सय्यद मुबीन ज़ेहरा
एक रिपोर्ट के अनुसार दिल्ली में बुजुर्गों का कोई महत्त्व नहीं है। सवाल है कि यहां महत्त्व किसका है! सब अपनी अनदेखी का सामना करने ही तो यहां आते हैं। फिलहाल जैसे दिल्ली में जनता द्वारा चुनी हुई सरकार का ही महत्त्व नहीं है। दिल्ली सरकार की नजर में उपराज्यपाल का महत्त्व नहीं है। उपराज्यपाल खुद अपने बाबुओं की अनदेखी से परेशान हैं। जब राजनेताओं से लेकर आम आदमी तक को अपना अस्तित्व बचाए रखना मुश्किल हो रहा है, पत्थरदिल दिल्ली में बूढ़े बरगदों की किसे चिंता है। आज पत्थरों के इस शहर में बुजुर्ग अलगाव का शिकार हो रहे हैं। अस्सी प्रतिशत बुजुर्ग अपने जीवन की ढलती शाम में तनहा हैं।
दिल्ली और उसके आसपास के क्षेत्रों में बुजुर्गों की स्थिति पर हुए एक अध्ययन के अनुसार इन बुजुर्गों को सहारा देना तो दूर, इनसे बात करने वाला भी कोई नहीं होता। न उनके परिवार के लोग उनसे बातचीत करते हैं और न समाज उनके लिए समय निकालता है। समय पर खाना न मिलना, दवाई की व्यवस्था न होना, चश्मा और सुनने की मशीन की जरूरत के अलावा किसी ध्यान रखने वाले का न होना भी उनकी समस्याओं में शामिल है।
एजवेल फाउंडेशन ने बुजुर्गों से संबंधित विभिन्न समस्याओं को लेकर यह अध्ययन दिल्ली और दिल्ली से जुड़े क्षेत्रों में कराया था। समाचारपत्रों में प्रकाशित यह रिपोर्ट चौंकाने के साथ-साथ हमारे समाज की संवेदनहीनता को दर्शाती है। दिल्ली और आसपास की दो करोड़ की आबादी में साठ वर्ष से अधिक उम्र के बुजुर्ग लगभग आठ प्रतिशत हैं। दिल्ली में इनकी संख्या बारह लाख के करीब है। इस अध्ययन में पंद्रह हजार लोगों के साक्षात्कार के आधार पर यह बात सामने आई कि बदलती सामाजिक व्यवस्था के कारण और घरों के सिकुड़ने से जहां परिवार छोटे हुए हैं, वहीं बुजुर्गों की आवश्यकता कम हुई है। बुजुर्ग जो किसी परिवार का एक महत्त्वपूर्ण अंग होते थे, जिनसे नई पीढ़ी को संस्कृति और मूल्यों का पाठ पढ़ने-सीखने का अवसर मिलता था, अब घरों से दूर होते जा रहे हैं।
जो लोग दिल्ली और आसपास रहने आते हैं वे खुद अपनी जड़ों से उखड़े हुए होते हैं। वे दिल्ली में आकर संघर्ष करते हैं। उनकी आय का स्रोत कुछ ऐसा नहीं होता, जिस पर वे बहुत भरोसा कर सकें। इस लिहाज से उनके रहने की जगह कभी छोटी और कभी बड़ी होती है। अगर अपना मकान है, तो निश्चित रूप से किस्तों का बोझ भी होगा, जिसकी वजह से संभाल कर खर्च चलाना पड़ता है। ऐसे में अगर घर के बुजुर्ग भी हों, तो कम आमदनी में अधिक खर्च डराने लगता है। इसी कारण उनके सामने अपने ही बड़े बोझ लगने लगते हैं।
बात केवल खर्च की नहीं है। बुजुर्गों से बात करने वाला तक कोई नहीं होता। बच्चे हैं तो अपने आप में मस्त, टीवी या मोबाइल से उलझे हुए। अगर पति-पत्नी दोनों कमाने वाले हुए तो सुबह-शाम खाने पर बातचीत हो तो हो, वरना दुआ-सलाम भी मुश्किल से होता है। ऐसे में बुजुर्गों के अपने आप से बात करने के अलावा कोई और रास्ता नहीं बचता। इसलिए अधिकतर बुजुर्ग दिल्ली में इलाज आदि के लिए आते-जाते हैं, मगर जरूरत पूरी होते ही वापसी का सामान बांधना शुरू कर देते हैं। उनकी औलाद भी यह सोच कर रोकती नहीं कि यहां से सुखी गांव में रहेंगे। तथ्य तो यह है कि गांव या शहर कोई हो, सच्ची खुशी अपनों के बीच ही मिलती है।
दिल्ली में रहने वाले ऐसे बुजुर्ग भी हैं, जिनके बच्चे बेहतर भविष्य की तलाश में देश से बाहर चले गए हैं और अब उनका यहां लौटने का कोई इरादा नहीं है। ऐसे बुजुर्गों को सबसे बड़ी चिंता अपनी सुरक्षा को लेकर होती है। दिल्ली जैसे शहर में हम आए दिन बुजुर्गों की हत्या की खबर पढ़ते रहते हैं। पुलिस ने उनकी सुरक्षा के लिए बीट कांस्टेबल के माध्यम से एक बेहतर प्रणाली स्थापित करने की कोशिश की है, लेकिन जहां वृद्धों की संख्या बारह लाख के करीब हो, वहां सभी की देखभाल संभव ही नहीं है। इसके लिए समाज को ही कुछ करना होगा। पर समाज क्या करेगा? इसी समाज में रहते हुए बुजुर्ग सबसे अकेले हैं। इन बुजुर्गों को अधिक दुख अपने अलग-थलग पड़ जाने से होता है।
इस अध्ययन में यह बात भी सामने आई कि दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के ग्रामीण और शहरी बुजुर्गों की स्थिति अलग है। जहां एनसीआर के गांवों में छत्तीस प्रतिशत बुजुर्ग सामाजिक और भावनात्मक रूप से अलगाव के शिकार हैं, वहीं दिल्ली के ग्रामीण क्षेत्रों में यह अलगाव इक्कीस प्रतिशत के आसपास है, सामाजिक और भावनात्मक रूप से उन्नीस प्रतिशत। जबकि दिल्ली और एनसीआर के शहरी क्षेत्रों में चौवालीस प्रतिशत बुजुर्ग भावनात्मक और सामाजिक रूप से तनहा पाए गए हैं। अध्ययन से पता चला है कि इस अलगाव का असर उनके स्वास्थ्य को प्रभावित करता है, क्योंकि तैंतीस प्रतिशत बुजुर्गों ने बताया कि वे मानसिक रूप से परेशान हैं। अधिकतर बुजुर्गों ने यही कहा कि अकेलेपन के कारण उनका स्वास्थ्य बहुत खराब रहता है।
इस अलगाव की वजह से ही इन बुजुर्गों में सुरक्षा की भावना समाप्त होती जा रही है। उन्हें अपने परिवार या समाज से कुछ अधिक नहीं चाहिए, केवल उनके होने का अहसास भर इनके लिए काफी है। थोड़ा प्यार, ध्यान और सम्मान इनके भीतर जीवन का अहसास जगा सकता है। हालांकि अधिकतर बुजुर्गों में अपने स्वास्थ्य को लेकर चिंता होती है, मगर वे इसलिए स्वस्थ रहना चाहते हैं कि जब तक सांस चले, वे किसी पर बोझ न बनें।
इस संबंध में केवल समाज या उनके परिजनों पर आरोप लगाना ठीक नहीं है। सरकार को उनकी सहायता के लिए आगे आना चाहिए। अगर वृद्धों के इलाज में सरकारें अपनी भूमिका ठीक से निभा रही होतीं, तो वे अपने बच्चों पर बोझ नहीं होते। पर यह भी अजीब बात है कि जिन लोगों ने छोटी-सी नौकरी या मेहनत-मजदूरी कर के अपने बच्चे पाले, आज उनके बच्चे अफसरी वाली सरकारी नौकरी और तमाम सुविधाओं के होते हुए भी उनका ध्यान नहीं रख पाते हैं। इसे ही आंख का पानी मरना कहते हैं।
इस अध्ययन में एक और बात सामने आई है कि ये बुजुर्ग अपने लिए तेज रफ्तार कानून प्रणाली चाहते हैं। क्योंकि अक्सर जीवन के अंतिम पड़ाव में संपत्ति को लेकर चल रहे मुकदमों की तारीख पर तारीख इनकी कमर तोड़ने का काम करती है। अधिकतर बुजुर्गों का कहना था कि उनके लिए विशेष अदालतों का प्रबंध किया जाना चाहिए। तकलीफ की बात तो यह है कि हमारे बीच से बड़े परिवारों की कल्पना शहर के छोटे मकानों ने छीन ली है। छोटे परिवारों के कारण बुजुर्गों की हालत बहुत दर्दनाक होती जा रही है। यह केवल मध्यवर्गीय परिवार की बात नहीं है। पैसे वालों को भी अक्सर अकेलेपन का रोना रोते देखा जाता है। लगभग अस्सी प्रतिशत बुजुर्ग छोटे परिवारों में अमानवीय स्थिति में जीवन बिताते हैं। सरकार कानून बना कर उनके लिए कुछ न कुछ व्यवस्था तो कर सकती है, लेकिन उस अपनेपन का अहसास कहां से ला पाएगी, जिसके बिना जीवन अधूरा है। दिल्ली के बुजुर्गों का दर्द इसी अपनेपन की तलाश का दर्द है। देखना है कि इस दर्द की दवा कौन करता है।
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