रीतारानी पालीवाल
पिछले एक-डेढ़ दशक से किसानों की आत्महत्या की घटनाएं लगातार बढ़ती गई हैं। इनसे जुड़े समाचार भी प्रकाशित-प्रसारित होने लगे हैं, पर इन्हें लेकर कोई बौद्धिक विमर्श या बड़ा आंदोलन नहीं खड़ा हुआ। पिछले दिनों आम आदमी पार्टी की दिल्ली रैली में राजस्थान के किसान गजेंद्र सिंह के सबके सामने पेड़ पर चढ़ कर फांसी लगाने की घटना को देख कर लोगों का दिल दहल गया। देश-विदेश में यह दृश्य चर्चा का विषय बना। टीवी चैनलों पर बहस होने लगी। राजनीतिक पार्टियां इसे लेकर अपने-अपने फायदे की राजनीति करने लगीं।
भूमि अधिग्रहण विधेयक की राजनीति में भी इसे शामिल कर लिया गया। मौसम की मार से पीड़ित किसानों की बदहाली पर ध्यान न देने के लिए सरकारों को घेरा गया। मगर सरकारों की ओर से मुआवजे की घोषणा के बावजूद किसान जान दे रहे हैं। इस बात पर विचार करने की जरूरत है कि फसल खराब होने या बहुत कम होने पर कर्ज न अदा कर पाने के भयंकर परिणामों के डर से घबरा कर किसान मौत को गले लगा रहे हैं। यह गंभीर चिंता का विषय है, जिसकी जिम्मेदारी हम केवल सरकारों या नीति निर्धारकों पर डाल कर आश्वस्त नहीं हो सकते। हमें अपने आसपास के परिवेश और समाज-व्यवस्था में झांकने-टटोलने की जरूरत है।
भारत की पहचान कृषि प्रधान देश के रूप में रही है। मेरा मन निकट अतीत में चकरघिन्नी की तरह डोलता है। न जाने कितने चेहरे स्मृति में कौंधते हैं, जो हमारे देहाती जीवन के अभिन्न अंग थे, हल चलाते, बीज बोते, सिंचाई करते, फसल काटते, गाड़ी हांकते, अनाज तौलते, बैलों को चारा-पानी देते हुए आज भी मेरे बचपन की मधुर स्मृतियों में मौजूद हैं। खेती-बाड़ी हमेशा से मौसम की मेहरबानी पर निर्भर रही है। सूखा, बाढ़, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, पाला, आंधी-तूफान को झेलते हुए किसान कभी आमद तो कभी घाटा उठा कर अपना और दूसरों का पेट पालता रहा है।
महाजन और कर्ज से भी वह दबा रहा है। लेकिन उसने हिम्मत नहीं हारी, अकेलेपन और अवसाद का शिकार होकर मौत का रास्ता नहीं चुना। उसका मनोबल नहीं गिरा, क्योंकि वह समाज की मुख्यधारा का अंग था। उसे लगता था कि वह सबके साथ है सब उसके साथ हैं। पारंपरिक समाज व्यवस्था में, गांव के जीवन में उसके पेशे की अनिवार्य ही नहीं, सम्मानजनक हैसियत थी। जाति-धर्म के विभाजन के बावजूद गांव अपने आप में स्वायत्त इकाई थे। ध्यान देने की जरूरत है कि पिछले दो दशक में ऐसा क्या हुआ कि पहले आंध्र और विदर्भ में और फिर देश के अन्य भागों में किसान मौत को गले लगाने लगे?
किसान कारीगर भारतीय समाज और अर्थव्यवस्था की रीढ़ थे। 1857 की स्वाधीनता की लड़ाई में वे सैनिकों के साथ मिल कर लड़े थे। नील विद्रोह, पावना विद्रोह, कूका विद्रोह द्वारा उन्होंने संगठित होकर अन्याय को चुनौती दी थी। अवध में बाबा रामचंद्र के किसान आंदोलन में उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ प्रतिरोध किया था। गांधी के सत्याग्रह आंदोलनों में वे शरीक हुए थे।
देश के विभिन्न भागों में सक्रिय समाज सुधारकों और नेताओं ने किसान सभाएं गठित कर किसानों की समस्याओं के समाधान का प्रयास किया था। गुलाम हिंदुस्तान में उनके शोषण और बदहाली का यथार्थ भारतीय भाषाओं के श्रेष्ठतम साहित्य का विषय बना था। ब्रिटिश राज की जमींदारी व्यवस्था में सख्ती से लगान वसूली, जमीन से बेदखली, बेगारी की मार झेलते, महाजन का बाकी चुकाते किसान को आजाद भारत में बेहतर जीवन की उम्मीद जगी थी, लेकिन धीरे-धीरे उसका मोहभंग होने लगा, क्योंकि योजनाएं तो बनीं, पर कारगर ढंग से उनका क्रियान्वयन नहीं हुआ।
आजादी के बाद भारत को कृषि प्रधान देश स्वीकार करते हुए ग्रामोत्थान और कृषि सरकार की प्राथमिकता के क्षेत्र बने थे। ज्ञान-विज्ञान का लाभ किसानों तक पहुंचाने की व्यवस्था के लिए कृषि अध्ययन, अनुसंधान संस्थाएं भी स्थापित की गर्इं। पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से ग्राम विकास और कृषि सुधार कार्यक्रम भी चलाए गए। किसानों को विज्ञान का लाभ उठाने के लिए प्रेरित किया गया। बेहतर पद्धतियों और उन्नत बीजों के उपयोग से पैदावार भी बढ़ी। पर उत्पादन लागत और आय में इतना संतुलन नहीं हो पाया कि किसान आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर और संपन्न हो सके।
बढ़ती महंगाई की मार किसान को भी झेलनी पड़ती है। बीज, खाद, सिंचाई की लागत इतनी ज्यादा बढ़ गई है कि छोटे किसान का काम कर्ज के बिना चल ही नहीं पाता, मझोले किसान भी कर्ज की चपेट में होते हैं। फसल नष्ट हो जाने पर कर्ज चुकाने, जीवन यापन करने और अगली फसल का काम शुरू करने का सवाल मुंह बाए खड़ा होता है। और अगर कहीं दुबारा फसल खराब हो गई तब समस्या बहुत गंभीर हो जाती है। आजकल बैंक से ऋण पुराने जमाने की महाजनी व्यवस्था की अपेक्षा सरल ब्याज पर मिलता है, पर पिछला चुकाए बगैर अगला ऋण मिलना संभव नहीं होता। किसान अपनी व्यथा कहे तो किससे? या तो बैंक का ऋण चुकाने के लिए साहूकार से कर्ज ले या फिर गिरवी रखी अपनी जर-जमीन गंवाए।
औद्योगीकरण, शहरीकरण, उदारीकरण, बाजारवाद के चलते व्यापक सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया में हुए विकास कार्य किसान को बहुत लाभ नहीं पहुंचा सके हैं। बेशुमार भवन निर्माण और प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के साथ बदलते सामाजिक-पारिवारिक संबंधों के बीच किसान न केवल अपने को समाज की मुख्यधारा से कटा हुआ, हाशिये पर पाता, बल्कि पारंपरिक पारिवारिक समर्थन और सहयोग से मिलने वाली सहज ऊर्जा से भी वंचित महसूस करता है। वोट की राजनीति और बाजारवादी व्यवस्था के चलते जीवन मूल्यों के क्षरण ने समाज में जो संवेदनहीनता पैदा की है उसका सर्वाधिक खमियाजा किसान को उठाना पड़ा है।
कृषि आधारित अर्थव्यवस्था में किसान की हैसियत केंद्रीय थी, उद्योग और संचार-तंत्र आधारित अर्थव्यवस्था में वह अपने को पिछड़ा हुआ और अलग-थलग महसूस करता है। कृषि कर्म अब गया-बीता व्यवसाय समझा जाता है, जिससे खुद किसान के बच्चे भी नहीं जुड़ना चाहते। असल में शहरी समाज और कृषक समाज के बीच वह रोजमर्रा का संपर्क और सहयोग खत्म हो गया है, जो पुरानी सामाजिक व्यवस्था में हुआ करता था।
दोनों के बीच नए संबंधों के बनने की बहुत गुंजाइश नहीं दिखाई देती, क्योंकि किसान की दुनिया, बौद्धिक वर्ग या कॉरपोरेट जगत की दुनिया मानसिक रूप से बिल्कुल भिन्न हैं। सरकारी योजनाएं उस तक पहुंचाने वाले प्रशासनिक वर्ग से उसका संबंध इंसानी निकटता के बजाय कानूनी ज्यादा है, जिसमें वर्गगत दूरी लगातार बनी रहती है। नेता लोग अपने फायदे की राजनीति में किसान का इस्तेमाल भर करना चाहते हैं। उसकी खुशहाली या बदहाली से उन्हें बहुत वास्ता नहीं। ऐसे में किसान अपने को एक तरह के असहनशील परिवेश में खड़ा महसूस करता हुआ अकेलेपन और पराएपन की यंत्रणा का शिकार हो रहा है।
पढ़े-लिखे लोगों की आज की दुनिया में भी उसे वैसी गहन सहानुभूति नहीं मिल पा रही, जैसी स्वाधीनता आंदोलन के दौर में प्राप्त हुई थी। प्रेमचंद, निराला, भगवती चरण वर्मा, नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, भवानी प्रसाद मिश्र आदि के साहित्य में मिली थी या पचास-साठ के दशक वाले सिनेमा में। आज वह साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियों के केंद्रीय विषय के रूप में मौजूद नहीं है, क्योंकि पाठकीय संवेदना और अभिरुचियां बदल गई हैं। वैश्विक परिदृश्य के पीछे देसी प्रश्न ओट हो गए हैं। कृषिजीवी वर्ग और शहराती समाज के बीच पनपी इस अलंघ्य-सी दूरी को खत्म करके ही किसानों के प्रति सामाजिक संवेदनशीलता का विकास और विस्तार किया जा सकता है, जो हमारे समय की बड़ी जरूरत है। इसके लिए बुद्धिजीवियों, संस्कृति कर्मियों, मीडिया कर्मियों, गैर-सरकारी संगठनों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और सरकारों को सच्चे मन से सक्रिय होना पड़ेगा।
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