शुरू में ही स्पष्ट करना चाहूंगी कि न मुझे हार्दिक पटेल की राजनीति पसंद है, न उनके राजनीति करने का तरीका। लेकिन पिछले हफ्ते गुजरात के इस नौजवान राजनेता ने एक ऐसी बात कही, जिससे मैं पूरी तरह सहमत हूं। दक्षिण के हिंदी अखबार से इन शब्दों में यह बात कही, ‘‘या तो देश भर से आरक्षण हटाया जाए या सबको मौका मिले आरक्षण का गुलाम बनने का।’’
आरक्षण समाज के पिछड़े वर्गों को देने का प्रावधान है और उसकी जड़ें मजबूत हैं, सो इसे खत्म करना आसान नहीं होगा। वे राजनीतिक दल प्रदर्शन करेंगे, हंगामा मचाएंगे, जिनकी राजनीति आरक्षण संबंधी प्रावधान को आधार बना कर टिकी हुई है। मगर प्रधानमंत्री अगर याद रखते हैं अपना ‘परिवर्तन’ का वादा तो शुरुआत कर सकते हैं। हिम्मत दिखाते हैं अगर तो, उनका नाम न सिर्फ इतिहास की किताबों में सुनहरे अक्षरों में लिखा जाएगा, इस देश के नौजवानों के दिलों में भी लिखा जाएगा।
लोकसभा चुनाव के दौरान मैंने एक दोपहर बनारस हिंदू यूनीवर्सिटी के गलियारों में बिताई छात्रों से बात करने के लिए। अलग-अलग समस्याओं का जिक्र किया उन्होंने। लेकिन एक बात, जिस पर सब सहमत थे कि आरक्षण अगर कोई राजनेता हटा सकता है, तो वे नरेंद्र मोदी हैं। उन्होंने मुझे बताया कि मोदी को उनका वोट मिलेगा इस उम्मीद से कि शिक्षण संस्थानों में वे आरक्षण हटाने की हिम्मत करेंगे। उनका कहना था कि बीएचयू में सत्तर फीसद छात्र आरक्षित श्रेणियों से दाखिला लेते हैं, सो जो लोग ‘जनरल’ श्रेणी में अपनी मेहनत और काबिलियत से आते हैं उनके लिए दाखिला मिलना बहुत मुश्किल हो गया है।
माना कि आरक्षण की व्यवस्था नेक इरादे से शुरू की गई थी। उन जातियों को सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं में जगह दिलवाने के लिए आरक्षण की नींव रखी गई थी, जिन पर सदियों से सवर्ण जातियों ने जुल्म ढाया था। उनके बच्चों से शिक्षा का अधिकार छीन लिया था। लेकिन आज हालत यह है कि आरक्षण लड़ कर लेने की कोशिश कर रहे हैं वे लोग, जो ग्रामीण भारत के मालिक हैं। पटेलों से पहले इस तरह के प्रदर्शन किए हैं गूजर, जाट और मराठों ने, इसलिए कि बिना आरक्षण के न उनको सरकारी नौकरियां मिलती हैं आसानी से और न ही उनके बच्चों को शिक्षण संस्थाओं में दाखिला।
कहने का मतलब मेरा यह है कि सारा ढांचा ही उलट-पुलट हो गया है। इसको अगर कायम रखना है, तो नए नियम बनने चाहिए, जिनकी बुनियाद आर्थिक होनी चाहिए, जाति नहीं। ऐसा करना जरूरी हो गया है और अगर वे प्रधानमंत्री नहीं कर पाते हैं, जो तीस साल बाद पूर्ण बहुमत लेकर आए हैं, तो कौन कर सकता है? नरेंद्र मोदी की राह में उनके अपने ही आला अधिकारी दीवार बन कर खड़े हो जाएंगे, क्योंकि अगर एक शब्द है जिसको सुनते ही ये अधिकारी खौफ से कांपने लगते हैं, तो वह शब्द है परिवर्तन। लेकिन राजनेता अगर हिम्मत से निर्णय करता है तो यही आला अफसर बिछ जाते हैं उसके सामने।
याद है मुझे कि जब पीवी नरसिंह राव आर्थिक सुधार शुरू करने के बाद जर्मनी गए थे निवेशकों को आमंत्रित करने, तो वहां के बड़े उद्योगपतियों ने उनसे कहा था कि सरकारी अफसरों की अकड़ की वजह से वे भारत में निवेश करना पसंद नहीं करते हैं। नरसिंह राव ने अपने आला अधिकारियों के सामने कहा कि ‘सर्कस के जानवरों’ का मिजाज होता है अधिकारियों का, सो रिंगमास्टर अगर चाबुक चला कर काम लेता है तो वे चुपचाप कर लेते हैं। नरसिंह राव की गलती सिर्फ यह थी कि उन्होंने चुपके से आर्थिक सुधार लाने का निर्णय किया, शायद इसलिए कि नेहरू की पार्टी में होते हुए वे कैसे उनकी आर्थिक विचारधारा से दूर जा सकते थे? नतीजा यह हुआ कि न पार्टी के रहे, न जनता के। लाइसेंस राज हटाए जाने के खिलाफ इतना प्रचार हुआ कि कांग्रेस पार्टी अगला चुनाव हार गई।
इसके बाद किसी भी प्रधानमंत्री की हिम्मत नहीं हुई है परिवर्तन के रास्ते पर चलने की, क्योंकि पिछले लोकसभा चुनाव तक किसी भी प्रधानमंत्री को पूर्ण बहुमत नहीं दिया जनता ने। मोदी ही हैं, जिनको पहला मौका मिला है तब के बाद कुछ करने का। शुरुआत उनको करनी चाहिए, शिक्षण संस्थानों से आरक्षण हटा कर।
अब तक नई शिक्षा नीति तैयार होती, तो उसके जरिए हो सकता था यह काम, लेकिन उनकी मानव संसाधन विकास मंत्री का ध्यान कहीं और था। कभी लड़ाई करती हैं विधवाओं से, कभी आइआइटी जैसी संस्थाओं में दखल देने की कोशिश करती हैं। पिछले हफ्ते के अखबारों के मुताबिक उनकी नजर अब प्राइवेट स्कूलों पर है। अरे भाई, श्रीमतीजी, किस वास्ते? क्या बेहतर नहीं होगा कि आप सरकारी स्कूलों की तरफ देखें, जहां अध्यापकों की तनख्वाहें प्राइवेट स्कूलों से कहीं ज्यादा हैं, लेकिन बच्चों की शिक्षा कहीं कम।
रही बात आरक्षण हटाने की या आरक्षण के नियमों में तब्दीली लाने की, तो यह काम प्रधानमंत्री खुद कर सकते हैं। सो, विनम्रता से प्रधानमंत्रीजी से निवेदन है कि आप अपने ही गृहराज्य गुजरात के नए राजनेता की बातें सुन लें। बेशक हार्दिक पटेल के पीछे कुछ ऐसी शक्तियां हैं, जो आपको नीचा दिखाना चाहती हैं, लेकिन इसकी परवाह न करें। ध्यान दें सिर्फ आरक्षण हटाने की उस मांग पर, जो आने वाले दिनों में तूल पकड़ सकती है, इतना कि इस आग को बुझाने में ही आपका सारा समय जाएगा। जब आपको आपके आला अफसर नसीहत देंगे कि आरक्षण जैसे कठिन मामले से दूर ही रहना चाहिए, तो याद कीजिए कि आपको पूर्ण बहुमत इसलिए मिला था कि आपने परिवर्तन और विकास लाने के वादे किए थे। विकास लाने से पहले परिवर्तन की जरूरत है ऐसी नीतियों में, जो आपको विरासत में मिली हैं।