सुनील कुमार पाठक
राजीव रंजन गिरि की पुस्तक अथ- साहित्य: पाठ और प्रसंग के लेखों से उनके अध्ययन की गहराई, वैचारिक प्रौढ़ता; समय, समाज और संस्कृति की समझ का पता चलता है। इस पुस्तक के पहले खंड में भक्तिकाल से जुड़े चार लेख काफी महत्त्वपूर्ण हैं। राजीव ‘भक्ति आंदोलन का अवसान और अर्थवत्ता’ में लिखते हैं: ‘हिंदी के कई बड़े आलोचकों में भक्तिकाल की व्याख्या के साथ एक और समस्या दिखती है। यह समस्या है, किसी एक कवि के आधार पर बनी दृष्टि के प्रतिमान पर अन्य कवियों को देखने की प्रवृत्ति। दूसरे शब्दों में, तुलसीदास को केंद्र में रख कर विकसित आलोचना-प्रविधि कबीरदास, सूरदास, जायसी, मीरांबाई आदि के साथ न्याय नहीं कर सकती।’ इस तरह वे आचार्य शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी, रामविलास शर्मा आदि के मानदंडों की प्रासंगिकता पर नए सिरे से विचार की जरूरत रेखांकित करते हैं।
‘भक्ति आंदोलन का अवसान और अर्थवत्ता’ लेख में भक्तिकाव्य के अध्येताओं के वैचारिक अंतर्विरोधों का निष्पक्ष मूल्यांकन किया गया है। मुक्तिबोध, रांगेय राघव, मैनेजर पांडेय जैसे आलोचकों और हरबंस मुखिया, इरफान हबीब, सतीश चंद्र जैसे इतिहासकारों के दृष्टिकोण का गंभीरता से अध्ययन करते हुए राजीव लिखते हैं: ‘भक्ति आंदोलन के दौरान हुए वैचारिक-सांस्कृतिक संघर्ष की कई स्मृतियां हमारे काम की हैं। उसके जरिए हमें आज के खतरों को समझने में मदद मिलेगी।’
‘अस्मितावादी अतिचार से मुखामुखम’ शीर्षक लेख में राजीव ने हिंदी के दो मूर्धन्य आलोचकों- रामचंद्र शुक्ल और हजारी प्रसाद द्विवेदी के विचारों के अनुशीलन के क्रम में लिखा है कि ‘आचार्य शुक्ल को कबीर की कविता उपदेश देती प्रतीत होती थी, भावोन्मेश करती नहीं।… आचार्य द्विवेदी के लिए कबीर वाणी के डिक्टेटर थे… पर उनकी कविता भक्ति-साधना का ‘बाई-प्रोडक्ट’ भर थी।’ इसी तरह स्त्री विषयक अवधारणा को लेकर कबीर पर होने वाले हमलों से उनका बचाव करने वाले पुरुषोत्तम अग्रवाल जैसे समीक्षकों से राजीव सहमत नहीं दिखते। उनका प्रश्न है: ‘अगर सभी पुरुष एक समान महत्त्व के हैं तो ऐसी सभी कविताओं में ‘मेटाफर’ के तौर पर भक्त को स्त्री और ईश्वर को पुरुष बना कर क्यों प्रस्तुत करते हैं? जबकि सूफी संवेदना में ईश्वर को स्त्री और भक्त को पुरुष के तौर पर देखने का रिवाज मौजूद था। कबीर के इस विलोमी चयन का सांस्कृतिक आशय क्या है?’
पुस्तक के दूसरे खंड ‘स्वत्व निज भारत गहै’ में छह लेख हैं, जो ‘नवजागरण’ पर केंद्रित हैं। भारतीय जनमानस की दुविधा को परिलक्षित करते हुए राजीव पूछते हैं: ‘ब्रिटिश सत्ता ने भारत में शोषण के लिए जो संरचना तैयार की थी, उसकी शिनाख्त करने के बजाय भारतीय बौद्धिक इसे सुखकर मान रहे थे। आखिरकार, उपनिवेश को बनाए रखने के मकसद से निर्मित ढांचे के भीतर भारतवासी सुखी कैसे हो सकते थे?’
‘सघन तम की आंख’ शीर्षक अध्याय में प्रेमचंद की रचनाओं के माध्यम से उनकी दलित विषयक दृष्टि, किसानों-श्रमिकों के प्रति अवधारणा आदि को देखने-परखने का प्रयास है। प्रेमचंद के बाल-साहित्य पर भी एक लेख में विचार हुआ है।
‘कथा-प्रांतर’ में लाला श्रीनिवासदास, जैनेंद्र, संजीव और काशीनाथ सिंह की कथा-भूमि की पड़ताल की गई है। काशीनाथ सिंह के ‘काशी का अस्सी’ को ‘गल्प’ की परंपरा में स्वीकार करने की वकालत करते राजीव लिखते हैं: ‘अगर गल्प को उपन्यास की वैकल्पिक संज्ञा मान लिया जाए तो उत्तरशती में लिखा गया ‘काशी का अस्सी’ उस जीवंत परंपरा के विकास की संभावना जगाता है।’
‘हीरा भोजपुरी का हेराया बाजार में’ शीर्षक लेख में संजीव के उपन्यास ‘सूत्रधार’ की बड़ी सूक्ष्मता और बारीकी से समीक्षा की गई है। इसमें ‘भोजपुरी के शेक्सपियर’ कहे जाने वाले लोक कलाकार, कवि-नाटककार भिखारी ठाकुर के चरित्र को ‘सूत्रधार’ में जिस तरह संयोजित किया गया है, उसको लेकर राजीव रंजन ने अपनी कुछ गंभीर आपत्तियां दर्ज करार्इं और कुछ तल्ख टिप्पणियां की हैं। राजीव की टिप्पणियों में बेबाकी, निर्भीकता और निष्पक्षता है।
‘जहां मूल्यवान हैं शब्द’ शीर्षक अध्याय में कविता को लेकर विचार-विनिमय है। ‘पूर्वग्रह’ के अज्ञेय पर एकाग्र अंक की समीक्षा करते हुए राजीव रंजन की टिप्पणी काबिलेगौर है: ‘अज्ञेय की प्रगतिशीलता किसी मंगनी के सांचे में ढली प्रगतिशीलता नहीं है। उनके कवित्व का सर्वप्रथम सरोकार इस जड़-चेतन सृष्टि की अर्थवत्ता और सुंदरता से, उसमें मनुष्य की जगह पहचानने और चेतना की आत्मप्रतिष्ठा से है।’ ‘समकालीनों पर शमशेर’ भी इस ग्रंथ का एक महत्त्वपूर्ण लेख है।
‘देखना दिखन को’ खंड में ‘दूसरी परंपरा के सर्जक’, ‘कहें रामविलास खरी-खरी’, ‘नामवर की कसौटी’ और ‘हिंदी आलोचना का विकास और व्याप्ति’ जैसे कुछ महत्त्वपूर्ण लेख संकलित हैं। दूसरी परंपरा के सर्जक के रूप में हजारी प्रसाद द्विवेदी का महत्त्व दर्शाया गया है, जबकि ‘नामवर की कसौटी’ में राजीव स्पष्ट करते हैं कि ‘अनुभूति की गहराई और परिवेश की व्यापकता’ और इन दोनों के बीच का द्वंद्वात्मक संबद्ध रिश्ता नामवरजी की आलोचना का केंद्रीय सूत्र है।’
‘उड़ान की अकुलाहट’ में स्त्री और दलित विमर्श से जुड़े लेख हैं। ‘अबकी जाना बहुरि नहीं आना’ शीर्षक अध्याय दलित और स्त्री आत्मकथाओं पर केंद्रित है।
‘भाषा बहता नीर’ खंड में ‘आओ हिंदी-हिंदी खेलें’ लेख अत्यंत विचारोत्तेजक है। भाषिक विमर्श के इस अध्याय में भोजपुरी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किए जाने की जम कर वकालत है। ‘वैचारिक संघर्ष और विकास की प्रक्रिया’ के तहत खगेंद्र ठाकुर की दो पुस्तकों- ‘आज का वैचारिक संघर्ष और मार्क्सवाद’ और ‘विकल्प की प्रक्रिया’ के बहाने मौजूदा दौर की उन भयावह विडंबनाओं को उजागर किया गया है, जो हमारे मुल्क के जनतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने को ही तहस-नहस करने पर तुली हुई हैं। ‘लोक संस्कृति बरक्स लोकप्रिय संस्कृति’ भी महत्त्वपूर्ण लेख है।
इस पुस्तक में राजीव के आलोचना-कर्म की संभावनाओं के साथ-साथ कुछ सीमाएं भी स्पष्ट हैं। राजीव की समीक्षा-दृष्टि में युवकोचित जिस उत्साह की आवश्यकता अपेक्षित है या जिस तीक्ष्ण वैचारिक प्रहार की जरूरत महसूस की जाती है, उसकी जगह उलटे वे मध्यमार्गी सुलह-सपाटी मुद्रा अख्तियार करते नजर आते हैं। ‘संजीव का सूत्रधार सफल भी है और विफल भी’ जैसे कई वाक्यांश राजीव की आलोचनात्मक दुविधा को सामने लाते हैं। पर संतोष की बात है कि राजीव की आलोचकीय स्थापनाएं अंतत: संवेदनापूर्ण वैचारिक प्रखरता और रचनात्मक निष्पक्षता से संपृक्त हैं।
अथ- साहित्य: पाठ और प्रसंग: राजीव रंजन गिरि; अनुज्ञा बुक्स, 1/ 10206, वैस्ट गोरख पार्क, शाहदरा, दिल्ली, 750 रुपए।
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