संजय गौतम
मधु कांकरिया के कहानी संग्रह युद्ध और बुद्ध से हम उन सवालों के प्रति संवेदनशील होते हैं, जिन्होंने हमारी जिंदगी को पूरी तरह घेर लिया है। तेरह कहानियों के इस संग्रह में सत्ता और आतंक के अमानवीय खेल, कॉरपोरेट द्वारा रचे गए अत्यंत महत्त्वाकांक्षी मायावी संसार, संवेदनहीन सत्ता तंत्र के कारण उपजी विद्रूपताओं से जूझते पात्रों का संसार बहुत करीने से, अंत:प्रवाही भाषा विन्यास में रचा गया है। कहानियों में घटनाएं ज्यादातर अंतर्मन की छाया के रूप में प्रवाहित होती रहती हैं।
‘युद्ध और बुद्ध’, ‘बस दो चम्मच औरत’, और ‘काला चश्मा’ कहानियों में कश्मीर के आतंकवाद की छाया है। ‘युद्ध और बुद्ध’ कहानी में एक ऐसे मेजर के जीवन में घटी मुठभेड़ की घटना के जरिए एक आतंकी के परिवार के जीवन की उथल-पुथल को रेखांकित किया गया है, जो किसी समय सेना में जाने का सपना देखा करता था। किसी परिवार के बड़े लड़के के आतंकवादी हो जाने के बाद उस परिवार पर कैसे जुल्म ढाए जाते हैं, उसके भाई-बहन, माता-पिता के साथ किस तरह मानसिक-शारीरिक उत्पीड़न का खेल खेला जाता है, कैसे मां पर दबाव बना कर उसके आने की सूचना प्राप्त की जाती है, फिर किस तरह घेर कर उसे मुठभेड़ में मार दिया जाता है, यह सब तरतीब से इस कहानी में उभरता है। कहानी के केंद्र में उस मां की पीड़ा है, जिसे अपने बच्चे के आने की सूचना खुद देनी पड़ी।
कहानी में मेजर के मन में युद्ध के साथ-साथ बुद्ध भी चलते रहते हैं, जबकि वरिष्ठ बार-बार यही कहते हैं कि युद्ध और बुद्ध साथ-साथ नहीं चल सकते। उन्हें समाज निर्माण के लिए नहीं, बल्कि आतंक के बरक्स ऐसा आतंक पैदा करने के लिए भेजा गया है, जिससे कोई आतंकी बनने का साहस न कर सके। इस कहानी को पढ़ते समय बरबस परमाणु परीक्षण के समय सत्ता द्वारा दिए गए ‘बुद्ध मुस्कराए’ नारे की याद ताजा होती है। ‘मुस्कराते हुए बुद्ध’ का असली रूप सैन्य बल की कार्रवाई में दिखता है। इसी तरह धोखे से कराई गई एक और हत्या की घटना ‘काला चश्मा’ के सैन्य अधिकारी को बेधती रहती है।
लगभग इसी पृष्ठभूमि पर ‘बस दो चम्मच चीनी’ कहानी भी रची गई है। इसमें बड़े भाई मेजर के शहीद हो जाने पर उस छोटे भाई को केंद्रीयता प्राप्त होती है, जो अपना पूरा जीवन भाई के परिवार को समर्पित कर देता है। भतीजे को भी सैन्य अधिकारी बनाना चाहता है। वह विवाह नहीं करता, लेकिन भीतर-भीतर उसे जीवन में मिठास की तलाश रहती है। इस भाव को लेखिका ने डायरी के माध्यम से कौशल के साथ खोला है, जिसे उसकी भाभी ही पढ़ती है। वह मृत्यु शैया पर पड़े हुए रुग्ण देवर के माथे को चूमते हुए उसकी आत्मा को चूमने का अहसास करती है। उसने देवर के हाथ को अपने हाथ में लेते हुए उसकी मौत को महसूस किया। यह सोचा कि वह उसकी सहायता करेगी, कि वह अतृप्त आत्मा की तरह नहीं मरेगा, बल्कि शांति से मर सकेगा। कहानी का अंतस अत्यंत उजला है।
कॉरपोरेट पूंजी द्वारा रचे गए मायावी संसार की पृष्ठभूमि पर कई कहानियां हैं। ‘घाटा’, ‘मिसफिट’, ‘अठारह साल का लड़का’, ‘उसे बुद्ध ने काटा’ आदि। ये सभी कहानियां अधिकतम धनार्जन की मारी पीढ़ी के मन के खोखलेपन को अनेक कोणों से रेखांकित करती हैं। कहीं अपनी व्यावहारिकता से माता-पिता को अवसन्न कर देने वाले पुत्र-पुत्री हैं तो कहीं नींद में भी रुपए की भाषा बोलने वाले अत्यंत सफल व्यक्ति के मन की टूटन। इस दृष्टि से लेखिका ने बुद्ध का अत्यंत सार्थक उपयोग किया है, ‘उसे बुद्ध ने काटा’ कहानी में।
महज उनतीस वर्ष की उम्र में सफलता के शीर्ष पर पहुंचे युवा का मन सारी चीजों से उदासीन हो जाता है। मां उसे कश्मीर की वादियों में ले जाती है, ताकि जीवन के प्रति उसका लगाव लौट आए, लेकिन उसे कोई फर्क नहीं पड़ता। एक दिन वह मां से अपने मन की बात कह जाता है, ‘ममा क्या तुम्हें नहीं लगता कि हर चीज का कोटा बंधा होता है। मौज-मस्ती का भी। ममा मुझे लगता है कि मैंने मौज-मस्ती का कोटा पूरा कर लिया है। शायद मैंने अपने हिस्से से कुछ ज्यादा ही ले लिया है। बुद्ध ने कहा था कि एवरीथिंग इन एक्सेस इज पाइजन तो ममा, मेरे पास तो सभी कुछ एक्सेस है। चर्बी ज्यादा, पैसा ज्यादा, खर्च ज्यादा, रफ्तार ज्यादा, हो-हल्ला ज्यादा, घूमना ज्यादा, काम ज्यादा, तनाव ज्यादा, प्रेशर ज्यादा। अब तुम्हीं बताओ ममा, इतने एक्सेस का भार यह मशीन कैसे संभाले।’ मां को लगता है कि बुद्ध को पढ़ने से बेटे पर यह साइड इफेक्ट हुआ है, लेकिन कार्यालय का एक सहकर्मी बताता है कि यह टारगेट का साइड इफेक्ट है। इस तरह कहानी में टारगेट और बुद्ध के बीच फंसी पीढ़ी की अनिवार्य रुग्णता उजागर होती है। बुद्ध के माध्यम से व्यंग्यार्थ मारक हो जाता है।
‘पॉलिथिन में पृथ्वी’ महत्त्वाकांक्षाओं के कारण भ्रूण हत्या से लेकर जीव हत्या तक की प्रवृत्ति को वृहद आयाम में पकड़ती है। भ्रूण हत्या के लिए मजबूर कर दी गई स्त्री का अबोल हो जाना, पत्थर हो जाना, मेंटल हॉस्पिटल में भर्ती हो जाना और फिर मनोचिकित्सक के प्रयास से एक प्रवाह में सारी घटनाओं को बताते हुए पति के प्रति नफरत व्यक्त करना, यह सब कहानी में सिलसिले से व्यक्त होता है और कहानी को एक सकारात्मक मोड़ मिल जाता है। जीवन, चाहे वह कबूतर का जोड़ा हो या कन्या भ्रूण, को पॉलिथिन में भर कर फेंकने की प्रवृत्ति को लेखिका ने विस्तार देते हुए ‘पॉलिथिन में पृथ्वी’ का रूप दिया है, जिससे कहानी की व्यंजना बढ़ जाती है।
‘चिड़िया ऐसे मरती है’ और ‘चिड़िया ऐसे जीती है’, एक जैसे शीर्षक की कहानियां हैं, लेकिन दोनों का धरातल अलग है। ‘चिड़िया ऐसे मरती है’ में बाजार और आर्थिक स्थिति के तले प्रेम की मृत्यु है, तो ‘चिड़िया ऐसे जीती है’ में स्त्री का एकदम भिन्न रूप। एकदम भिन्न युक्ति से स्त्री ने अपने प्रति काम वासना से भरे पुरुष को परास्त कर सड़क पर घूमने के लिए विवश कर दिया। ‘काली चील’ में अफसरशाही का खौफ दिखाया गया है, चेखव की कहानी एक क्लर्क की मौत को याद करते हुए।
‘नंदीग्राम के चूहे’ भूमि अधिग्रहण की समस्या से लेकर धनपशुओं को खाद-पानी देने वाले लोगों की पड़ताल करती है। नंदीग्राम कॉरपोरेट के लिए सत्ता तंत्र द्वारा ढाए गए जुल्म का बड़ा प्रतीक है, वह भी साम्यवादी सत्ता तंत्र द्वारा। सत्ता तंत्र के लिए जनता चूहे से ज्यादा की हैसियत नहीं रखती, इसलिए उस पर कोई भी प्रयोग किया जा सकता है। पहले से जेल में बंद ऐसे कैदी के माध्यम से, जिसने अपने मित्र मालिक को पत्थर से मार कर खत्म कर दिया है, लेखिका समस्या की जड़ तक पहुंचती और संघर्ष की भूमिका देखती है।
संग्रह की सभी कहानियों में परिवेश का उद्घाटन भीतर की आंखों से हुआ है। वाचक उसी वर्ग, उसी परिवेश का है, जिसकी कथा कह रहा है। एक तरह की लाचारी, दीनता, अवसन्नता का भाव बना रहता है। कहीं प्रचलित धारणाओं से अलग एकदम नई युक्तियों का प्रयोग है।
लंबी होने के बावजूद कहानियों में उबाऊपन नहीं है। मन की दौड़ के साथ छाया की तरह भाषा प्रवाहित होती है। पिछले वर्षों में जो उपभोक्ता और कमाऊ दिमाग निर्मित हुआ है, उसका उत्कर्ष भी है, खोखलापन भी है और उसकी असहायता भी। कहानियों को पढ़ते हुए इस संसार का एक गहन अनुभव होता है। विश्वास बनता है कि हम सत्ता, ताकत, पैसे के खेल में कितना ही आगे बढ़ जाएं, बुद्ध हमारा पीछा नहीं छोड़ेंगे, वे हमें काटते रहेंगे, हमारी आत्मा में प्रवेश कर हमें मनुष्यता की ओर लौटने के लिए कचोटते रहेंगे।
युद्ध और बुद्ध: मधु कांकरिया; ज्ञानपीठ प्रकाशन, 18, इंस्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड, नई दिल्ली; 200 रुपए।
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