रविकांत
लब्ध-प्रतिष्ठ, बहु-पदासीन, बहु-पुरस्कृत और परमादरणीय बुजुर्ग शंभुनाथजी ने आलोचना की नई, ‘बेलीक’, और लाहौल-विला-कूवत ‘समाज वैज्ञानिक’ पारी पर हैरतअंगेज रद्दे-अमल (‘समाज विज्ञान का बिजूका’, 14 जून) पेश किया है। अगर यह बिजूका इतना निर्जीव है तो वे इतने खौफजदा काहे से हैं कि कलम उठाने की जहमत कर डाली? अगर उठाई ही थी तो ठस्स नारे देने और विदेशी पूंजी की साजिश का प्रति-बिजूका खड़ा करने के बजाय कुछ तुक, कुछ तर्क, कुछ विमर्श करते। अंगुली उठाई ही थी तो किसी माकूल बौद्धिक जगह पर रख देते। आसान रास्ता निकाला उन्होंने और चौराहे पर खड़े होकर अंधाधुंध, सेत-मेंत गालियां दे डालीं। इसके अलावा उन्होंने जितने शब्द खर्च किए उनसे उनका घोर अज्ञान ऐसे झांकने लग गया, गोया बकौल मंटो काली स्लेट पर खल्ली से लिखी इबारत।
दुहाई है कि हुजूर को आशिष नंदी और ‘सबाल्टर्नवादियों’ (ध्यान रहे इसमें अनुवाद की कोई झलक नहीं, शुद्ध देसी खयाल है, वैसे ही जैसे चंद हिंदी आलोचकों के लिए मार्क्स तो यहीं पैदा हुए थे, वर्ग-संघर्ष का कवच-कुंडल लेकर! उनका वश चले तो वे उन्हें विष्णु का ग्यारहवां अवतार मान लें।) में कोई फर्क महसूस नहीं होता। यह भी नहीं कि जिनके नाम उन्होंने गिनाए, उनमें से ज्यादातर लोग यहीं रह कर लिख रहे थे, हां पढ़ने-पढ़ाने या शोध करने भले कुछ वक्फे के लिए विदेश जाते रहे हों, खासकर अपनी किताबों की मकबूलियत के बाद। उन्हें इस बात से भी कोई फर्क नहीं पड़ता कि पार्थ चटर्जी ने बेनेडिक्ट एंडरसन से यह सवाल पूछा था कि यह राष्ट्र आखिर किसकी कल्पना की उपज है? जिसका जवाब कल्पना की वृष्टिछाया में पड़ने वाले तमाम फिरके (वर्ग, जाति, लिंग, क्षेत्र, भाषा, आदि) के लोग मुख्तलिफ, गत्यात्मक और रचनात्मक ढंग से दरियाफ्त कर सकते थे।
‘सबाल्टर्न’ पद की शब्दकोशीय परिभाषा में- जिसे दार्शनिक रूपकार्थ में इस्तेमाल कर ग्राम्शी ने ही आजाद कर दिया था- अब तक कैद लोगों को शायद हवा नहीं कि उसकी बांग्ला और हिंदी तर्जुमानी ‘निम्नवर्गीय प्रसंग’ में हुई। वैसे ही जैसे वे नहीं जानना चाहते कि रणजीत गुहा ने एलिमेंटरी ‘आस्पेक्ट्स आॅफ पीजेंट इन्सर्जेन्सी’ में सरकार-साहूकार-जमींदार की त्रिमूर्ति के खिलाफ किसानों की राजनीतिक एकजुटता का लंबा और किंचित रूमानी इतिहास लिखा था। कृषक-चेतना के खंडित वजूद, चेतना-परिपाक और अपेक्षित व्याप्ति के अभाव पर आठ-आठ आंसू बहाए थे।
बहरहाल, जब इस महाकाव्यात्मक किताब की बात निकली है तो एक सत्यकथा सुनिए, जिसे आप लतीफा मान कर हंस सकते हैं। किताब के आने के दस-बारह साल बाद एक हस्सास हिंदी आलोचक को लगा कि इसके संदेश से हिंदी पाठकों को महरूम न रखा जाए। उन्होंने आनन-फानन उसका संक्षिप्त भाष्य करके एक पत्रिका में छपवा दिया। गड़बड़ी महज इतनी हुई कि बगावत में सन्नद्ध किसानी चेतना के जो छह आयाम, लक्षण या गुण रणजीत दा ने चिह्नित किए थे- मसलन, ट्रांसमिशन (स्थान परिवर्तन), निगेशन (प्रतिवाद), टेरिटोरिऐलिटी (क्षेत्रीयता), आदि- उसमें एक नया और जुड़ गया: ‘एपिलॉग’ यानी उपसंहार!
शंभुनाथजी ने ‘प्रतिमान’ और सीएसडीएस पर इतनी कृपा की है कि हम शर्मसार हैं, पर यह भरोसा रखते हैं कि ‘आलोचना’, ‘प्रतिमान’ की नकल नहीं है, न होगी, क्योंकि संजीदा शोध को समर्पित उसका एक गौरवशाली अतीत है, वैसे ही जैसे हिंदुस्तानी नाम की पत्रिका का था, जिसका नाम बेशक है, नामलेवा नहीं। न ही हम किसी सबाल्टर्नवादी मुहिम में शामिल हैं। इतना जरूर है कि हममें से कई लोग इस ज्ञान-धारा के बौद्धिक आंचल में प्रशिक्षित हुए। वक्त के साथ इतने वयस्क तो हुए ही हैं कि आशिष नंदी से आगे सोचने की जरूरत महसूस कर सकें, न कि भारतेंदु, निराला या रामविलास शर्मा की तरह खुदा न करे उनका बुत बना कर पूजने लगें!
मुझे बखूबी याद है कि पिछली सदी में विभाजन पर शोध करते हुए मिली ऐतिहासिक साहित्यिक सामग्री में ‘आधा गांव’ की जैसी दीप्तिमान समीक्षा भगवान सिंह की आलोचना में पढ़ी, वैसी अन्यत्र दुर्लभ थी। या फिर जिस तरह मंटो को आशिष नंदी और वीणा दास ने पढ़ा था, या जिस खुलूस से शरद दत्त-बलराज मेनरा ने संकलित किया था, वह हमारे लिए उतना ही मानीखेज और प्रेरणास्पद था, जितनी सांप्रदायिकता पर चल रही बहसें या शाहिद अमीन, सुमित सरकार या ज्ञान पांडेय की कक्षाएं। यह कहते जाने का कोई हासिल नहीं कि हिंदी-उर्दू साहित्य बहुत खूब है, लेकिन हम हिंदी- नाना शाखा-प्रशाखाओं वाली एक भरी-पूरी जुबान को- साहित्य का पर्याय मानने से इनकार करते हैं। दुनिया में ऐसी एकांगी भूमिका किसी भाषा की न कभी हुई है, न होगी।
साहित्याक्रांत इस ध्वस्त और विकट भाषिक पारिस्थितिकी (कुंवर नारायण) में पिछले दसेक सालों में हमने अपनी तुतलाती ‘अनुवादी’ जबान के लिए अंतरानुशासनिक जमीन बनाई है, कुछ पाठक बनाए हैं, कुछ लेखक खोजे हैं, कुछ नए विषय उठाए हैं, कुछ मुहावरे गढ़े हैं, प्रकाशकों को दिखाया है कि यहां भी एक बाजार है, ऐसे ज्ञान की भूख है। खुद को मानवमात्र की विरासतों से जोड़ते हुए, उनको बकायदा उद्धृत कर दृश्यमान करते हुए वैश्वीकरण से ऊपजी चुनौतियों को समझने की कोशिश की है, जबान को तेजी से बदलती प्रौद्योगिकी से लैस करने का सामान दिया है। और हमारी ज्यादातर चीजें मुक्त जनपद में स्थायी तौर पर मुफ्त लोकार्पित हैं।
देसी, गैर-देसी ज्ञान या जबान को लेकर हम ‘बकिया सिफर’ (जीरो सम) गेम नहीं खेलते, क्योंकि असुरक्षाबोध हम पालते नहीं। दुआ कीजिए कि हमारी मुरादें फलीभूत हों, ‘प्रतिमान’ और ‘आलोचना’ दीर्घायु हों, उनमें साहित्य, समाज और नामालूम विषयों के दृश्य-अदृश्य सवालों से उलझने का हौसला बना रहे। दुआ कीजिए कि बुजुर्गों की दुआएं लगती हैं।
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