शंभुनाथ
इधर सबाल्टर्न अध्ययन से प्रेरित लेखन को लोकप्रिय बनाने के प्रयास हो रहे हैं, जबकि यह अध्ययन शृंखला 2010 में बंद हो गई थी। इस धारा के समाज वैज्ञानिकों को लगा कि उन्हें जो करना था, कर दिया। रणजीत गुहा, आशीष नंदी, पार्थ चटर्जी जैसे विद्वान अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों के संभ्रांत विश्वविद्यालयों में बैठ कर भारत का सबाल्टर्न अध्ययन कर रहे थे। राष्ट्रीय प्रतिरोधों का अवमूल्यन करते हुए छोटे-छोटे जन-उभारों, उत्तर-औपनिवेशिक सामुदायिक आवाजों और चुके-बीते सांस्कृतिक रूपों को मुद्दा बनाना उनका मकसद था। हिंदी बुद्धिजीवियों द्वारा उनका जैसा अंधानुकरण इधर हो रहा है, वह चिंताजनक है।
इधर ज्ञानी संसार में प्रचार किया जा रहा है कि कथा, कविता, आलोचना साहित्य में क्या रखा है, समाज विज्ञानों की ओर देखो। एक समय श्यामाचरण दुबे, पूरनचंद जोशी जैसे विद्वान थे, जो समाज विज्ञान से साहित्य की तरफ आए थे। उन्हें साहित्य प्रेरित करता था। इन दिनों साहित्यिक आत्मविसर्जन के दृश्य हैं। साहित्य को हेय ठहराते हुए समाज विज्ञानों के जरिए अपनी पहचान बदल डालने की होड़ मची है। इसका एक उदाहरण साहित्यिक पत्रिका ‘आलोचना’ (53, 54) के हाल के अंक हैं। इधर यह विकासशील समाज अध्ययन पीठ की पत्रिका ‘प्रतिमान’ की नकल लगती है। इसकी अनुवादी भाषा हिंदी से अरुचि पैदा करने वाली है। इससे बहुत कुछ 1950 के दौर के कुत्सित समाजशास्त्र और यांत्रिक भौतिकवादी झुकावों की याद ताजा होती है।
फर्क यह है कि यांत्रिक भौतिकवाद पहले मार्क्सवादी शिविर का मामला था, उससे शिविर के भीतर ही लंबा संघर्ष चला। इस बार मार्क्सवाद और विकासशील राष्ट्रीय विचारधाराओं के खिलाफ खड़ा सबाल्टर्नवादी शिविर है, जो एक अलग रास्ते से संकुचित समाजशास्त्र को बढ़ावा दे रहा है। ‘सबाल्टर्न’ अमेरिका की सेना में कैप्टन के नीचे के अफसरों को कहते हैं। उसे एक सिद्धांत बना कर भारत के स्थानीय या भेदभाव के शिकार समुदायों पर चस्पां कर दिया गया, मुख्यतया ‘भिन्नता’ की खोज करते हुए। चर्चिल ने जब 1946 में कहा था कि ‘भारत कई टुकड़ों का बंडल है’ तो वे कुछ और नहीं, भारत को देखने की सैकड़ों साल की औपनिवेशिक दृष्टि का सार प्रस्तुत कर रहे थे। इसके ऊपर ही बेनडिक्ट एंडरसन ने ‘कल्पित समुदाय’ का रंग चढ़ाया। उनकी नजर में आयरलैंड वाला इंग्लैंड और काले नागरिकों से भरा अमेरिका कल्पित समुदाय नहीं है, भारतीय राष्ट्र कल्पित समुदाय है!
निश्चय ही साहित्य और समाज विज्ञान के बीच सकारात्मक संबंध जरूरी है। साहित्य का सामाजिक अध्ययन से संबंध नया मामला नहीं है, पर इधर की प्रवृत्तियां अजीबोगरीब हैं। साहित्यिक परिप्रेक्ष्य को समाज वैज्ञानिक अध्ययन के एक खास क्षेत्र सबाल्टर्नवाद के हवाले करने की कोशिश हो रही है, जबकि यह समाज विज्ञान दरअसल, एक सजेगुछे निर्जीव बिजूके-सा है- नील गायों से भरे लोकतंत्र के खेत में!
वैश्वीकरण के जमाने में ज्ञान भी ‘मैगी’ की तरह एक निर्मित चीज है। यह किसी न किसी बौद्धिक उपभोक्ता वर्ग को लक्ष्य करके बनता है। जिस तरह हिंदुत्ववादियों को पुनरुत्थानवाद को उकसाने के लिए निर्मित ज्ञान की जरूरत होती है, धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रीय केंद्रवादियों को भी अपने लोकतांत्रिक छद्मवेश की रक्षा के लिए निर्मित ज्ञान की जरूरत होती है। इसमें कुछ भी अचरज नहीं है, अगर विदेशी पूंजी, धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रीय केंद्रवाद और सबाल्टर्न अध्ययन के बीच सांठगांठ है। देखा जा सकता है कि इधर राहुल गांधी के सबाल्टर्न-दौरे जम कर हो रहे हैं, क्योंकि अब राजनीति महज एक प्रतीक युद्ध है।
दरअसल, बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हाथों गिरवी रखे गए लोकतंत्र को सीएसडीएस जैसी संस्थाओं की जरूरत होती है, जो समाज को ‘अंधों के हाथी’ की तरह व्याख्यायित करें। इस धारा के समाज वैज्ञानिक कभी वैश्वीकरण की आलोचना करते नजर नहीं आएंगे। वे बहुराष्ट्रीय कंपनियों की संस्कृति या अमीरों का समाजशास्त्रीय अध्ययन नहीं करेंगे, पानी में रह कर मगर से वैर! वे कभी यह बताते हुए नजर नहीं आएंगे कि नए साम्राज्यवाद या संप्रदायवाद का अगर सामना करना हो, तो खंड-खंड नहीं, एक साझी समझ, राष्ट्र की एक साझी चेतना की जरूरत है।
सबाल्टर्नवाद से प्रभावित जो नया ज्ञानी संसार है, उसके लिए मुसलमान आदिवासी, स्त्री, दलित जातियां और स्थानीय समुदाय ही ‘वैचारिक शिकार’ हैं। इन समाज वैज्ञानिकों के काम कुछ उसी ढंग के हैं, जैसे उपनिवेशक देशों के नृतत्त्व वैज्ञानिकों और भाषाविदों के पहले थे, संबंध नहीं सिर्फ फर्क खोजो! गांव में कितनी गाएं और कितनी मुर्गियां हैं, इसके आधार पर तय होता था कि कितने हिंदू और कितने मुसलमान हैं। सबाल्टर्नवादी बुद्धिजीवी सामुदायिक इतिहास और उत्पीड़न पर खूब लिखते हैं, पर सभी उत्पीड़ित समुदाय भविष्य में कैसे मिल कर लड़ें, इस पर सोच नदारद है। ये बुद्धिजीवी यह नहीं देख पाते कि अतीत में लोग अपने अंतर्विरोधों के बावजूद कैसे मिल कर लड़े थे। उन्हें अतीत की ऐसी सभी राष्ट्रीय लड़ाइयों में चांद नहीं, सिर्फ उसका धब्बा दिखता है।
यही वजह है, नए जमाने के अभिजात समाज वैज्ञानिकों को हिंदी साहित्य का अतीत हिंदुत्ववादी विडंबनाओं से भरा दिखता है। पिछले कुछ दशकों से फैशन चल पड़ा है कि भारतेंदु हरिश्चंद्र, महावीर प्रसाद द्विवेदी, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, निराला- इन सबको हिंदुत्ववादी सिद्ध करो। वसुधा डालमिया ने तो एक बार अपनी किताब के कवर पर भारतेंदु की वह फोटो छपाई थी, जिसमें वे अपनी प्रेयसी मल्लिका को गोद में लेकर बैठे हुए थे। आज के छिपे रुस्तमों की तुलना में साहस के दृष्टांत के रूप में नहीं, बल्कि भारतेंदु का मखौल उड़ाने के लिए ही आवरण पर यह तस्वीर थी। हिंदी पर हिंदू राष्ट्रवाद चस्पां किया गया।
सबसे पहले 1800 के आसपास गिलक्रीस्ट ने हिंदी को ‘हिंदुओं की भाषा’ कहा था। उनके देशी-विदेशी बौद्धिक वंशज उनकी बातों को दुहराते हैं, कोई नई बात नहीं कहते। कहा जाता है, हिंदी संस्कृत की बेटी नहीं, अंगरेजी की चेरी नहीं, भारतीय आधुनिकता की बेटी है। आधुनिकता के कारखाने में जब हिंदी पर विचार होता है तो आधुनिकता काट-छांट कर उन्नीसवीं सदी में कैद की जाती है, पुराने औपनिवेशिक विचारों की छाया में निर्मित इस ज्ञान में हिंदी का संबंध इसके बारह सौ साल के लंबे इतिहास से पूरी तरह कट जाता है।
लोकतंत्र को समझने के लिए लोकमन को जानना जरूरी है। यह काम समाज विज्ञान से नहीं होता, क्योंकि लोकमन जितना स्पष्ट और निर्मल है उतना ही रहस्यमय। दिल्ली का रंग 2014-15 के आठ महीनों में कैसे बदल गया, यह किसी सरलीकृत विश्लेषण से नहीं समझा जा सकता। जनता को इस लोकतंत्र ने दो ही चीजें दी हैं- भय और आशा, अब इनसे जो खेल ले।
सबाल्टर्नवाद और सेक्युलरवाद की खिचड़ी विरोधाभास-सी है, पर यह पक रही है। यह नहीं देखा जाता कि विकृत हिंदुत्व दरअसल, भ्रष्ट आभिजात्यवादी धर्मनिरपेक्षता की संतान है। लगता है, आज के अधिकतर समाज वैज्ञानिक किराए की कोख जैसे हैं, अदृश्य पिताओं के लिए। वे कितने असहाय हैं। असल में आलोचना और समाज के बीच खुले संबंध के लिए बौद्धिक स्वतंत्रता बहुत जरूरी है। विदेशी पूंजी पर पले इधर के अधिकतर समाज वैज्ञानिक भाषा चतुर हो सकते हैं, पर वे तथ्य चोर हैं- कुछ मनपसंद तथ्यों को चुन कर बाकी को छिपा देने वाले। नतीजतन समाज विज्ञान अब समाज को समझने के विज्ञान की जगह सामाजिक समझ को खंड-खंड करने की टेक्नोलॉजी में सीमित होता जा रहा है। कहा जा सकता है समाज विज्ञान खुद समाज से विच्छिन्न है, वह हिंदी आलोचना को बहुमूल्य क्या देगा।
नारद ने लक्ष्मी के रूप पर मोहित होकर उसके स्वयंवर में जाने के लिए विष्णु से उनका सुंदर रूप मांगा। विष्णु ने पहले समझाया फिर कहा, ठीक है। नारद स्वयंवर में बार-बार लक्ष्मी के सामने उचक कर आते, पर वह मुस्करा कर आगे बढ़ जाती। नारद को वास्तविकता का पता चला कि उनका चेहरा बंदर का हो गया है। क्या आलोचना को उधार का रूप चाहिए? बेहतर है, इसकी पहचान को बचा कर विविध दिशाओं में नवोन्मेष किए जाएं, अन्यथा जो है, उसे भी खो देंगे। जमीन पर वरमाला की कुछ गिरी पंखुड़ियां मिलें तो मिलें!
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