अरिमर्दन कुमार त्रिपाठी
सत्ता की अपनी भाषा होती है, जो ध्वनित हुए बिना भी अधिक प्रभावशाली होती है। कभी-कभी उसका अर्थ तुरंत स्पष्ट हो जाता है, पर कई बार इसकी शब्द-संरचना मात्र तक पहुंचने में वर्षों लग जाते हैं। वैसे भी अपने चरित्र के अनुरूप सत्ताएं अर्थ की अस्पष्टता को हमेशा अपने पक्ष में व्याख्यायित करती हैं। भाषा का वर्गीय चरित्र आमजन के हित में कभी हो ही नहीं सकता। इन सबमें सुखद सिर्फ यह है कि भाषाएं मूलत: एक लोकतांत्रिक उत्पाद होती हैं, इसलिए किसी लोकतांत्रिक शासन पद्धति में इसकी अवहेलना नहीं की जा सकती। इसीलिए लोकाभिमुख कुछ सत्ता वर्ग आमजन तक पहुंच सकने वाली भाषा से खुद को दूर नहीं कर पाते और कर्मणा न सही, वाचा रूप में आम भाषा से अपने को जोड़े रखते हैं, जिसका उत्तम प्रयोग राजनीतिक दलों की रैलियों और बाजार के विज्ञापनों में होता है।
बहरहाल, यह स्पष्ट है कि इतिहास में भाषाई सत्ता को प्रभावित करने वाले चाहे जो भी कारक रहे हों, लेकिन डेविड ग्रडोल जैसे लोगों की मानें तो ‘भविष्य में भाषा को प्रभावित करने में जनसांख्यिकी की भूमिका सबसे महत्त्वपूर्ण होगी।’ यह अनायास नहीं है कि विश्व के सबसे शक्तिशाली राष्ट्राध्यक्ष ‘बराक ओबामा’ ने अपने भारतदौरे में देश के लोगों का अभिवादन हिंदी में किया था। ऐसे हिंदी में अभिवादन खुद अमेरिका में भी शीर्ष राजनेताओं द्वारा समय-समय पर सुनने को मिल जाते हैं। अभी इंग्लैंड के संसदीय चुनाव में भी अनिवासी भारतीय मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए हिंदी में तैयार गानों का प्रयोग किया गया।
बहरहाल, यह पूरा मामला इतना सरल नहीं है, जितना प्रथम दृष्टया दिखता है। धर्म के नाम पर बंटे पाकिस्तान को भाषा के नाम पर एक और बंटवारे का दंश झेलना पड़ा था। इसका ताजा उदाहरण भारत में भी देखा जा सकता है, जहां कभी भाषाई एकता के नाम पर आंध्र प्रदेश का गठन हुआ था, जिसके आंदोलन में पोट््टी श्रीरामल्लू जैसों का आत्म-बलिदान भी शामिल था, पर उसी आंध्र प्रदेश को आज नए कारणों से तेलंगाना के रूप में विभाजन स्वीकार करना पड़ा है। दरअसल, यह एक प्रक्रिया होती है, जिसमें अस्मिता के निर्माण में भाषाओं को माध्यम बना लिया जाता है। भाषाएं व्यक्ति की भावना के सबसे समीप होती हैं।
यही कारण है कि ओबामा को उक्त दौरे में नरेंद्र मोदी से गुजराती में ‘केम छो’ कह कर हालचाल पूछना पड़ा। देश भर के उपभोक्ताओं को हिंदी में ‘नमस्ते’, लेकिन इन उपभोक्ताओं के नीति-निर्माताओं के प्रतिनिधि प्रधानमंत्री से बात करने की शुरुआत गुजराती में करने जैसी पहल के लिए विदेश-नीति में पूरी तैयारी करनी होती है। जब यह प्रयोग किसी वैश्विक शक्ति को करना पड़ रहा हो, तो इसके महत्त्व को समझा जा सकता है। यह भावनात्मकता का ही परिणाम है कि यूपीए सरकार के मुख्य रणनीतिकार पी चिदंबरम ने संसद में दलीय प्रतिबद्धता से ऊपर उठ कर भोजपुरी को आठवीं अनुसूची में शामिल करने के सांसदों के दबाव को भोजपुरी में मात्र एक वाक्य- ‘हम राउर सब के भावना समझत बानीं।’ कह कर समाप्त कर दिया था।
सत्ता वर्ग का भाषाओं को अपने हित में स्वीकार या अस्वीकार करना कोई नई बात नहीं है। बहुभाषिक और लोकतांत्रिक भारत में यह खेल वर्षों से चल रहा है। इधर इस प्रवृत्ति में तेजी आई है और सरकारों के स्तर पर अनेक ऐसे निर्णय हुए हैं, जिनका कोई तार्किक आधार नहीं, बल्कि महज तुष्टीकरण की राजनीति या कुछ स्वार्थी तत्त्वों का पोषण इन निर्णयों का मूल आधार रहा है।
ऐसे में जब भूमंडलीकरण नामक दावानल देश की छोटी-छोटी भाषाओं, संस्कृतियों और सभ्यताओं को निगलने को आतुर हो, तो सरकारों का भाषाओं से खेलना न सिर्फ उनकी संवेदनहीनता को दर्शाता, बल्कि एक बहुलतावादी धरोहर वाले राष्ट्र के प्रति गैर-जिम्मेदारी की ओर भी संकेत करता है। वरना क्या कारण है कि देश की अल्पसंख्यक या जनजातीय भाषाओं के संरक्षण और संवर्धन के प्रति कोई ठोस तैयारी नहीं दिखती। इसके विपरीत तुष्टीकरण वाली अनेक पहल प्राय: देखने को मिल जाती है। देश में राष्ट्रभाषा और राजभाषा से अलग सरकार द्वारा पोषित अनेक होड़ एक साथ चल रही है। इसमें एक तरफ आठवीं अनुसूची में शामिल होने की होड़ है, तो दूसरी ओर शास्त्रीयता का दर्जा पाने की।
जब पहली बार तत्कालीन यूपीए सरकार ने इस होड़ की शुरुआत की थी, तो इसके लिए भाषाविदों की दो सदस्यी समिति बनी थी, जिसके सदस्य डॉ बीएच कृष्णमूर्ति और प्रो उदयनारायण सिंह थे। इस पूरी प्रक्रिया पर निराशा जाहिर करते हुए प्रो सिंह अपने हाल के एक साक्षात्कार में बताया कि ‘हमने किसी भाषा के शास्त्रीय होने की प्राथमिक शर्त रखी थी कि वह दो हजार साल पुरानी हो और इस आधार पर पहली भाषा ‘संस्कृत’ का नाम सुझाया गया था, लेकिन सरकार ने न सिर्फ हम लोगों पर दबाव बनाने के लिए इस समिति में चार-पांच दूसरे लोगों को शामिल किया, बल्कि मंत्रिमंडलीय नोट द्वारा दो हजार साल पुरानी वाली शर्त को एक हजार कर दिया गया और संस्कृत के बजाय तमिल को सर्वोच्च शास्त्रीय भाषा का दर्जा दिया गया।’
इस प्रकार एक लोकलुभावन परंपरा बनी, जिसकी तारतम्यता तमिल (2004) के बाद संस्कृत (2005) तेलुगू (2008) कन्नड़ (2008) मलयालम (2013) और ओड़िया (2014) तक जारी है। इस पूरे प्रकरण को धूमिल के शब्दों में कहें तो सरकारें भाषाओं से ‘खेलती’ हैं। इसी गलत बुनियाद के आधार पर पिछली सरकार ने अपने दस वर्ष के कार्यकाल में इस खेल को खूब खेला और ओड़िया को शास्त्रीयता के दर्जे की घोषणा ऐन चुनाव से पहले किया गया। इसमें अगर तमिल को ‘शास्त्रीय’ का दर्जा देने के पीछे मकसद तत्कालीन गठबंधन के सहयोगी द्रमुक को खुश करना था, तो ओड़िया को यह दर्जा देने के पीछे बीजू जनता दल से गठबंधन की संभावना तलाशना।
हर भाषा किसी देश की सामाजिक और सांस्कृतिक धरोहर है, उसका संवर्धन होना चाहिए, लेकिन उसके लिए एक अलग कोटि बनाने की क्या आवश्यकता है! क्या इसके आधार पर कल बंगाली, मराठी, पंजाबी आदि के शास्त्रीयता की मांग नहीं उठेगी? तब यह कितनी बड़ी विसंगति होगी कि देश में जो मुखर मांग उन भाषाओं के पक्ष में होनी चाहिए, जो संकटग्रस्त हैं, अल्पसंख्यक हैं और जिनके मूल बोलने वालों की अगली पीढ़ी भी इससे बचने लगी है। ऐसी भाषाओं के पक्ष में काम करने के बजाय राजनीतिक नेतृत्व के लक्ष्य में वे भाषाएं होती हैं, जो वोट-बटोरू हों। इसी का परिणाम है कि आज आठवीं अनुसूची में शामिल होने या शास्त्रीय दर्जा पाने की मांग करने या कराने वाले तो मिल जाते हैं, लेकिन उन भाषाओं के पक्ष में ध्यान नहीं जाता, जिनके अस्तित्व पर दिनोंदिन संकट गहराता जा रहा है।
इसमें दोष इन दूरस्थ भाषाओं का नहीं है और न ही इनकी संस्कृति किसी मामले में कथित शास्त्रीय भाषाओं से निम्नतर है, बल्कि इन भाषाओं की उपेक्षा के पीछे मूल कारण यह है कि इनके बोलने वालों की संख्या कम है, जिससे सरकारों का भविष्य या वर्तमान व्यापक रूप से प्रभावित नहीं हो सकता। इस पूरी प्रक्रिया का असर यह है कि आज इन अल्पसंख्यक भाषाओं के मातृभाषी भी रोजगार या अन्य सुविधाओं के न होने की स्थिति में इनको लेकर उदासीन हैं।
भारतीय संदर्भ में भाषा को लेकर नीतिगत अनिर्णय या द्वंद्व की स्थिति हमेशा से रही है, संघ लोक सेवा आयोग जैसी शीर्ष संस्था की परीक्षाओं से लेकर शिक्षण के माध्यम के रूप में प्रयुक्त भाषाओं के लिए कोई स्पष्ट दीर्घकालिक नीति नहीं है। कई बार किसी तात्कालिक मांग को शांत करने के लिए निर्णय कर लिए जाते हैं, लेकिन उनमें प्राय: दूरदर्शिता, ठोस कार्य-योजना और दृढ़ इच्छाशक्ति का अभाव होता है, जिसका परोक्ष लाभ हमेशा अंगरेजी या बड़ी भाषाओं को मिला है। यह प्रशासन की उपेक्षा का ही परिणाम है कि अभी तक अनुत्तरित राष्ट्रभाषा या राजभाषा से जुड़े सवालों से इतर अनेक नए सवाल उभर कर सामने आए हैं, जिनको न सुनना भाषा संबंधी पुरानी उदासीनताओं से अधिक महंगा पड़ सकता है, क्योंकि इन सवालों के पीछे राष्ट्र की अवधारणा, प्रशासन के संचालन से आगे जाकर जीवन, लोक-संस्कृति का संकट है और इस प्रकार यह एक स्वस्थ लोकतंत्र का संकट है। इसलिए अपेक्षा की जानी चाहिए कि तुष्टीकरण की राजनीति से अलग भारतीय बहुभाषिकता को संरक्षित और संवर्धित करने की दिशा में ठोस कार्य-योजना बने और इस पर प्रभावी अमल हो।
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