भारतीय समाज को लेकर कई मिथों में एक पुराना मिथ यह है कि हम एक सहिष्णु समाज हैं, और हमेशा रहे हैं। यह पुरानी कहानी उन पूर्वग्रहों, भेदभाव, उत्पीड़न और हिंसा को ढंकने के लिए है, जिनकी निशानियां, दुर्भाग्य से, हमारे इतिहास में भरी पड़ी हैं। अस्मिता से जुड़े मामले में असहिष्णुता सबसे मुखर रूप में सामने आती है- न केवल धार्मिक अस्मिता, बल्कि जाति, गोत्र, भाषा, क्षेत्र जैसे अस्मिता के सभी भावनात्मक मामलों में।
सुधारकों का गुणगान, सुधारों को तिलांजलि:
हम संत रामानुज या इवी रामास्वामी (‘पेरियार’) या महात्मा फुले या राजा राममोहन राय जैसे व्यक्तियों के जीवन का गुणगान करते हैं। हम उनके जीवन को इस बात के उदाहरण के तौर पर पेश करते हैं कि भारतीय समाज कितना सहिष्णु है, जिसने उन्हें अपने मत का प्रचार करने की भरपूर आजादी दी। जबकि हम सुविधाजनक ढंग से इस तथ्य को भुला देते हैं कि बहुत कम लोग उनके उद््देश्य को आगे बढ़ाने के लिए उनके मतानुयायी बने। मुझे शक है कि सुधारकों का गुणगान करना- जबकि सुधारों को तिलांजलि देना- अपने अपराध-बोध और अपनी शर्म पर परदा डालने का ही एक तरीका है।
अब भी ऐसे मंदिर हैं जहां दलितों का प्रवेश वर्जित है। ऐसी हरेक प्रथा और अंधविश्वास, जिसके खिलाफ पेरियार ने मुहिम चलाई, गहरे जड़ें जमाए हुए हैं और चलन में है। सच तो यह है कि कुछ ने बहुत खतरनाक शक्ल अख्तियार कर ली है। एक समय था जब पंजाब में, और दूसरी जगह भी, एक सिख और एक हिंदू के बीच प्यार का नाता जुड़ सकता था, वे विवाह कर सकते थे और साथ-साथ मजे से रह सकते थे। तमिलनाडु में हिंदू नाडार और ईसाई नाडार के बीच वैवाहिक संबंध आम बात थी।
आज स्थिति यह है कि भारत के कुछ हिस्सों में अगर एक हिंदू (लड़का या लड़की) एक मुसलिम (लड़की या लड़का) को दोस्त बनाए, तो उन्हें गंभीर परिणाम भुगतने की धमकियां मिलती हैं। अंतर-धार्मिक साहचर्य के और भी उदाहरण दिए जा सकते हैं, यह तथ्य इस कड़वी हकीकत पर परदा नहीं डाल सकता कि धार्मिक असहिष्णुता और उत्पीड़न के उदाहरण और भी अधिक हैं।
यह मानने का कारण है कि असहिष्णुता बढ़ रही है। पाबंदियों की तादाद पर नजर डालें- गोमांस, जीन्स, किताबें, फिल्मों में अवांछित शब्द, स्वयंसेवी संगठन, इंटरनेट सेवाएं…
बढ़ते बहिष्कार पर नजर डालें- मुसलिम उम्मीदवार नौकरी के लिए आवेदन नहीं कर सकते, अकेली औरतें किराए पर घर नहीं पा सकतीं, यह अपार्टमेंट केवल शाकाहारियों के लिए है…
असहिष्णुता के ब्रिगेड अब संगठित हो रहे हैं और खुद को ‘आंदोलन’ कहने लगे हैं: घर वापसी, लव जिहाद…
यह असहिष्णुता है, जिसने बाबरी मस्जिद ढहाई। यह असहिष्णुता ही है, जो कहती है कि अब तक लिखा गया सारा इतिहास वामपंथी तोड़-मरोड़ है। यह असहिष्णुता ही है, जो उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी के उस भाषण में मीन-मेख निकालती है, जिसने भारतीय इस्लामी समुदाय के सामने खड़ी अनेक चुनौतियों को चिह्नित किया।
असहिष्णुता और हिंसा:
बढ़ती असहिष्णुता, अनिवार्य रूप से, इसके हिंसक चरित्र को सामने लाती है। हम इस बात से तुरंत मान लेते हैं कि तालिबान और इस्लामिक स्टेट (आइएस) असहिष्णु और हिंसक आंदोलन हैं, जिन्होंने अमूल्य स्मारकों (बामियान में बुद्ध-प्रतिमाओं) और धरोहर स्थलों (पलमयरा) को नष्ट किया है। मगर चर्चों और पबों पर हुए हमले, एक युवा जोड़े को पूरी तरह संपर्क-विहीन कर देना और एक-दूसरे को चाहने वाले छात्र-छात्रा को निष्कासित कर देना- हम शायद ही कभी इन घटनाओं में निहित हिंसा का संज्ञान लेते हैं।
बढ़ती असहिष्णुता की मार विचारों पर भी पड़ रही है। निरीश्वरवाद निषिद्ध है। अंधविश्वास पर सवाल नहीं उठाए जा सकते। योद्धा-राजा शिवाजी को एक सेक्युलर शासक के तौर पर चित्रित नहीं किया जा सकता। चमत्कारों की पोल नहीं खोली जा सकती। शार्ली एब्दो के कार्टून किसी अखबार में पुनर्प्रकाशित नहीं किए जा सकते। नतीजा: शिरीन डाल्वी, जिन्होंने कार्टूनों को पुनर्प्रकाशित किया, उन्हें आतंकित किया गया। सनल एडामुरुकु को धमकियां मिलीं, जिन्होंने एक तथाकथित चमत्कार की पोल खोली थी, और गोविंद पानसरे (जिन्होंने शिवाजी को एक सेक्युलर राजा के रूप में वर्णित किया) और एमएम कलबुर्गी (जिन्होंने मूर्ति-पूजा का विरोध किया) की हत्या हो गई।
ये कानून तोड़ने के कृत्य हैं, लेकिन जब इन्हें अंजाम देने वालों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होती, तो मसला सिर्फ कानून-व्यवस्था का नहीं रह जाता। अब यह सवाल आरोपियों की धर-पकड़, उनके खिलाफ मुकदमा चलाने और उन्हें कानून के मुताबिक सजा दिलाने भर का नहीं है। ज्यादा अहम सवाल यह है कि ये उन्मादी तत्त्व कैसे यह मान बैठते हैं कि वे कानून और संविधान से ऊपर हैं। कौन-सी बात उन्हें यह भरोसा दिलाती है कि वे अपने अपराध की सजा भुगतने से बच जाएंगे, अंतत: उनके खिलाफ मामला नहीं चलेगा, और अगर ऐसा हुआ भी, तो उन्हें सजा नहीं होगी?
मूल कारण:
जवाब बहुस्तरीय है: पहली बात तो यह कि राज्य, खासकर कार्यपालिका में उनके मकसद से सहानुभूति रखने वाले अनेक लोग हैं, जो नरमी बरतते हैं या कानून के मुताबिक कदम उठाने में नाकाम हैं। दूसरी बात यह कि ये उन्मादी तत्त्व यह मान कर चलते हैं कि कानून को झुकाया जा सकता है। जांच के बजाय घालमेल करना, त्वरित न्यायिक कार्यवाही के बजाय मामले को बहुत लंबा खींचना, सजा के बजाय जुर्माना लगा कर छोड़ देना, न्यायिक हिरासत के बजाय पेरोल, पूरी सजा के बजाय सजा में छूट, इंसाफ की जगह माफी ने कानून के शासन को दागदार किया है।
तीसरी बात यह है कि ये तत्त्व सामाजिक समर्थन जुटाने में सफल हो जाते हैं, जो कई बार पूरे समुदाय या पूरी जाति के समर्थन में बदल जाता है। अपराधी अनपहचाने बने रहते हैं और उनकी असलियत उजागर करने के लिए कोई सामने नहीं आता। चौथी बात यह कि मौत की सजा शहादत का आभामंडल दे सकती है। इंदिरा गांधी के हत्यारों को कुछ लोगों ने इतना मान दिया मानो वे भगतसिंह हों। बाबरी मस्जिद का ध्वंस करने वाले हिंदुत्व के हीरो हैं। इस्लामी आतंकवादी ‘जिहादी’ हैं, जिनके लिए जन्नत के दरवाजे खुले हैं।
असहिष्णुता के उभार से उदार विचारों, बहुलतावाद और वैज्ञानिक सोच को नुकसान उठाना पड़ेगा और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को बल मिलेगा। तमाम समुदाय पहले से अधिक आत्म-केंद्रित, स्वार्थी, असुरक्षा-बोध से ग्रसित और हिंसात्मक हो जाएंगे।
पानसरे, दाभोलकर और कलबुर्गी जैसे लोग केवल इतना कर सकते हैं कि बदलाव की शुरुआत करें- और कभी-कभी इसकी सर्वोच्च कीमत चुकानी पड़ सकती है। निर्भीक, मजबूत, सेक्युलर और संविधान के प्रति अडिग निष्ठावान राज्य ही इस सबके खिलाफ अभेद्य दीवार बन सकता है, और असहिष्णुता तथा हिंसा के बढ़ते खतरे को निर्मूल कर सकता है।
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