अपूर्वानंद

‘उन्हें क्षमा कर दो क्योंकि वे नहीं जानते कि वे क्या कर रहे हैं’, यीशु ने कहा जब उन्हें सलीब पर टांगा जा रहा था। उन्हें सलीब पर लटकाने वाले सिपाही उनके वस्त्रों का आपस में बंटवारा कर रहे थे। और लोग उन्हें लटकाए जाते हुए देख रहे थे। शासक उनकी खिल्ली उड़ा रहे थे और कह रहे थे, ‘उसने दूसरों को बचाया, अब वह खुद को बचा ले अगर यही खुदा का क्राइस्ट है, उसका अपना चुना हुआ बंदा।’ यीशु ने कहा, ‘मैं जानता हूं मेरे बंधु इजराइलियो, कि तुमने अज्ञान में यह सब किया और तुम्हारे हुक्मरान ने भी।’

यीशु का यह वाक्य मानव-इतिहास के कुछ प्रसिद्ध वाक्यों में से एक है। लेकिन इसका उपयोग किस प्रकार किया गया है, इस पर विचार करना हमेशा की तरह आज भी जरूरी है। पहले दिए गए उद्धरण में चार किरदार हैं: यीशु, जिन्हें सलीब पर टांगा जा रहा है; उन्हें सलीब पर टांगने वाले सिपाही, इसे तमाशे की तरह देखने वाले साधारण लोग और शासक। जाहिर है, यीशु के कृत्यों का परिणाम है उनका सूली पर लटकाया जाना, लेकिन वे कृत्य क्या हैं, इसे जानना इस फैसले के बारे में कोई भी राय बनाने के पहले आवश्यक होगा। उससे जुड़ा दूसरा प्रश्न है, क्या यीशु को सूली पर टांगने का निर्णय करने वाले नहीं जानते थे कि वे जो कर रहे हैं, वह क्या है और इसे वे क्यों कर रहे हैं। उन्हें सूली देने वाले सिपाही इस फैसले के कितने भागीदार हैं और उन्हें इसे लेकर अपनी जवाबदेही का अहसास है या नहीं। जो तमाशबीन हैं, वे कितने असहाय हैं और उनकी भागीदारी किस स्तर की है? जो यीशु की खिल्ली उड़ा रहे हैं, वे शासकवर्ग के सदस्य हैं।

बाइबल या ईसाई धर्म की परंपरा से गैरवाकिफ कोई भी पाठक सिर्फ इस उद्धरण के आधार पर नतीजा निकाल सकता है कि सलीब पर लटकाए जाने के फैसले के लिए असली जिम्मेदार यही हैं। लेकिन सिपाही और तमाशबीन?
यीशु फिर जो ईश्वर को यह कह रहे हैं कि वह उन्हें सूली देने वालों को इसलिए क्षमा कर दे कि वे नहीं जानते कि वे क्या कर रहे हैं, तो उसमें नहीं जानने का आशय क्या है!

इससे नितांत भिन्न मार्क्सीय परंपरा से परिचित लोगों को मालूम है कि मार्क्स ने यह कहा है कि श्रम के शोषण से मुनाफा कमाने वाली पूंजीवादी व्यवस्था के अंत से मात्र सर्वहारा या श्रमिकों की मुक्ति नहीं होगी, बल्कि उसमें बूर्ज्वा वर्ग की भी मुक्ति है। तात्पर्य यह कि बूर्ज्वा नहीं जानता कि श्रमिकों या सर्वहारा को बंधन में डाल कर वह स्वयं को भी कैद कर रहा है। तो क्या पूंजीपति या बूर्ज्वा अपने निर्णयों का अभिप्राय या आशय नहीं जानता? फिर क्या यीशु का उदाहरण सामने रखते हुए पूंजीपतियों को भी उनके कृत्यों के लिए क्षमा करने के लिए कहा जा सकता है? इन दो प्रसंगों के सहारे क्या हम इस नतीजे पर पहुंचें कि अपराधी अपराध इसलिए करता है कि वह उसके बारे में या उसके पूरे फलितार्थ के विषय में नहीं जानता?

यह ‘नहीं जानना’ क्या है? अनभिज्ञता, अज्ञान के प्रसंग में न जानने वाले पात्र की भूमिका क्या है? यानी क्या यह अनभिज्ञता निष्क्रिय है या सक्रिय? इच्छित है या अनिच्छित? इसकी जांच कैसे की जाएगी?

ये मानव-इतिहास के चिरंतन प्रश्न हैं, लेकिन बीसवीं सदी में इनसे अलग-अलग देशों के लोगों को इनसे अनेक बार टकराना पड़ा है। क्या जर्मनी के लोग यहूदियों के कत्लेआम के बारे में अनभिज्ञ थे? क्या तुर्की के मुसलमान बीसवीं सदी के आरंभ में आर्मीनियाई ईसाइयों के कत्लेआम से अनभिज्ञ थे? क्या सोवियत संघ के पार्टी-सदस्य लेनिन और स्तालिन के अत्याचारों से अनभिज्ञ थे?

उससे भी आगे, जैसा विक्टर सर्ज ने स्तालिन के सोवियत संघ में होने वाले जुल्म का ब्योरा देते हुए लिखा है: जिस वक्त मास्को में रवींद्रनाथ टैगोर का जिस स्थान पर अभिनंदन हो रहा था, उस समय ठीक उनके अभिनंदन-स्थल के नीचे बने तहखाने में स्तालिन की खुफिया एजेंसी के लोग सर्ज जैसे जाने कितने लोगों को यंत्रणा दे रहे थे। दूसरे शब्दों में, टैगोर जैसे ज्ञानियों की इस अनभिज्ञता की निर्दोषिता पर सर्ज सवाल उठा रहे हैं। या वे पूछ रहे हैं कि क्या यह टैगोर जैसे बुद्धिजीवियों की जवाबदेही नहीं थी कि वे जानें कि सोवियत संघ में उस वक्त दरअसल क्या हो रहा था!

अनभिज्ञता, इस प्रकार सोचने पर, या विक्टर सर्ज के अनुसार, हमारी सुविधा नहीं रह जाती। वह हमें किसी छूट की वजह नहीं बन सकती। क्या ब्राह्मण जब अंत्यज बनाने का सिद्धांत गढ़ रहे थे, वे अपने कर्म के अभिप्राय के बारे में अनभिज्ञ थे? जब पुरुषों ने स्त्रियों को रहस्यमय बता कर उनकी दासता का पूरा शास्त्र ही रच दिया तो वे इसके फलितार्थ को लेकर अनभिज्ञ थे?

अनभिज्ञता के कई रूप हो सकते हैं। ‘साइकोलॉजी टुडे’ में सुजन स्मॉली तीन प्रकार की अनभिज्ञता का प्रस्ताव करती हैं, साधारण अनभिज्ञता, वरी हुई अनभिज्ञता और उच्चतर अनभिज्ञता। पहली जानने से पहले की अवस्था है, उसमें जानने की प्रेरणा हो सकती है। इसमें कुछ बुरा नहीं। तीसरी तरह की अनभिज्ञता वैसी वस्तुओं के प्रसंग की है, जो रहस्यात्मक हैं, साधारण प्रज्ञा के लिए दुर्बोध्य भी। लेकिन दूसरी या बीच की अवस्था हमारे लिए विचारणीय है। यह इच्छित है, जानी-बूझी है, इसमें न जानने की इच्छा या निर्णय निहित है। जानने से गुरेज या उससे बचना अपने-आप में निर्दोष निर्णय या कृत्य नहीं हो सकता। क्या अल्बर्ट आइन्स्टीन कह सकते थे कि उन्होंने ऊर्जा संबंधी जो आविष्कार किया, उसके विध्वंसक प्रयोग की संभावना को लेकर वे अनभिज्ञ थे? क्या आज के परमाणु ऊर्जा प्रयोगों में लगे वैज्ञानिक उसके उपयोगों की पर्यावरणीय या मानवीय कीमत के बारे में अनभिज्ञता का अधिकार रखते हैं?

वरण की गई अनभिज्ञता से जुड़ी हुई अवधारणा वैधीकृत या स्वीकृत अनभिज्ञता की है। गायत्री स्पीवाक चक्रवर्ती इसका प्रस्ताव करती और बताती हैं कि ज्ञान निर्माण में अंतर्निहित शक्ति-समीकरण को समझे बिना इसे समझना कठिन है। पहले से शक्तिशाली सामाजिक या सांस्कृतिक समूह के लिए कुछ अनभिज्ञताएं अपेक्षित और वैध हैं। इस अनभिज्ञता के आधार पर ही उनके वर्चस्व का महल खड़ा रह सकता है। जैसा सतीश देशपांडे कहते हैं, जातिगत भेदभाव के बारे में ‘उच्चवर्ण’ के लोगों की ‘अनभिज्ञता’ के बिना समाज में उनकी सुविधाजनक स्थिति का जारी रहना संभव नहीं। दिलचस्प बात यह है कि जातिगत भेदभाव को लेकर अनभिज्ञता की कोई सुविधा ‘निम्न वर्ण या जाति’ के लोगों को नहीं है!

किसी समाज को अगर समझना हो तो उसकी वरण की हुई अनभिज्ञता को जानना आवश्यक है। वह क्या नहीं जानना चाहता या क्या जानने से बचना चाहता है? इसके साथ ही, किन चीजों को जानना उचित या वरेण्य नहीं माना जाता? सरकारें जब गोपनीयता का सिद्धांत लागू करती हैं तो क्यों? बच्चों को कुछ बातों को उचित न मान कर उनसे अनभिज्ञ रखने का शिक्षाशास्त्रीय सिद्धांत उनके भले के लिए हैं या वयस्क सत्ता के लिए?

और अगर अनभिज्ञता इतनी ही निर्दोष है तो उसे दूर करने के प्रयासों का स्वागत क्यों नहीं होता या उनका प्रतिरोध क्यों होता है? अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के प्रोफेसरों का यह कहना मान लें कि उन्हें तो जाति का पता ही नहीं था, लेकिन इसकी व्याख्या कैसे करें कि उसी समय जब उन्हें उनके परिसर में अनुसूचित जनजाति समूह के छात्रों के साथ भेदभाव की जानकारी दी जाने लगी, तो उन्होंने इसे परिसर की समरसता को भंग करने के षड्यंत्र के रूप में देखा।

अनभिज्ञता इस प्रकार एक नैतिक और राजनीतिक निर्णय का परिणाम है। अधिक व्यापक अर्थ में यह अपनी मानवीय जिम्मेवारी से पलायन है। जान लेने से अपनी पूर्व-धारणाओं में परिवर्तन करने की मांग उठने लगेगी। फिर उससे जुड़ी सहूलियतें छिनने का खतरा! यह झंझट कौन मोल ले? इसी कारण वर्चस्वशाली समुदाय असुविधाजनक जानकारी या अनभिज्ञता को ‘राष्ट्रविरोधी’, ‘समाजविरोधी’, यहां तक कि मानवता विरोधी ठहरा देते हैं। आश्चर्य नहीं कि सच्चर समिति की रिपोर्ट को, जो मुसलिम समुदायों के बारे में राष्ट्रीय अनभिज्ञता दूर करने का एक प्रयास था, देश तोड़ने वाला बताया गया।

अनभिज्ञता इस प्रकार कोई सुरक्षा नहीं है। यह कह देना बच निकलने के लिए काफी न होगा कि हम नहीं जानते। इसका उत्तर आज या कल देना होगा कि हम कुछ क्यों नहीं जानते या क्यों नहीं जानना चाहते।

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