राजेंद्र किशोर पांडा के इस संग्रह की कविताएं उनके अद्वितीय रचनाशील व्यक्तित्व का जीवंत साक्ष्य हैं। ओड़िया भाषा की सुदीर्घ परंपरा से अपना रस ग्रहण करती उनकी कविता, सामयिकता और शाश्वतता को एक अद्भुत और ब्लिकुल ही अलग विन्यास में रचती है। उनकी भाषा में एक ओर तो लोकजीवन के शब्दों की प्राणवत्ता है, तो दूसरी ओर उसमें संस्कृत के तत्सम शब्दों का ऐसा अनूठा पुनर्वास है कि वे हमें आज और अभी के समय की प्रासंगिकता से सहज भाव से जोड़ते हैं। उनकी कविता किसी एक तरह की कथन भंगिमा में बंध कर नहीं रहती। उनकी प्रयोगधर्मिता एक ओर तो आधुनिक जीवन की विसंगतियों, विडंबनाओं को प्रखरता से मूर्त करती है, दूसरी ओर उसमें हम मानवीय अस्तित्व के अधूरेपन को उत्तीर्ण करने की काव्यचेष्टा भी देखते हैं।
उनकी कविताओं में एक तरह का बेबाक खुलापन भी है, जो उनके विन्यास में सर्वदा अंत:सलिल नानार्थता को और भी मुक्त करता है। वे मूलत: आत्मसंधान के कवि हैं, पर उनके इस आत्मसंधान में, आत्मेतर वस्तुजगत, कुछ इस रूप में शामिल है कि हम उसके पाठ से सिर्फ संसार के वास्तव को नहीं, बल्कि ब्रह्मांड में अपने होने की दिव्यता और क्षुद्रता को, आनुभाविक स्तर पर पहचानते हैं।
शैलकल्प: राजेंद्र किशोर पांडा; सूर्य प्रकाशन मंदिर, नेहरू मार्ग (दाऊजी रोड), बीकानेर; 150 रुपए।
दलित दर्शन की वैचारिकी
समय के साथ बदलते जीवन-मूल्यों के परिप्रेक्ष्य में सदियों से सताई गई दलित-दमित और पीड़ित जनता के वर्तमान सामाजिक समीकरणों की पड़ताल, उसकी गतिशीलता का भविष्य तय करने में मददगार हो सकती है। इसलिए समय-सापेक्ष वैचारिकी के लिए इतिहास की स्थापनाओं के साथ-साथ आधुनिक बदलावों की जरूरतों को रेखांकित करना वाजिब लगता है। इस संकलन के आलेखों में भारतीय जीवन-पद्धति की प्राचीन परंपराओं को वर्तमान धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक सच्चाइयों से जोड़ कर देखने की कोशिश की गई है। इन लेखों में व्यक्त सामाजिक सरोकार, दलित-पीड़ित मानवता की शोषण-मुक्ति तक सीमित हैं। सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक कारकों को ऐतिहासिक गलियारों में खोजने की कोशिश, बहुसंख्यक जनता को आर्थिक-सामाजिक शोषण से निजात दिलाने की ही एक और कोशिश है।
दलित दर्शन की वैचारिकी: बीआर विप्लवी; वाणी प्रकाशन, 4695, 21-ए, दरियागंज, नई दिल्ली; 275 रुपए।
मोको कहां ढूंढ़े रे बंदे
आज भी भारतीय लोकमानस में संत कबीर जीवन-दर्शन के आकाश में ध्रुवतारे के अटल ज्ञान के रूप में जगमगा रहे हैं। साहित्य, ललित कलाओं, धर्मग्रंथों और गीत-संगीत के लोक, शास्त्रीय और माध्यमों के अन्य समसामयिक प्रारूपों में कबीर उपस्थित हैं। इसमें वाचिक परंपरा भी है और गंभीर शोध भी। यही कबीर की महानता है।
कबीर को लेकर विद्वानों में कुछ मतभेद भी रहे हैं। उनके जन्म, धर्म, रचना-प्रक्रिया और विचारों पर कई शोध भी हुए हैं। धार्मिक संतों से लेकर आधुनिक मार्क्सवादी विचारकों ने कबीर पर चिंतन किया है। लेकिन कबीर की वाणी किसानों, दस्तकारों और कामगारों की जीवनशैली के अधिक निकट जान पड़ती है। वे सामाजिक कुरीतियों, भेदभाव और अंधविश्वास की विद्रूपताओं के विरुद्ध एकता और परस्पर सद्भाव के ज्ञान का संदेश देते हैं।
रमेश खत्री ने गहन शोध के बाद कबीर को इस किताब में रचा है। उन्होंने प्रयास किया है कि इस नाटक में कबीर के कालजयी विचारों, महान रचनाओं के साथ-साथ उनकी जीवनी को भी प्रामणिकता के साथ आधुनिक रंगमंचीय शैली में प्रस्तुत किया जाए।
मोको कहां ढूंढ़े रे बंदे: रमेश खत्री; मंथन प्रकाशन, 85/175, जी-1, प्रताप नगर, जयपुर; 300 रुपए।
