कुलदीप कुमार

जन्म से लेकर साढ़े सात साल की उम्र तक मैं पश्चिमी उत्तर प्रदेश के नगीना नामक कस्बे में रहा। यहां के हाफिज मुहम्मद इब्राहिम कांग्रेस के राष्ट्रीय स्तर के नेता हुआ करते थे और जवाहरलाल नेहरू के मंत्रिमंडल के सदस्य भी थे। कस्बा बहुत छोटा था। मुझे अब तक याद है कि मैंने पहली फिल्म उस ‘सिनेमाघर’ में देखी थी, जो ‘आसमानी छत का सिनेमा’ कहलाता था। इस सिनेमाघर को खुले आसमान के नीचे एक बड़े-से मैदान में टिन की चादरें लगा कर तैयार किया जाता था। मेरी उम्र शायद चार साल रही होगी, जब मैंने पहली फिल्म देखी। छह साल का होते-होते नगीने में एक सिनेमाघर भी खुल गया, जिसके उद्घाटन में लड्डू बांटे गए थे और मुफ्त में ‘मिलन’ फिल्म दिखाई गई थी। यह फिल्म सुनील दत्त-नूतन वाली नहीं, उससे पहले की थी।

बचपन में फिल्म देखने जाना पूरे परिवार के लिए एक उत्सव की तरह होता था। सिनेमाघर के बाहरी गेट में घुसते ही लगता था जैसे किसी रहस्यमय तिलिस्मी दुनिया में आ गए हैं। और सिनेमाघर के अंधेरे में पंखों के शोर और सबसे अगली कतार की सीटों से बजने वाली सीटियों के बीच परदे पर नाचती-गाती आकृतियों को देखते रहना किसी रोमांचक अनुभव से कम नहीं था। वहां हर सप्ताह दोपहर में एक मैटिनी शो भी होता था, जो सिर्फ महिलाओं के लिए होता था। नगीने में अधिकतर फिल्में मैंने अपनी मां के साथ बुर्कों के बीच बैठ कर ही देखीं। बड़े होने के बाद भी सिनेमाघर में फिल्म देखना हमेशा एक अलग तरह का अनुभव रहा।

दिल्ली आने पर पाया कि हर सिनेमाघर का अपना एक अलग माहौल, चरित्र और मिजाज था, जिसे बनाने में उस जगह का बहुत बड़ा हाथ होता था, जहां वह सिनेमाघर था। चाणक्य सिनेमा और गौतम नगर के सुदर्शन सिनेमा में फिल्म देखने का अनुभव एक जैसा नहीं था। लेकिन फिर मल्टीप्लेक्स का युग आ गया, और सब कुछ बदल गया। अब किसी भी मल्टीप्लेक्स में फिल्म देख लीजिए, एक जैसा लगता है। टिकट खिड़की तक पहुंचने की जल्दी में धक्कम-धुक्का करके लंबी लाइन में आगे जाने की कोशिश, पुलिस का अक्सर हल्का लाठीचार्ज, ब्लैक में टिकट खरीदने की मजबूरी और जेब में पैसे न होना- कहां है अब यह सब?

दिल्ली में कई सिनेमाघर बंद हो गए हैं और जो बचे हैं वे भी अपना अस्तित्व बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। बृहस्पतिवार को इंडिया हैबिटाट सेंटर में ‘द हिंदू’ के सीनियर डिप्टी एडिटर और प्रसिद्ध फिल्म समीक्षक जिया उस सलाम की सद्य:प्रकाशित पुस्तक ‘डेल्ही फॉर शोज: टाकीज आॅफ यस्टरईयर’ पर हुई चर्चा सुनते हुए मुझे अपना बचपन और बाद के सालों का अनुभव याद आता रहा। जब किताब पढ़ी तो देखा कि भूमिका प्रसिद्ध अभिनेत्री शर्मिला टैगोर ने लिखी है और उन्होंने भी अपने बचपन के इसी तरह के रोमांच के बारे में जिक्र किया है, जो सिनेमाघर में फिल्म देखने जाने की प्रक्रिया में होता था।

जिया ने कई महत्त्वपूर्ण बातें बतार्इं, मसलन यह कि यह तय था कि अगर अमुक सिनेमाघर में मिथुन चक्रवर्ती की फिल्म लगी तो वह महीनों तक चलेगी ही। इसी तरह किसी दूसरे सिनेमाघर में अगर धर्मेंद्र की फिल्म लगी तो उसे हटने में भी महीनों लग जाएंगे। यौनकर्मी उन फिल्मों को अधिक देखती थीं, जो महिला-केंद्रित होती थीं और जिनमें महिला अपने अधिकारों के लिए लड़ती और शक्ति हासिल करती थी, जैसे ‘खून भरी मांग’।

हालांकि पुरुष ही अधिकतर फिल्म देखने आते थे, लेकिन धार्मिक फिल्मों को देखने के लिए महिलाओं की भीड़ भी उमड़ पड़ती थी। ‘जय संतोषी मां’ फिल्म की कहानी तो सबको पता है कि कैसे फिल्म के पोस्टर पर पैसे चढ़ा कर महिलाएं बाकायदा आरती की थाली हाथ में लिए सिनेमाघर में घुसती थीं और उषा मंगेशकर का गाया भजन ‘मैं तो आरती उतारूं रे, संतोषी माता’ शुरू होते ही अपनी सीटों से खड़े होकर आरती उतारना शुरू कर देती थीं।

आजादी के बाद के शुरुआती दशकों में उर्दू को सिर्फ मुसलमानों की भाषा मानने का चलन कम से कम फिल्म जगत में नहीं था। फिल्मों के पोस्टर और होर्डिंग हिंदी, अंगरेजी और उर्दू- तीनों भाषाओं में होते थे।
पुस्तक में जिया बताते हैं कि पुरानी दिल्ली और कनॉट प्लेस में 1950 के दशक में ही सिनेमाघर की एक सुस्थापित संस्कृति पैर जमा चुकी थी, लेकिन दक्षिणी और पश्चिमी दिल्ली में इसका सूत्रपात 1970 के दशक में हुआ, जब कई बस्तियों में सिनेमाघर खुले।

1971 तक राजौरी गार्डन में (‘क्वीन’ में कंगना राणावत अपना पता यहीं का बताती हैं) कोई सिनेमाघर नहीं था। लोग पंद्रह किलोमीटर दूर शक्ति नगर फिल्म देखने जाते थे। 1971 में विशाल सिनेमा खुला। मॉडल टाउन, जखीरा, सुभाष नगर, शकरपुर, राजौरी गार्डन और आरके पुरम में ‘नेचुरली कूल्ड’ सिनेमाघर होते थे, जिनमें पंखा तक नहीं होता था। दो से छह माह तक उसी तरह के अस्थायी सिनेमाघर फिल्में दिखाया करते थे, जिस तरह के ‘आसमानी छत’ वाले सिनेमाघर का जिक्र मैंने शुरू में किया था। बस फर्क यह था कि इनमें आसमानी छत की जगह तिरपाल की छत हुआ करती थी। ‘आन’, ‘नागिन’, ‘नया दौर’ और ‘हर हर महादेव’ जैसी अपने समय की सफलतम फिल्में अनेक लोगों ने इन नेचुरली कूल्ड सिनेमाघर में ही देखीं।

हर सिनेमाघर में हर शो के दर्शक अलग हुआ करते थे और सिनेमाघर में अलग-अलग जगहों पर बैठने वाले भी अलग-अलग किस्म के होते थे। मजदूर वर्ग के लोग रात का शो देखना पसंद करते थे, जबकि परिवार शाम का शो देखने आया करते थे। मैटिनी शो में महिलाएं होती थीं, तो दोपहर के शो में सेक्स वर्कर, नाचने-गाने वाली महिलाएं और कॉलेज के छात्र हुआ करते थे। गरीब दर्शक आगे की सस्ती सीटें घेरते थे तो मध्यवर्ग और अमीर लोग बालकनी और बॉक्स में बैठते थे। लेकिन सुबह के शो में बालकनी अक्सर खाली रहा करती थी।

पुस्तक पर चर्चा के दौरान रंजीत सिंह सिबल का परिचय भी दिया गया, जो वहां मौजूद थे। उनके पिता और पिता के भाई पेशावर और रावलपिंडी में सिनेमा व्यवसाय में अग्रणी थे और कैंपबेलपुर, चीकागली, नौशेरा और ऐबटाबाद जैसे अनेक शहरों में उनके सिनेमाघर थे। लेकिन विभाजन के बाद उन्हें सब कुछ छोड़ कर दिल्ली आना पड़ा। कुछ साल खानाबदोशी की जिंदगी बिताने के बाद वे फिर इस व्यवसाय में कूद पड़े और उन्होंने उन जगहों को चुना, जहां कोई सिनेमाघर नहीं था, मसलन जखीरा, सुभाष नगर, मॉडल टाउन, राणा प्रताप बाग, गुड़ मंडी, शकरपुर, विश्वास नगर, राजौरी गार्डन, मोती नगर, शाहदरा, रमेश नगर और जेल रोड। ये सभी तिरपाल की छत वाले अस्थायी सिनेमाघर थे, लेकिन यहां फिल्में उत्तम कोटि की दिखाई जाती थीं। यह कस्बे का राजधानी में प्रवेश था।

जिया की किताब से ही मुझे पता चला कि सिबल परिवार ने दिल्ली ही नहीं, उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद, बुलंदशहर और नगीना में भी सिनेमाघर बनाए। यानी जिस सिनेमाघर के उद्घाटन पर मैंने बचपन में लड्डू खाए थे और नितिन बोस की फिल्म ‘मिलन’ देखी थी, वह इन सिबल साहब का ही था! इसी तरह विभाजन के बाद साहनी परिवार भी पाकिस्तान से यहां आया। वहां उसके इक्कीस सिनेमाघर थे। दिल्ली में उसने ओडियन से शुरुआत की। जिया उस सलाम ने लगभग अस्सी सिनेमाघरों के बारे में विस्तार से जानकारी दी है और, जैसा कि चर्चा के दौरान रंगकर्मी दानिश इकबाल ने कहा, हर सिनेमाघर एक किरदार जैसा लगता है, जिस पर फिल्म बनाई जा सकती है। किताब में पुरानी फिल्मों के पोस्टर ही नहीं, अंगरेजी दैनिक ‘पेट्रीयट’ के उन पृष्ठों के फोटो भी हैं, जिन पर फिल्मों के विज्ञापन छपते थे। दिल्ली के हालिया अतीत का यह अद्भुत दस्तावेज है।

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