राकेश बाजिया

संस्कृति के एक ही पक्ष को देखने के अभ्यस्त हम यह दावा तो कर देते हैं कि पुराने समय के भारतवासी बड़े मस्त, जीवंत, साहसी और जीवन के प्रति अद्भुत उत्साह से युक्त थे और अपना संदेश विदेशों में दूर-दूर तक ले जाते थे। विचार के क्षेत्र में उन्होंने ऊंची-ऊंची चोटियों पर अपने कदम रखे और आकाश को भेद डाला, उन्होंने अत्यंत गौरवमयी भाषा की रचना की और कला के क्षेत्र में उच्च कोटि की कारयित्री प्रतिभा का परिचय दिया। पर यह क्यों भूल जाते हैं कि उन दिनों के साम्राज्यों का वैभव, कला, साहित्य आदि का उत्कर्ष, तत्त्वज्ञान का विकास, वास्तुशिल्प की भव्यता आदि सब आम जनता के दुख और दारिद्र्य की बुनियाद पर खड़े थे।

करोड़ों किसान, पेशेवर, दास-दासी और भृत्य अगर भूखे पेट रह कर, मेहनत-मजदूरी करके समाज की ऐहिक आवश्यकताएं पूरी नहीं करते, तो ब्रह्मज्ञानियों के लिए आराम से बैठ कर तत्त्व चिंतन करना या कई दिनों तक वाद-विवाद करना संभव नहीं हो सकता था। महाकवियों की कृतियां जन्म नहीं ले सकती थीं, लोगों को दांतों तले अंगुली दबाने पर मजबूर करने वाले वास्तुशिल्प के नमूनों का निर्माण नहीं हो सकता था। इसलिए जब हम उन दिनों की सभ्यता और संस्कृति की गरिमा को याद करते हैं तो इस कड़वे सच को ध्यान में रखे बिना, हो सकता है हम ‘संस्कृति’ जैसे विषय के साथ न्याय न कर पाएं।

अगर संस्कृति सहज श्वसन प्रक्रिया है, और सांस सप्रयास नहीं ली जा सकती, सिर्फ प्राणायाम किया जा सकता है, तो यह प्रश्न सुनने में भले रोचक लगे कि अपनी भाषा और संस्कृति के इस्तेमाल का औचित्य ठहराने की जरूरत ही क्यों पड़ती है? पर गौर करें तो यह महसूस होगा कि भाषा और संस्कृति को हम अलग-अलग नहीं देख सकते। एक भाषा में पूरी संस्कृति समाहित होती है, जब भी कोई भाषा खत्म होती है तो उसकी लोकोक्तियां, मुहावरे, लोक-कथाएं और उसके संपूर्ण साहित्य के रूप में एक पूरी संस्कृति खत्म हो जाती है। फिर क्या दूसरी भाषा या संस्कृति में सहज सृजन संभव है? ऐसे में हम अच्छे ‘बौद्धिक स्वास्थ्य’ की कामना कैसे कर सकते हैं?

ऐसे में सिर्फ यह मान लेना कि शिशु के लिए मां का दूध डिब्बे या गाय के दूध से ज्यादा बेहतर होता है, शायद काफी नहीं है। क्योंकि मां का दूध न मिलने की स्थिति में क्या बाकी दोनों दूध शिशु द्वारा स्वीकार नहीं कर लिए जाते? हालांकि परिणाम कालांतर में परिलक्षित होते हैं। भारतीय संस्कृति अपने सभी अर्थों में दुनिया से जहां प्रभावित हुई है वहीं उसने दुनिया पर भी अपना प्रभाव छोड़ा है। यहां की ‘साड़ी’ और ‘नमस्कार’ के साथ ‘योग’ को ‘सुसंस्कृति’ के रूप में दुनिया भर में अपनाया गया है तो ‘समोसे’ को भुला कर ‘बर्गर’ यहां शहरी खानपान का अंग बन चुका है।

फिर अगर मनुष्य केवल सहजवृत्ति से चलने वाला सीधा-साधा प्राणी हो, अगर उसकी इच्छाएं और उसके निर्णय केवल आनुवंशिकता और परिवेश की शक्तियों के परिणाम हों, तब नैतिक निर्णय बिल्कुल असंगत हैं। हम शेर को उसकी भयंकरता के कारण बुरा नहीं कहते और न मेमने की विनम्रता के लिए प्रशंसा करते हैं। मनुष्य स्वतंत्र है और उससे यह अपेक्षा की जाती है कि वह अच्छाई को चुने। फिर किसी भी चीज को अपनाने से पहले उसकी उपयोगिता का प्रश्न कितना जरूरी है?

इस तथ्य का भान होना भी जरूरी है कि ‘उपभोक्तावाद’ के चलते एक शक्ति वैचारिक मतभेदों की उपस्थिति में भी बाजार की वजह से आपके समर्थन में खड़ी दिखाई देगी। हालांकि उद्योगीकरण ने निश्चित रूप से प्रगति के सिद्धांत और विकास के मौजूदा मॉडल के सुदृढ़ीकरण में मदद की है, पर कला ने हमेशा अपने को इससे अलग रखा है। जबकि सारा मामला उत्पादन से जुड़ा है, तो यहां इसकी संभावना ही खत्म हो जाती है। औद्योगिक उत्पादन और कलात्मक उत्पादन में बहुत बड़ा अंतर है। अमेरिका ने परमाणु बम बनाया, रूस ने भी बनाया, पर शेक्सपियर के नाटकों जैसी चीज का उत्पादन दुबारा इंग्लैंड में नहीं हुआ।

पहले आधुनिकता की आड़ में मानवता का मुखौटा पहन कर अपने को जनतांत्रिक, उदार और मानवीय संवेदना से छलकता हुआ दिखाने के लिए अमेरिका और अन्य संपन्न पश्चिमी देश उस आदिवासी लोक संस्कृति के संरक्षक बन बैठते हैं, जो उन्हीं के हाथों नृशंस वंशनाश के कारण लुप्त हो चुकी है। बाद में संग्रहालयों में संग्रहीत प्रतीकों, नमूनों के आधार पर बाजार के लिए कृत्रिम लोक संस्कृति का निर्माण किया जाता है। ऐसे ही ‘बगतरी’ और ‘खाट’ संस्कृति सीधे-सीधे इसकी शिकार हुई हैं। जहां आधुनिक होते लोग बगतरी बनाना भूल चुके हैं वहीं पगड़ी और धोती, जूती को स्थानापन्न कर बाजार फिर से एक ब्रांड के रूप में ‘बगतरी’ पहना देता है। यह बाजार की एक खास नीति की ओर संकेत करता है कि पहले आधुनिक दिखने के लिए इसे भूलो, फिर याद रखो कि यह आपकी ‘संस्कृति’ है। खाट को बनाने में बड़ी मशक्कत होती है, इसके निर्माण से कई रोजगार जुड़े हैं। ऐसे में बाजार गद्दों सहित आराम के लिए ‘बेड’ देता है। कहा जाता है कि खाट पर सोने से व्यक्ति बहुतेरी बीमारियों से दूर रहता है, शरीर में रक्त संचार ठीक रहता है। पर ऐसे में बाजार जो आपके लिए दवाइयां बना रहा है, वे अनुपयोगी हो जाएंगी।

आज भारतीय संस्कृति अपने मूल में एक होते हुए भी कई हिस्सों में बंटी हुई है। उसमें शहरी, कस्बाई और ग्रामीण संस्कृति अलग-अलग हैं। शहरी संस्कृति में जहां जरूरतों के चलते या सुख-सुविधाओं के कारण लोग शामिल होने को आतुर हैं, वहीं कस्बाई संस्कृति में नकारात्मक ऊर्जा भले कम है, पर कहीं न कहीं मूलभूत शहरी आवश्यकताओं (अच्छे अस्पताल, खेल के मैदान, पार्क आदि) के अभाव में रोजगार होने पर भी ‘ठहराव’ की स्थिति वहां नहीं बन पा रही। उद्योग ग्रामीण जीवन के कई तरह के अतिरेकों और स्थापित ढर्रे के खिलाफ आवश्यक संतुलनकारी भूमिका निभा सकते हैं, फिर भी गांवों की स्थिति सबसे बदतर है। गांव का युवा आज शिक्षित होने के बावजूद होड़ के चलते न तो ‘पुरानी जींस’ में खुद को ढाल पाता है, और न ही अपने पारंपरिक व्यवसाय से जुड़ पाता है। साथ ही शहर बनने की होड़ में गांव न शहर बन पाते हैं न गांव रह जाते हैं, ऐसी स्थिति में ग्रामीण युवा और गांव दोनों ‘त्रिशंकु’ स्थिति में नजर आते हैं।

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