मानवेंद्र

सन 1955 के प्रथम माह की अंतिम तारीख को एक बाईस वर्षीय तरुण ने अपने मनोभावों का लिप्यंकन आरंभ किया। किसी विशेष उद्देश्य के साथ नहीं; दिल में उठती और दिमाग में घुमड़ती बातों को जब, जैसे, जो रूप मिला, उन्हें वह कोरे कागज पर आंकता चला गया। और यह ‘अंकन’ धीरे-धीरे वर्ष-पर-वर्ष पार करते हुए दशकों की यात्रा तक चल निकला। पुस्तक धीरे-धीरे, धीरे-धीरे इसी यात्रा का प्रथम पड़ाव है और वह तरुण रचनाकार है- अजितकुमार, जो तभी से निरंतर सक्रियता के साथ सृजनात्मकता में संलग्न है। दिनांक के साथ दर्ज हुए ये भाव हालांकि डायरी की शक्ल में लिखे गए हैं, पर इनमें डायरी वाली रोजनामचे जैसी बात नहीं है, बल्कि प्रत्येक अंश अलग और विशेष है।

पहले दिन से ही इस युवक में रचनात्मक बेचैनी महसूस की जा सकती है। फिर, इस युवा में केवल अपनी हांकने की धुन नहीं है। उसका कोरा, रचनाकुल मन रेल के डिब्बे में जनवाणी से संस्कार लेने को भी उमगता है। इस भावी सर्जक की उत्कंठा 7 दिसंबर, 1958 को ही संकेत कर देती है कि उसका मार्ग क्या होगा: ‘वे चरण कहां हैं, जिनकी रज लेकर मेरा जीवन निष्कलुष होना है। वह दृष्टि कौन-सी है, जो मुझ पर पड़ते ही मेरा समस्त पाप हर लेगी। वे हाथ किसके हैं, जो मेरी यातना को मिटाएंगे? उन्हीं को खोजता-खोजता खीझ उठता हूं कभी, तो उसे ‘गुस्सा’ मत समझो। वह अधैर्य की विकल पुकार है।’

वर्ष 1959 में दर्ज तीन दिनों का अंकन लेखक की परिपक्वता और मानसिक प्रौढ़ता का परिचय देता है। वह लोगों को बखूबी पढ़, समझ और आंक रहा है। पुस्तक में दर्ज ब्योरे चूंकि तात्कालिक रूप में अंकित हुए हैं, इसलिए इनमें अपने समय की प्रवृत्तियां, लोग और घटनाएं इतनी स्पष्टता से दृष्टिगोचर होते हैं कि पुराने से पुराना प्रसंग भी एक नई ताजगी के साथ सामने आता है। जैसे 29 मार्च, 1968 को पंतजी ने जो तथ्य अजितकुमार पर उद्घाटित किए, उनसे बहुत सारे लोग अभी तक अनभिज्ञ हैं: ‘पंतजी ने बताया कि उन्होंने पैसे के लिए इंडियन प्रेस की ‘सरस्वती सिरीज’ में अनेक पुस्तकों का अनुवाद किया था और काफी होमवर्क किया था।’ आर्थिक तंगी के इसी दौर में पंतजी ने कालाकांकर के कुंवर सुरेश सिंह के लिए उनकी पुस्तकों के लिए पशु-पक्षियों से लेकर ‘सेक्स’ तक पर काफी अध्ययन करके सामग्री एकत्र कर दी थी।

इसी प्रकार, राजेंद्र यादव ने एक बहुत दिलचस्प और अजितकुमारजी के लिए महत्त्वपूर्ण बात बताई थी: ‘उसका संबंध अम्मा (सुमित्रा कुमारी सिनहा) के पहले कहानी संग्रह ‘अचल सुहाग’ से था। राजेंद्र ने बताया कि उसकी शुरू की अधिकतर कहानियां- लगभग पचास-साठ कहानियां- ‘अचल सुहाग’ की पहली कहानी को पढ़ने के क्रम में लिखी गई हैं। राजेंद्र के लिए यह एक तरह का क्रम-सा बन गया था कि जब भी वह कोई नई कहानी लिखना चाहता और उसे कोई विचार नहीं सूझता था तो वह ‘अचल सुहाग’ लेकर बैठ जाता था और पहली कहानी पढ़ते-पढ़ते ही उसे कोई ‘आइडिया’ सूझ जाता था और वह अपनी कहानी लिखना शुरू कर देता था। नतीजा यह हुआ कि ‘अचल सुहाग’ तो वह कभी पूरा नहीं पढ़ सका, लेकिन उसे पढ़ने के क्रम में उसकी पचासेक कहानियां जरूर लिख डाली गर्इं… राजेंद्र ने कहा- ‘इट हैड आलमोस्ट बिकम ऐन आॅबसेशन विद मी।’ यह तथ्य ‘अचल सुहाग’ के आलोक में राजेंद्र यादव की आरंभिक कहानियों के पुनर्पाठ की आवश्यकता निरूपित करता है, खासकर शोधार्थियों के लिए।

अजितकुमार इतने यथार्थवादी हैं कि ईश्वर जैसी संदेहास्पद अवधारणा और धर्म, भक्ति का लोगों पर असर देख कर वे बार-बार आश्चर्य और कुतूहल में पड़ जाते हैं, मगर उससे भी ज्यादा चकित, विस्मित और स्तंभित वे अपने पाठकों को कर देते हैं, जब अपने स्वप्नों का वर्णन करते हैं। इस पुस्तक की चर्चा तब तक अधूरी रहेगी जब तक इसमें वर्णित स्वप्नों का जिक्र न हो। अगर सपनों के लिहाज से देखा जाए तो अजितकुमार बहुत असाधारण, विचित्र, बल्कि अलौकिक किस्म के स्वप्नदर्शी हैं। उनके देखे सपनों में मुख्य तीन स्वप्न हैं- शांत, करुण और अद्भुत- (इस अंतिम को पाठक ‘भय’ में भी शामिल कर सकते हैं)। तीनों अपने-अपने रस में पूरी तरह पगे और अपने-अपने ढंग से लोमहर्षक।

3 जनवरी, 1960 को स्वप्न में अपने बहनोई और घनिष्ठतम मित्र ओंकारनाथ श्रीवास्तव के साथ किसी अलौकिक स्थान की अद्भुत यात्रा का वर्णन है। उसी का एक अंश: ‘और इसके बाद मैंने अपने जीवन का सबसे अनुपम दृश्य देखा। मैंने देखा कि सामने एक स्वर्गीय ज्योति है, जो आकाश से नहीं, बल्कि पहाड़ के भीतर से निकलती हुई मालूम होती है। उस ज्योति के स्रोत का पता नहीं चलता, पर उसके प्रकाश में नहाया हुआ एक विशाल और विस्तृत महल आंखों के आगे है। ‘जैसे-जैसे हम सीढ़ियां चढ़ते गए यह दृश्य मुखर होता गया और जब हम महल की देहरी पर पहुंचे तो मुझे सहसा विश्वास न हुआ कि मैं इस पृथ्वी पर हूं या स्वर्गलोक में।’
यह स्वप्न-वर्णन अजितकुमार के सहज, अविरल प्रवाहमय गद्य का खूबसूरत नमूना है। इस जादुई स्वप्न-यात्रा के आदि से अंत तक पाठक अद्भुत रस का अवगाहन करता है।

17 सितंबर, 1968 को वर्णित स्वप्न बहुत मार्मिक है। लेखक ने अपने पिता को (जो तब दिवंगत हो चुके थे) पीछे छोड़ कर, मित्रों-सहित सपरिवार घूमने निकल जाने और पीछे अशक्त पिता के लड़खड़ा कर बालू के ढेर पर गिरने और उनकी कातर दृष्टि का मर्मवेधी वर्णन किया है, जो दिल दहला देता है।
24 दिसंबर, 1970 को दर्ज स्वप्न उस दौर में लिखे जा रहे साहित्य या किसी ‘कला’ फिल्म जैसा है, जिसमें मुर्दे अपनी मौत की घोषणा मरघट में सुनते हैं। विचित्र बात यह है कि खुद लेखक ने इस विस्तृत स्वप्न में अपनी अशरीरी अवस्था का अनुभव किया है।

असाधारण और असामान्य स्वप्न देखना अपने आप में एक विशेष बात है, लेकिन उससे भी बढ़ कर है- उसे साझा करना, क्योंकि विशेषज्ञ विद्वान उनका विश्लेषण करके व्यक्तित्व और अवचेतन की गुह्यतम गुहाओं के भेद प्रकट कर सकते हैं। इसलिए ऐसे स्वप्नदर्शियों की रुसवाई भी हो सकती है, हंसाई भी। पर अजितकुमारजी का अंदाजे-बयां ऐसा है कि पढ़ने-सुनने वाला रौ के साथ बहता चला जाता है। उनके लेखन की हार्दिकता से पाठक, लेखक के साथ अपनापन बना लेता है। उनके स्वप्न मनोविश्लेषकों, परामनोवैज्ञानिकों और संबंधित क्षेत्रों के विशेषज्ञों के अध्ययन का रोचक विषय हो सकते हैं।

30-31 दिसंबर 1970 आने तक लेखक की गहन अंतर्दृष्टि और भारतीय मानस पर मजबूत पकड़ ने उसे उस ऊंचाई पर स्थापित कर दिया है, जहां से वह सामयिक परिस्थितियों और राजनीतिक और सामाजिक प्रवृत्तियों को उनकी सारी ऊंच-नीच के साथ हस्तामलकवत देखता है। इन लेखों की सबसे अनूठी विशेषता लेखक की पेशीनगोई है, जहां वह समय और परिवेश का तार्किक विश्लेषण करते हुए आगामी तीस वर्षों की भविष्यवाणी करता है, जो आश्चर्यजनक रूप से सटीक और भविष्य पर खरी उतरने वाली सिद्ध होती है। 30-31 दिसंबर, 1970 को लिखे ये लेख लेखक की सूक्ष्म अवलोकन क्षमता का प्रमाण हैं।

‘धीरे-धीरे, धीरे-धीरे’ अजितकुमार की चार खंडों की अंकन शृंखला का प्रथम खंड है, जिसका शीर्षक है- ‘आ वसंत रजनी’। चारों खंडों को एक-एक प्रमुख कवि की वसंत विषयक कविता से शीर्षक दिया गया है। आशा है, आगामी खंडों में भी ऐसी सामग्री मिलेगी, जो पाठकों को मन, बुद्धि और चेतना से समृद्ध करेगी।

धीरे-धीरे, धीरे-धीरे: अजितकुमार; सस्ता साहित्य मंडल प्रकाशन, एन-77, कनॉट सर्कस, नई दिल्ली; 90 रुपए।

फेसबुक पेज को लाइक करने के लिए क्लिक करें- https://www.facebook.com/Jansatta

ट्विटर पेज पर फॉलो करने के लिए क्लिक करें- https://twitter.com/Jansatta