प्रभु जोशी
मैगी, पिछले दशकों में, बच्चों और युवाओं के आस्वाद पर आधिपत्य जमा कर, निर्द्वंद्व रूप से ‘तुरंता’ भोज्य व्यंजनों की कतार में, निर्विघ्न रूप से सबसे आगे बना हुआ था। उसने भारतीय व्यंजन-विधि की लद्धड़ता को खारिज करते हुए मध्यवर्गीय परिवारों में अपने लिए विशेष जगह बनाई। वह एक खास उम्र और वर्ग के बीच ‘मांगे मोर’ की अतृप्ति का निर्माण करने में सफल हुआ। यह विज्ञापन से पैदा किया गया लालसाधिक्य था, जिससे उसने भारतीय-परिवार को अपने अधीन कर लिया। लेकिन खाद्य-रुचि में जनहित-चेतना को लेकर बवाल मचाने वाले विघ्नसंतोषियों ने उसके अनिंद्य साम्राज्य में सेंध लगा कर, उसे कानूनी दांव-पेचों से अपनी गौरवशाली जगह से अपदस्थ कर दिया। ताबड़तोड़ वह कई राज्यों में प्रतिबंधित भी कर दिया गया। केंटुकी चिकन तो बहुत थोड़े दिनों के लिए फड़फड़ाया और यथाशीघ्र धराशायी हो गया था। लेकिन मैगी लंबी अवधि की उड़ान पर सवार था। आस्वाद का आकाश उसके लिए अनंत था, लेकिन सहसा उठ आए इस बवाल ने उसे संदिग्ध बना दिया है।
पूरे देश में चौतरफा जिरह उठ खड़ी हुई है। उनके जरिए जो प्रश्न लगातार हमारे सामने आ रहे हैं, उनकी भंगिमा भर्त्सना की है। या फिर अपने उन जनप्रिय सितारों को कलंक की कुचेष्टाओं से, बिना दाग लगे बचाने की है, जिन्होंने इस उत्पाद में अपनी ‘छवि’ का निवेश करते हुए, उसके विज्ञापन किए थे। उनको दाग अब अच्छे नहीं लगते। इसके पीछे तर्क हैं कि उन्होंने तो पेशेगत विवशता के चलते, केवल विज्ञापन ठीक उसी तरह किए थे, जैसा कि वे फिल्मों में अभिनय करते है, अनुबंध के साथ। यह ‘एड-फिल्म’ ही है। वे उत्पाद के निर्माण से संबद्ध कहां थे? ऐसे में उन्हें लांछित करते हुए, न्यायालय की दहलीज तक खींचने का खेल, नितांत निंदनीय है। भला इसमें उन भले लोगों का कैसा अपराध? असली अपराधी तो निर्माता हैं। फिर, उन्होंने विज्ञापन तो ‘भूतकाल’ में किए थे, इसलिए उन्हें ‘वर्तमान’ का दोषी कैसे बताया जा सकता है?
दरअसल, जब किसी वस्तु के विज्ञापन के लिए उत्पादक, फिल्म या खेल के क्षेत्र में लोकप्रियता के सहारे नायकत्व की छवि अर्जित कर चुके व्यक्ति को चुनता है, तो वह उस वस्तु से समाज में अति-संबद्धता गढ़ता है। ‘प्रतिष्ठा-मूल्य’ प्रज्ञा-विरोधी बन कर व्यक्ति से ‘चयन का विवेक’ छीन लेता है। वह उपभोग की स्वतंत्रता में हस्तक्षेप करता है। दिलचस्प तथ्य यह कि ऐसा वह ग्राहक के खर्चे पर करता है। क्योंकि विज्ञापन-फिल्म का खर्च, उत्पाद के मूल्य में ही समाहित होता है। बहरहाल, फिल्म का नायक विज्ञापन में अपनी ‘विश्वसनीयता और प्रतिष्ठा’ द्वारा उपभोक्ता को संशयरहित बना कर, उसे उस विज्ञापित वस्तु के संभावित ग्राहक में बदल देता है। वह ग्राहक भविष्य में ही स्थित है। इसलिए तमाम भूतकाल में रिकार्ड किए गए विज्ञापन भविष्य में ही अपना काम करते हैं। वे उन हवाई लड़ाकों की तरह होते हैं, जो आकाश से बम-वर्षा करते हैं और थलसेना पहुंच कर कब्जा जमाती है।
‘छवि के विस्फोट’ से वे उपभोक्ता की क्रय-चेतना करते हैं और बाजार उन पर कब्जा कर लेता है। प्रश्न यहीं से खड़ा होता है कि जब कोई व्यक्ति अपने ‘प्रतिष्ठा-मूल्य’ को लोकप्रियता के सहारे उच्चतम दर पर ले जाता है तो फिर उसका ‘प्रतिबद्धता-मूल्य’ कैसे पीछे छूट जाता है? जबकि उसकी प्रतिष्ठा ही उस उत्पाद को विश्वसनीय बनाती है। नतीजतन, उसे ‘विश्वास’ का ‘घात’ करने पर दोषी क्यों नहीं माना जा सकता? आप अपनी सामाजिक-हित की जवाबदेही से, हाथ झाड़ कर अलग खड़े नहीं हो सकते। दुनिया के किसी भी ‘आदर्शों से उफनते जनतंत्र’ में लिबर्टी आॅफ ट्रेड के नाम पर सामाजिक अहित करने वाले पदार्थों के व्यवसाय के लिए स्वतंत्र नहीं हो सकते। फिर तो नशीले पदार्थ बेचने वाला या हिंसा का व्यापारी भी व्यवसाय की स्वतंत्रता की मांग करेगा।
अब जरा मैगी की इस व्यावसायिक अतिव्याप्ति को थोड़ा उलट-पुलट कर देखें। कहना न होगा कि जब हम मैगी को उसके संपूर्ण परिप्रेक्ष्य में देखते हैं, तो लगता है कि यह उत्पाद केवल खाद्य-रुचि में परिवर्तन नहीं कर रहा था। भारतीय परिवार की सांस्कृतिक संरचना में सेंध लगाता हुआ अपनी सफलता की राह बना रहा था। यह भारत का पहला, सफलता के साथ, बहु-प्रचारित तुरंता-व्यंजन था, जिसका पैकेट भूख की तीव्रता का चटपट समाधान नहीं कर रहा था। बल्कि मुख्यतया वह भूख और स्वास्थ्य को हटा कर, स्वाद को केंद्र में ला रहा था। उसने स्वाद और स्वास्थ्य के द्वैत को कम किया। अधीरता और अतृप्ति को अभीष्ट बना कर, उपभोग मूल्य कोे अधिकतम बनाने में कामयाबी हासिल की। ‘खाए जा, खाए जा, उत्पाद के गुण गाए जा’ के बिक्री मंत्र ने भूख की नैसर्गिकता को नगण्य बनाया और उसको भोजन के विकल्प की जगह स्थापित करने का काम किया।
हम यह याद करें कि इसने पहली बार किचन की ‘किच-किच’ से मुक्त मां को रचा। किचन को यातना-घर की तरह प्रस्तुत करना, उपभोग की संस्कृति का बाजार-निर्मित फंडा आया। उसने वस्तु-सेवा का सांस्कृतिक रूप गढ़ा, जो बहुत जल्दी स्वीकार्य बन गया। दो मिनट में भूख का बंदोबस्त करने वाली ‘फास्ट’ मां आई। वह निदा फाजली के चटनी के स्वाद में ममत्व वाली मां को लानत भेजने वाली मां हुई। यह ममत्व की उत्तर-आधुनिक प्रतीति थी। वह बेटे को खाना खिलाने की खुशी से ज्यादा, ब्रांड की खुशी से भरी हुई थी। बाद में वह अपदस्थ हो गई और बेटा मैगी बनाने में आत्मनिर्भर हो गया। यह उस मां की नई स्वयं-पाकी संतान बनी। मां की केंद्रीयता हटी और यह परिवार में भावनात्मक संबंधों की नई पुनर्रचना थी, जिसे इस उत्पाद ने संभव बनाया। भाषा और भूषा के साथ ही, यह भारतीय भोजन में नया उलटफेर था, जिसने पश्चिम के फास्ट-फूड को भारतीयों के बीच अब लगभग अपरिहार्य बना दिया है। भारत के जो परंपरागत फास्ट-फूड थे, वे धीरे-धीरे अखाद्य की श्रेणी में शामिल होने की कगार पर हैं। स्थिति यह है कि शहर से लगे गांवों के निम्न वित्तीय परिवारों से भी वह विदा होने के निकट है।
अब विज्ञापनकर्ता की सामाजिक जवाबदेही का सवाल। प्रश्नों का यह कठघरा इन्हीं नायकों के लिए क्यों हो? जब एक विश्वसनीय अखबार में पाठक बिना नाम, पते और जगह के यौनशक्ति में अभिवृद्धि के दावे के साथ तेल का विज्ञापन छपता देखता है, तो क्या अखबार की संस्थागत विश्वसनीयता का निवेश उस विज्ञापन में नहीं होता, जो उसकी बिक्री का आधार बनाता है? क्या मीडिया भी यह कह कर अपना पल्ला झाड़ सकता है कि वह तो अखबार व्यवसाय की विवशता है। फैशन और उपभोग को समाज में हस्तक्षेपकारी बनाने वाला खुद मीडिया है। जो जवाबदेही मैगी नामक उत्पाद के विज्ञापन के संदर्भ में ब्रांड एंबेसेडर की है, वही एक अखबार और टेलीविजन चैनल की भी है। वे हाथ झाड़ कर खड़े नहीं हो सकते, क्योंकि विज्ञापन आखिरकार वस्तुओं की सूचना ही है। इसलिए जब प्रश्न नैतिकता से नाथे हुए हों, तो वे सभी से अपने वाजिब उत्तर मांगेंगे ही। अब यह बात भी हमें विचलित करती है कि नैतिकता को इस उत्तर-आधुनिक समय में एक फोबिया कहा जा रहा है। फोबिया, एक किस्म की मानसिक रुग्णता का ही पर्याय है।
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