अशोक वाजपेयी
यह शुरू में स्पष्ट नहीं था। जब भोपाल में भारत भवन के लिए वास्तुकार चार्ल्स कोरिया को चुना गया था तब उनकी प्रचंड आधुनिकता तो स्पष्ट दिखाई देती थी, उसमें विलक्षण रूप से रसी-बसी परंपरा का आभास नहीं मिला था। जैसे-जैसे रूपाकार बनता गया, वैसे-वैसे यह सामने आता गया कि चार्ल्स के लिए वास्तु जगह को घेरना और सीमित करना नहीं था, वह था जगह को तरह-तरह से खोलना और मुक्त करना। भारत भवन में तीन बड़े आंगन हैं: चार्ल्स जो अनबना छोड़ देते थे वह इमारत की बुनावट का हिस्सा होता था। भारत भवन भोपाल के बड़े तालाब के किनारे है: वह नए और पुराने भोपाल के संगम पर भी अवस्थित है। इस लोकेशन ने चार्ल्स की परिकल्पना को गहरे प्रभावित किया था। वे भवन नहीं, घर बनाना चाहते थे: यह आकस्मिक नहीं कि हमने तब उसे ‘कलाओं का घर’ कहना शुरू भी किया, क्योंकि उसमें कई कलाएं एक-दूसरे के पड़ोस में थीं, मानो कि एक परिवार की ही सदस्य थीं।
भारत भवन में प्रवेश आप छत के स्तर पर करते हैं और फिर उसके आंगनों में उतरते हैं, जिनमें बैठने-टिकने के लिए सीढ़ियां हैं, जैसे पुराने कुंडों में होती हैं। चार्ल्स ऐसा भवन नहीं बनाना चाहते थे, जो अपनी भव्यता और ऐश्वर्य से आने वालों को आतंकित करे: उनका मकसद था ऐसा घर बनाना, जिसमें आप बिना किसी हिचक या संकोच के दाखिल हो सकें। यही उन्होंने किया। चित्रकार जगदीश स्वामीनाथन और रंगकर्मी बव कारंत से निरंतर हुए संवादों से उन्होंने बहुत संवेदनशीलता और व्यावहारिकता से संरचना में कई परिवर्तन-परिवर्द्धन किए। वे भारत भवन को ‘अभवन’ (नानबिल्डिंग) कहते थे, क्योंकि कहीं से भी पूरी इमारत, जो एक लाख वर्ग फीट बनी जगह है, देखी नहीं जा सकती। उन्हें इस बात का विशेष संतोष था कि भारत भवन के सभी हिस्से शुरू से ही, उसके शुभारंभ से ही, सक्रिय हो गए थे। इस कलाकेंद्र के उद्घाटन के अवसर पर भारत के सभी क्षेत्रों और कलाओं के जो मूर्धन्य एकत्र हुए थे, जिनमें वे स्वयं भी अत्यंत विनम्रतापूर्वक शामिल थे, उनके बारे में टिप्पणी करते हुए उस समय चार्ल्स ने कहा था कि अगर दुर्योग से उस समय भोपाल की किसी उड़ान का क्रैश हो जाता तो भारतीय संस्कृति का ही लोप हो जाता!
उस समय से चार्ल्स से जो मित्रता हुई वह अभी तक अबाध चलती रही। वे निरे वास्तुकार या नगर-नियोजक भर नहीं थे- उन्हें एक चौकन्ना बुद्धिजीवी कहना भी सर्वथा समीचीन होगा। वे वास्तु-विचारक थे। ऐसे भारतीय वास्तुकार संभवत: दस-पंद्रह से अधिक न होंगे, जो चार्ल्स की तरह, मसलन एमआइटी में, शून्य पर व्याख्यान दे सकते हों और कह सकते हों कि उनकी चेष्टा सभ्यता के उस शून्य को समझने और उस तक पहुंचने की है, जो आरंभ और अंत दोनों ही एक साथ है! हम भारत में कैसे रहते-बरतते-मिलते-जुलते हैं और इस सबका हमारी जलवायु, सामग्री आदि से क्या संबंध है इसकी गहरी समझ चार्ल्स को थी। उनकी अवधारणा थी कि नगर के परिसर भर नहीं, उसके अध्यात्म भी होते हैं, जिन्हें नजरंदाज कर वास्तु या नियोजन प्राणहीन और यांत्रिक ही हो सकते हैं। उनकी चिंता के केंद्र में हमेशा लोग थे: उस जगह का इस्तेमाल करने वाले, वहां आने-जाने वाले लोग। चार्ल्स ने कलाकेंद्रों के अलावा रहवासी जगहें, विधानसभा भवन, गांधी संग्रहालय, शिल्प संग्रहालय, लिस्बन में ‘अज्ञात’ केंद्र, पुणे में अंतरिक्ष भौतिकी संस्थान, एमआइटी में ज्ञानकेंद्र, टोरंटो में इस्माइली केंद्र आदि परिकल्पित किए। इतना बड़ा रेंज शायद ही किसी और भारतीय वास्तुकार का हो।
कई तरह से चार्ल्स कोरिया भोपाल की आधुनिकता के स्थपतियों में से एक थे। उन्हें वहां लाने का श्रेय प्रशासक महेश बुच को जाता है, जो आधुनिक भोपाल के निर्माताओं में प्रमुख एक थे। इसके अलावा संस्कृति, वास्तु और कलाओं के माध्यम से जो भारतीय आधुनिकता विकसित हुई, चार्ल्स उसके भी एक मूर्धन्य थे। उनकी आधुनिकता खुला आंगन थी। उनका देहावसान बड़ी क्षति है- एक बेबाक, कल्पनाशील, विचारप्रवण अपनी अद्वितीय वास्तुभाषा और दृष्टि विकसित करने वाला जिंदादिल नायक नहीं रहा।
संस्कृति में राज्य और निजी पहल
इस पर कोई विमत नहीं था कि इस समय संस्कृति से संबंधित प्राय: सभी राजकीय संस्थाएं बेहद उतार पर हैं और कई तो अपने दुखद अवसान की कगार पर पहुंच रही हैं। शिमला के भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान के भव्य औपनिवेशिक भवन में एक परिसंवाद में प्रो. बीएम गोस्वामी, सदानंद मेनन, नीलम मानसिंह चौधरी, बालन नंबियार, रियास कोमू, महेश चंपकलाल, उमा माहेश्वरी, मनदीप रेखी, अनिता चेरियन, अरुंधती घोष, रवींद्र सिंह, एके अच्युतन आदि ने डेढ़ दिनों तक संस्कृति की वर्तमान स्थिति, संस्थागत ढांचों के चरमराने और निजी पहल पर गहन विचार किया। यह बात भी सामने आई कि सिर्फ संस्कृति नहीं, अन्य क्षेत्रों की संस्थाओं की हालत कमोबेश ऐसी ही है। यह समय सार्वजनिक संस्थाओं के भारतीय पतन का अभागा समय, कुसमय है। प्राय: हर क्षेत्र में बौनों के उन्नयन का, उनके अच्छे दिन आने का समय है!
हाल ही में रिटायर हुए भारत सरकार के संस्कृति सचिव ने विस्तार से बताया कि हमारा संस्कृति मंत्रालय कैसे राजनय, पर्यटन, भूमंडलीय व्यापार, अंतरराष्ट्रीय जगत में भारत-छवि संवर्द्धन, एशिया में अपनी बौद्ध कड़ियों को जोड़ने आदि में, चीन के विपुल विस्तारवाद से निपटने में संस्कृति का उपयोग कर रहा है। यह स्पष्ट प्रभाव सभी पर पड़ा कि भारत सरकार के स्तर पर संस्कृति और कलाएं अपने आप में महत्त्वपूर्ण या मूल्यवान नहीं हैं, उनकी उसके लिए प्रासंगिकता है किन्हीं अन्य व्यापक लक्ष्यों को हासिल करने के लिए उपयोगी होने में। मंत्रालय के वित्तीय साधन काफी बढ़ गए हैं। यह भी कहा गया कि वर्तमान सरकार ही किसी विचारधारा से परिचालित नहीं है, हर सरकार होती है। संस्कृति अनिवार्यत: राजनीति से संबद्ध होती है।
भारत सरकार ने आज तक अपनी कोई संस्कृति नीति निर्धारित और घोषित नहीं की है। इस पर लगातार यह वैचारिक आपत्ति की जाती रही है कि संस्कृति समाज बनाता-पोसता है और उसका निर्धारण सत्ता नहीं कर सकती! यह अपनी जगह ठीक है, पर हर सत्ता बेमन से सही, संस्कृति के क्षेत्र में राष्ट्रीय और प्रादेशिक संस्थाएं स्थापित करती और पोसती है। उन पर सार्वजनिक धन खर्च होता है। उन्हें परिचालित और नियमित करने के लिए कुछ न कुछ नीति होती ही है, भले अक्सर कामचलाऊ। यह संस्थागत ढांचा भले संस्कृति के दस प्रतिशत क्षेत्र से ही संबंधित होता है, पर उसका निर्णायक प्रभाव पड़ता है। संस्कृति नीति इस ढांचे को लेकर हो यह अपेक्षा है। फिर शिक्षा, पर्यावरण, वाणिज्य, विज्ञान तकनालजी, पर्यटन आदि का संस्कृति से जो जटिल संबंध है उसे समझना और सुगम बनाना भी जरूरी है।
हुआ यह है कि हमारी राजनीतिक और लोकतांत्रिक परिकल्पना से भाषाएं और संस्कृति अब लगभग बाहर हैं। संसार के सैकड़ों देशों में सांस्कृतिक सार्वजनिक संस्थाएं हैं और राष्ट्रीय संस्कृति नीतियां हैं: वे सार्वजनिक रूप से घोषित होती हैं और उन पर सार्वजनिक बहसें होती हैं। हमारे यहां भारत सरकार ने दो बार ऐसी नीति बनाने की कोशिश की। मैं दोनों बार उनसे संबद्ध रहा। कई प्रारूप बने। विशेषज्ञों, संसद की स्थायी समितियों आदि पर विशद चर्चा भी हुई। पर अंतत: मामला मंत्रिमंडल के समक्ष अनुमोदन के लिए दोनों बार नहीं पहुंच सका।
इसका भी जिक्र हुआ कि हमारी सांस्कृतिक संरचनाओं में संस्कृति के जातिप्रथा के साथ गहरे और शायद अटूट संबंध की कितनी समझ और जगह है तथाकथित निचली जातियों, आदिवासियों आदि की सांस्कृतिक अभिव्यक्ति के प्रकारों और अधिकारों की। सार्वजनिक संस्थाओं से जो भी पोषण-समर्थन कलाओं को मिलता है, उसका अधिकांश अभिजात कलाएं हड़प लेती हैं। यह आशंका भी व्यक्त की गई कि कई लोकप्रिय कलाएं बहुत गहरे स्तर पर रूढ़िवादी और अलोकतांत्रिक हैं।
परिसंवाद का पहला दिन खासी निराशा के माहौल में समाप्त हुआ। लेकिन, सौभाग्य से अगले दिन सुबह नीलम मानसिंह चौधरी के चंडीगढ़ स्थित रंगसंस्था ‘कंपनी’, रियास कोमू और कुछ केरली कलाकारों द्वारा बड़े पैमाने पर दो बार आयोजित कोची द्वैवार्षिकी के दो संस्करणों के आयोजन और विस्तार और मनदीप रेखी द्वारा स्थापित गति डांस कलेक्टिव के वृत्तांतों को सुन कर मनोबल कुछ वापस लौटा। तीनों ही तीन अलग-अलग क्षेत्रों में निजी पहल से क्या किया जा सकता है इसके उजले और प्रेरणादायी उदाहरण हैं। तीनों ने यह पाया कि अगर कोशिश की जाए तो नए श्रोता-दर्शक पाए और पोसे जा सकते हैं, जो नए और विचारोत्तेजक प्रस्तुतियों का रसास्वादन करने को उत्सुक और तैयार हो सकते हैं। राज्य द्वारा सहायता देने में कोताही और अड़चनों के बावजूद तीनों ने अपना प्रयत्न जारी रखा है।
पहले लगा था कि राज्य से कुछ उम्मीद करना अब छोड़ देना चाहिए। लेकिन यह भी लगा कि राज्य को संस्कृति के क्षेत्र में अपनी सीमित जिम्मेदारी से मुक्त नहीं किया जा सकता। एकाध अन्य व्यक्तियों ने यह भी बताया कि कैसे निजी टेलीविजन चैनलों पर बाजार के दबाव में खुलेआम सेंसर काम करते हैं, जबकि दूरदर्शन आदि में अधिक आजादी है और कम से कम प्रामाणिकता का सम्मान होता है। शायद सामान्यीकरण और सरलीकरण दोनों ही करना उपयुक्त नहीं है। लेकिन व्यापक रूप से इस पर बहस होनी चाहिए कि हमारी संस्कृति की दशा और दिशा क्या है।
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