मृणाल पाण्डे

राजधानी की एक किसान रैली में एक किसान की आत्महत्या ने दो कतई अलग-अलग मुद्दों- हाशिए के किसानों में गहराती हताशा और केंद्र सरकार के प्रस्तावित भूमि अधिग्रहण विधेयक- को अचानक कस कर जोड़ दिया। यह किसी से छिपा नहीं है कि पिछले कुछ सालों से खेती-किसानी कितने घाटे का सौदा बनती चली गई है। और यह भी कि औद्योगिक और सार्वजनिक विकास कार्यक्रमों के लिए जरूरी जमीन पाने को भूमि कानून में मनचाहे फेरबदल की इच्छा किसी एक दल या सरकार विशेष तक सीमित नहीं। पर फिर भी जमीन का मुद्दा सिर्फ आर्थिक नहीं, सामाजिक और भावनात्मक जड़ें भी रखता है। इसलिए सरकार इस बाबत कोई नई रूपरेखा संसद में लाई नहीं, कि विपक्ष खेतिहरों ही नहीं, मध्यवर्ग के बीच भी प्रस्तावित विकास की तुक विनाश से बिठाने में सफल हो जाता है।

जब भाजपा ने शिथिल यूपीए सरकार से देश को मुक्त कराने के लिए (उपरोक्त संदर्भ में असंभव बना) ‘सबका साथ सबका विकास’ का नारा 2014 चुनावों में जन-जन तक पहुंचाया, तभी सयानों के माथे ठनक गए थे। धमाकेदार वक्तृता से सत्ता में आई सरकार से लोगों को देश में आर्थिक-सामाजिक पटल पर तुरंत और भारी बदलाव की उम्मीद होनी ही थी, हुई। लेकिन देशों की चीननुमा तरक्की चमत्कार से नहीं, जनता द्वारा लंबे समय तक बिना फल की आशा किए, समवेत बहाए गए खून-पसीने की उपज होती है।

साल होने को आया तो सबका साथ और सबका विकास दोनों मोर्चों पर वाग्वीर नई सरकार से रातोंरात भस्म से सोना और हवा से हथियार निकालने की उम्मीद धारे जनता काफी चिड़चिड़ाने लगी है। तिस पर असमय बारिश की मार! ग्रह उल्टे पड़े तो अमेरिकी राष्ट्रपति द्वारा सरकार के मुखिया की तारीफ में कलम तोड़ने से विपक्ष के ‘सूट बूट की सरकार’ जैसे आरोपों को और बल मिला। कुमाऊं की रामलीला के हताश राजा जनक के शब्द उधार लें तो, ‘मुनि जी, कुसल भई विपरीता’।

बेमौसम बारिश से रबी की फसलें तबाह होने से भी विपक्ष को बदहाल किसानों के बीच यह हवा बांधने में बड़ी मदद मिली है कि बेहतर मुआवजा दिलाने के बजाय नई सरकार तो एक खतरनाक भूमि अधिग्रहण विधेयक को जैसे-तैसे पारित करा के उनकी जमीन छीनने और बड़े उद्योगों को फायदा पहुंचाने की राह पर है।
सत्तापक्ष ने इसे कतई गलत करार दिया और प्रधानमंत्री ने कृषिमंत्री को संसद में किसानी और फसलों की दशा पर सही तथ्यों की सटीक प्रस्तुति के लिए शाबाशी भी दी। लेकिन संसद में पेश तथ्यों के आधार पर यह तो मानना होगा कि असमय वर्षा और ओले से देश की कम नहीं, कुल तिरानबे लाख हेक्टेयर जमीन पर उगी फसल दुष्प्रभावित हुई है। मौसम विज्ञानी बता रहे हैं कि मानसून इस बार सामान्य से कम बारिश लाएगा। यानी आगे खरीफ की फसल को भी खतरा बनता है।

उधर पश्चिम एशिया में मार-काट से तेल के दामों में लगातार उतार-चढ़ाव जारी हैं। पर्यावरण बदलाव के तहत ‘अल नीनो’ नामक संकट की भविष्यवाणी भी इस संभावना को और बल दे रही है कि ऋतुचक्र की गड़बड़ी अभी कुछेक साल बनी रह सकती है। ये तमाम बातें साठ से सड़सठ फीसद किसानी पर निर्भर आबादी वाले देश में अंतत: किसानों ही नहीं, सारी अर्थव्यवस्था के लिए खतरे की टनटनाती घंटियां बन रही हैं। इसलिए विपक्ष और मीडिया को इस समय भयादोहन का दोषी ठहराना न सिर्फ गलत, अविवेकी भी है।

यह कठोर समय संकीर्ण धर-पकड़ नहीं, स्थिति के प्रतिकार की सर्वदलीय और ईमानदार पहल के लिए सबको भरोसे में लेने की मांग कर रहा है। विपक्ष जहां शायद पुराने बदले चुका रहा हो (कौन विपक्ष यह नहीं करता?) पर वह और मीडिया अंतत: बुरी खबर के वाहक हैं, निर्माता नहीं। क्या कलेजे पर हाथ रख कर कोई यह कह सकता है कि गजेंद्र सिंह की दारुण मौत के अलावा भी देश में सिर थामे फटेहाल किसान परिवारों की जो छवियां संसद से सड़क तक लगातार दिख रही हैं, नकली या नगण्य और उपेक्षणीय हैं? खुद सभी बड़े दलों के भीतर भी फूट की दरारें पला करती हैं। बुरी स्थितियां बनने पर विगत में एकाधिक सरकारों के मजबूत पातसाही गढ़ भी बाहरी हमलों और भीतरी दरारों का समवेत शिकार बने और धराशायी हुए हैं। उदाहरण कई हैं।

1965 में अनावृष्टि से फसल खराब हुई और साल भर में अन्न उत्पादन लगभग चौबीस फीसद कम हो गया था। उस समय हमारे सुधारों से इस पर जल्द काबू पा लिया जाएगा, कह कर अपने को अजेय मानती कांग्रेस सरकार ने मुद्रा का अवमूल्यन जैसा कठोर कदम उठाया। और 1947 से एकछत्र सत्ता भोगती रही कांग्रेस पार्टी दो फाड़ हो गई। केंद्र सरकार का किला दरका तो 1967 आते-आते प्रांतों में गैर-कांग्रेसी संविद सरकारें भी सिर उठाने लगीं।

पर फिर 1973-74 में जब बांग्लादेश युद्ध की चमकदार जीत से सरकार फिर आत्मविश्वास से लबरेज थी, अन्न उत्पादन में मौसम की मार से आठ फीसद गिरावट आ गई और इसी के साथ (अंतरराष्ट्रीय घटनाओं से) आयातित तेल की कीमतों में अविश्वसनीय रूप से भीषण उछाल भी आया। अचकचा कर महंगाई, मंदी और मुद्रास्फीति के उफान तले मुखर असंतोष पर रोक लगाने के लिए इमरजेंसी लागू की गई। यह कदम सरकार को बड़ा मंहगा पड़ा और 1977 के आमचुनाव में कांग्रेस को वनवास देकर जनता जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में बने गैर-कांग्रेसी गठजोड़ को सत्ता में ले आई।

दस बरस बाद 1986 में जब फसल बिगड़ी तब पूर्व वित्तमंत्री वीपी सिंह भ्रष्टाचार विरोध का प्रतीक बने और उनके गठजोड़ ने अगले सालों में जनता के गुस्से को फेंट कर इतना झाग पैदा किया कि वह अभूतपूर्व मतों से जीत कर सरकार का तख्ता पलट करने में सफल रहा। पर 2002 में सूखे ने जब फिर तीस फीसद देश को सूखाग्रस्त बना दिया, तो शाइनिंग इंडिया नारों और चुनावी पंडितों की भविष्यवाणियों के बावजूद कमजोर लगती कांग्रेस वनवास से बाहर आकर क्षेत्रीय दलों को जोड़ने में कामयाब हो गई। चुनावों में यकायक अटलजी जैसे लोकप्रिय नेता की सरकार के पैर उखड़ गए।

2007 के सुखाड़ के बावजूद अगर 2009 के चुनाव में यूपीए की जीत हुई, तो इसकी वजह 2004 से 2009 के बीच गरीबी रेखा के नीचे रहने वालों को दी गई भारी सरकारी सबसीडियां थीं। उस समय विपक्ष ने उसका जितना भी विरोध किया हो, उन्होंने खराब मानसून के बावजूद ग्रामीण क्षेत्र में भुखमरी के त्रास को कमोबेश काबू में रखा।

बाढ़ के बाद कश्मीर घाटी में नए सिरे से दिल्ली के खिलाफ सिर उठाता जनविरोध नवीनतम प्रमाण हैं कि धर्मभीरु प्रजा अब भी महाभारतकार की तरह ‘राजा कालस्य कारणं’, यानी सत्तासीन राजा को ही अपने समय के हर उतार-चढ़ाव के लिए उत्तरदायी मानती है। जनहित में यह दोहराना जरूरी है कि भारत में सिर्फ घरेलू या अमेरिका-यूरोप से मिली प्रायोजित वाहवाही के रस्सों से एक स्वस्थ दक्षिणपंथी राजरथ भी अधिक दूर तक नहीं खिंच सकता। जब खेती-प्रधान राज्यों के चुनाव सिर पर हों, तब हरियाणा से बिहार तक और कश्मीर से आंध्र तक में निखालिस भारतीय किस्म के किसानी, जातिवादी, वंशवादी और सांप्रदायिक आग्रह सिर उठाएंगे ही। तिस पर अगर चुनावी चंदे का गोमुख उद्योग जगत भी जरूरी फैसले टलने से मुंह फुलाए हो, तो मुए निंदकों की मीडिया मड़ैया में आग लगाने और आपातकालीन मुश्क बंधाई का अड़ियल हठ क्या पालना? बाकी आप खुद समझदार हैं।

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