना है। वह शक्तिपूजा किसी व्यक्ति विशेष, किसी वाद विशेष या पंथ विशेष की पूजा न होकर मनुष्य मात्र के कल्याणार्थ मन-वचन-कर्म से किया गया अनुष्ठान है।

अगर ‘राम की शक्तिपूजा’ को सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की सीमित अवधारणा में रख कर देखा जाएगा, तो उसके वास्तविक अर्थ-तत्त्व को पाना कठिन हो जाएगा। निराला की समग्रता को समावेशी रूप में ही देखा-परखा जाना उचित होगा। वे संकीर्णता के नहीं, समग्रता के कवि हैं। उपनिवेश के नहीं, समावेश के कवि हैं। वे व्यग्रता के साथ, पश्चिम की गुलाम मानसिकता के खिलाफ जन-निष्ठा की राजनीतिक चेतना के कवि हैं। निराला किसी भी दृष्टि से न तो ‘हिंदूवादी कवि थे और न ही हिंदू राष्ट्रवादी चेतना’ के कवि होने का कोई संकेत देते हैं। वे कवि थे, निरे कवि।
पूछा जा सकता है कि सांस्कृतिक चेतना की कल्पना क्या बिना किसी राजनीतिक चेतना के संभव है? यह भी पूछा जा सकता है कि आधुनिक युग से पहले सांस्कृतिक चिंतन की कौन-सी धारा या श्रेणी उपलब्ध दिखाई देती है?

भारतेंदु ने राजनीति को ही आधुनिक युग का तत्त्व दर्शन कहा था। निराला के जमाने में पश्चिम की गुलाम मानसिकता से मुक्ति का माहौल था। सभी समकालीन रचनाकार अपनी-अपनी निष्ठा से, जन-निष्ठा की राजनीतिक चेतना के लिए संघर्षरत रहते हैं। निराला और उनके समकालीन भी इतिहास के उसी एजेंडे से संघर्ष कर रहे थे, जो उनके युग के इतिहास ने उन्हें दिया था। वैश्वीकरण, आर्थिक सुधारों, श्रम सुधारों आदि के इस युग में हम क्या कर रहे हैं? क्या यह गुलाम मानसिकता की नई ऐतिहासिक परिभाषा नहीं है? क्या सांस्कृतिक चुनौतियों को राजनीतिक चुनौतियों के परिप्रेक्ष्य में रख कर बेहतर नहीं समझा जा सकता? यह प्रश्न भी सांस्कृतिक नहीं, बल्कि राजनीतिक अधिक है कि कोई भी राष्ट्रवाद कैसे और किस प्रक्रिया के तहत आहिस्ता-आहिस्ता उग्र राष्ट्रवाद में तब्दील कर दिया जाता है।

एक राजनीतिक प्रक्रिया के तहत पहले राष्ट्रीय प्रतीकों और प्रतीकपुरुषों को राष्ट्रीय सांस्कृतिक चेतना से जोड़ा जाता है। जातीय चेतना को जगा कर भड़काया जाता है। जातीय चेतना को ही सांस्कृतिक चेतना बताया जाता है। इसी प्रक्रिया के तहत फिर सांस्कृतिक चेतना और राष्ट्रीय चेतना को बेहद चतुराईपूर्ण तरीके से जोड़ा और फिर खड़ा किया जाता है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का छूमंतर। कुछ-कुछ इसी तरह सांस्कृतिक राष्ट्रवादी चेतना का जन्म हो जाता है।

फिर धीरे-धीरे, पर जोर-शोर से हिंदू राष्ट्रवादी चेतना का शोर सुनाई देने लगता है। अपने उस शोर के लिए कभी भगतसिंह, कभी सरदार वल्लभभाई पटेल, तो कभी रवींद्रनाथ ठाकुर को चुन लिया गया है। इसी क्रम में अब निराला का चयन कर लिया गया है। किसी भी मध्यवर्ग की जड़ें अपनी परंपराओं में ही अंतर्निहित होती हैं। कथित मध्यवर्गीय राजनीतिक चेतना उन्हीं परंपराओं का अपहरण करके अपनी जड़ें जमाती हैं। तभी राष्ट्रवाद की जगह उग्र राष्ट्रवाद ले लेता है और देखते ही देखते समूचे लोकतांत्रिक समाज पर एकनिष्ठता के मूल्य अपना कब्जा जमा लेते हैं। याद कीजिए कि क्या इटली, जर्मनी और रूस आदि देशों में ऐसा ही नहीं हुआ था?

यह एकनिष्ठता सायास राजनीतिक प्रक्रिया है, जिसकी कोख से एकाधिकारवादी शक्तियों का जन्म होता है। आश्चर्य नहीं कि हमारे देश में भी यह प्रक्रिया शुरू हो चुकी है और इसने इस बार निराला को चुना है। ‘बांधो न नाव इस ठांव बंधु/ पूछेगा सारा गांव बंधु।’ पूछो, पूछो, जरा जल्दी पूछो।

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