आज देश के सामने चुनौतियों की चट्टानें जम कर गढ़ी हुई हैं। इनको किस डायनेमाइट से उड़ा कर हम देखेंगे ऐसा सूर्योदय, जो जनोदय भी हो, ज्ञानोदय भी हो, राष्ट्रोदय भी हो और विकासोदय भी हो। हमें ऐसा समय रचना होगा, जो लोक का समय भी हो, और आलोक का भी समय हो। यह हमारे लोकतंत्र का सर्वाधिक संवेदनशील समय है। सत्ता का रागतंत्र जनता के जनतंत्र में बजा तो है, मगर जन को लुभाता नहीं। जन-प्रतिनिधि अपने चुने जाने के बाद लोकतंत्र की मर्यादा भंग कर देते हैं। इसे भारत भाग्य विधाता की विडंबना कहें, व्यर्थता कहें या विवशता। देश, स्वदेश, राष्ट्र, जन, जनतंत्र ये सभी शब्द अपने जीवंत अर्थ खो बैठे हैं और सभी के अर्थ वे हैं जो सत्ता के ज्ञानकोश से पैदा किए जाते हैं।

संदेह में जीते इस देह-समय को कैसे देखा जाए? देह आज कितनी अपराधग्रस्त होती जा रही है। अपराधी देह और निरपराध देह में बंट गया है समाज। निरपराध देह रोज लुट-पिट रही है, अपहरण, बलात्कार, गले से चेन झपट, चोरी, हत्या, आत्महत्या, तनाव और तरह-तरह के अपराधों का एक ऐसा उद्दंड, अनियंत्रित संसार पैदा हो गया है, जिसने निरपराधों की नियति को संदेह और सब कुछ सहने के लिए मजबूर कर दिया है। राजनीति से नेतृत्व पैदा होता है, लेकिन आज वह नेतृत्व कैसा है? सत्ता का मूल चरित्र लोकतांत्रिक होना ही नहीं है। वह तो सत्ता से शक्ति का प्रदर्शन करती है। सत्ताएं निरंकुश होती हैं और उनका अंकुश उन लोगों पर ही अधिक होता है जो निरपराध और निरीह होते हैं। मसलन, पुलिस वाला हेलमेट न लगाए या नियम तोड़े तो कोई चालान या सजा नहीं, आम आदमी गलती से ऐसा कर बैठे तो सजा। सरकारी दफ्तर आम आदमी के लिए आतंक बन गए हैं, उनके आतंक से जनता की रक्षा के लिए कोई कुछ नहीं कर सकता। आम आदमी सरकारी दफ्तर में अपने काम के लिए भटकता-भटकता अगर झगड़ पड़े तो सरकारी काम में दखल का अपराधी और दफ्तर के लोग आम आदमी को सताने का काम रोज करते हैं, तो आम आदमी के जीवन में समस्या पैदा करने वालों को कोई सजा नहीं। ऐसे कई उदाहरण हैं, जिनसे कहा जा सकता है कि सत्ताएं जनसुख के लिए न होकर आत्म सुख या सत्तावान के सुख के लिए होती हैं।

साहित्य और शिक्षा संस्कार, मूल्य, नैतिकता की कितनी भी चर्चा करें। कितने भी दलित विमर्श, स्त्री विमर्श, अल्पसंख्यक विमर्श, साहित्य और शिक्षा विमर्श कर लिए जाएं, उनसे क्या दलित का उत्पीड़न समाप्त हुआ! स्त्री अपराध मिटे? अल्पसंख्य-बहुसंख्यक के बीच सहिष्णुता और सद्भाव बढ़ा? साहित्यकार विचार में कम विचारधारा की कट्टरता में या अपने-अपने मंचों में जीने लगा है। जहां तक यथार्थवादी, प्रगतिवादी या जनवादी रचनाकारों का संबंध है, उनके पास बौद्धिक विमर्श है, वे सोचते-विचारते भले अपनी विचारधारा में हों, लेकिन पढ़ते हैं, बहस करते हैं, सामाजिक सद्भाव में भी अपनी भूमिका निभाते हैं। कलावादी तो आत्मकेंद्रित, घमंडी या अहंकारग्रस्त हैं और अपने अलावा अन्य को मीडियाकर कहने के शौकीन हैं। वे भी अवसर के साथ चलते हैं। सत्ता उनका भी पक्ष है और वे हमेशा अपने दस-बीस लोगों का मंडल रच कर उसी में चक्कर खाते रहते हैं। उदारता, सहिष्णुता, लोकतांत्रिक मूल्यों की दुहाई देते हैं, लेकिन उनका मुख्य वैचारिक केंद्र जितना सृजन बना हुआ है, उससे अधिक स्वार्थ, धनलिप्सा, यशलिप्सा और पदलिप्सा है। उनका लोकतंत्र या तो व्यक्तितंत्र है या परिवारतंत्र। इसके विपरीत समाजवाद की तुरही फूंकने वालों के पास उनका अपना पाखंड है और उनकी रुचि-चंचलता उन्हें अविश्वसनीय बनाती है।

शिक्षा तो इस देश में अब ऐसा अनैतिक व्यापार बन गई है कि वह सरकारी व्यवस्था में या तो भ्रष्ट है या उपेक्षा की शिकार है। निजी तंत्र ने इस भ्रष्टाचार को ही अपना व्यापार बना कर अपने बड़े-बड़े स्कूल, कॉलेज, संस्थान और विश्वविद्यालय बना लिए, जहां युवा पीढ़ी तरह-तरह के छल और बल की शिकार है। शिक्षा से जिस प्रकार की क्षमता और कुशलता पैदा होनी चाहिए वह वर्तमान शिक्षा के दो सौ वर्ष के औपनिवेशिक मॉडल का वजन ढोने की मजबूरी बन गई है। पहले सरकारी अध्यापक, प्राध्यापक अपने फर्ज के प्रति ईमानदार होते थे, अब सरकारी स्कूलों के बरामदों में धूल उड़ रही है और अध्यापक-प्राध्यापक कोचिंग का व्यापार कर रहे हैं। निजी स्कूल-कॉलेजों में अध्यापक-प्राध्यापक आर्थिक, शारीरिक और मानसिक शोषण के शिकार हैं। अब सोचते हैं कि हमने क्या तो राजनीति से रचा, क्या शिक्षा से और क्या साहित्य से?

राजनीति अब अनीति, उच्छृंखलता और अराजकता का पर्याय बन गई है। संसद, विधानसभा से लेकर नगर पालिका, पंचायत तक जन-प्रतिनिधियों की उपद्रव-प्रणाली से चीत्कार कर रहे हैं। मुद्दों पर न तो बहस है और न बहस के लिए कोई मुद्दा। या तो हारे हुए दलों की खीझ का सार्वजनिक प्रदर्शन है या जीते हुए दलों की तानाशाही। हमने राजनीति से नीति का शील खो दिया है, राज की व्यवस्था का अनुशासन खो दिया है और इस कारण जनता के लिए राजनीति संभावना के बजाय संदेह बन गई है। लोकतंत्र की देह संदेह में लिपटी एक बीमार देह बन कर रह गई। हम कितने भी स्मार्ट, डिजिटल या तकनीकी हो जाएं, हमारा मूल चरित्र बेईमानी का है, जो नोटबंदी से न तो बंद होगा न बदलेगा। हर अच्छे कानून का बुरा उपयोग करने में इस देश के लोग माहिर हैं।

एक ऐसा समय जो संदेह पैदा करता रहता है, एक ऐसा समय जो सतत चिंताओं की चिता सुलगाता रहता है, एक ऐसा समय जिसमें मनुष्य का मनुष्य से, नेता का नेता से, दल का दल से, साहित्यकारों-कलाकारों का अपने समानशील सहकर्मी से, विचार या विचारधारा का उससे, संबंधों का संबंधों से, जनता का सरकार से और धर्म-मजहब-रिलीजन के पंडितों से विश्वास उठता जा रहा है, ऐसे समय में क्या तो लिखा जाए, क्या पढ़ा जाए, कौन-सी क्रांति की जाए और ऐसा क्या किया जाए कि जन का जन में और सरकार में विश्वास बढ़े। देश तो नेतृत्व के चरित्र से ज्यादा सीखता और उसका अनुसरण करता है। ऐसा नेतृत्व क्या हमारे लोकतंत्र को मिलेगा, जो गांधी की आत्मा का नेतृत्व हो, भारत की जनता की उम्मीदों का नेतृत्व हो, सांप्रदायिक सौहार्द और राष्ट्र के उत्थान का नेतृत्व हो। क्या नारों, आंदोलनों के पाखंडों से कभी कोई देश बदला या बना है?

फ्रांस की राज्यक्रांति, रूस की बोल्शेविक क्रांति और यूरोप की औद्योगिक क्रांति ने जो असर छोड़ा उससे कई देश निरंकुश तानाशाही से मुक्त हुए, शोषण के विरुद्ध आक्रोश पैदा हुआ, अन्याय के विरुद्ध न्याय की लड़ाई लड़ी गई और कई देशों का बहुत हद तक चरित्र बदला। कहने को तो कह दिया जाता है कि युद्ध-समय समाप्त हो गया है, शांतिपर्व आ गया है। मगर जब तक आतंक की आसुरी शक्तियों का बंदूकी नर्तन होता रहेगा, तब तक शांति कहां? विनाश की नींव पर विकास कैसे होगा? आज देश के सामने चुनौतियों की चट्टानें जम कर गढ़ी हुई हैं। इनको किस डायनेमाइट से उड़ा कर हम देखेंगे ऐसा सूर्योदय, जो जनोदय भी हो, ज्ञानोदय भी हो, राष्ट्रोदय भी हो और विकासोदय भी हो। हमें ऐसा समय रचना होगा, जो लोक का समय भी हो, और आलोक का भी समय हो।