जिस दिन सर्वोच्च न्यायालय ने भारत सरकार को फटकार लगाई पिछले सप्ताह टीकाकरण को लेकर, उसी दिन मैंने नरेंद्र मोदी के एक मंत्री को टीवी पर देखा अहंकारी ढंग में पेश आते हुए। नाम लेने की जरूरत नहीं समझती, इसलिए कि जबसे टीके के गंभीर अभाव होने का दोष प्रधानमंत्री पर लगने लगा है, तबसे उनके मंत्रियों को जैसे आदेश मिला है उनकी छवि की मरम्मत करने का। सो, इस मंत्री ने बॉलीवुड के किसी हीरो के नाटकीय, गरजते अंदाज में कहा- ‘सारी गलती राज्य सरकारों की है। पहले तो उन्होंने कहा था कि केंद्र्र सरकार काफी टीके खरीद नहीं पा रही है अगर, तो हमको इजाजत दी जाए अंतरराष्ट्रीय बाजार से खरीदने की। अब कह रहे हैं कि टीकों की खरीदारी भारत सरकार की जिम्मेवारी है। भई, आप एक बार तय तो करो कि क्या चाहते हो।’

मंत्रीजी शायद भूल गए थे कि जब कोरोना की दूसरी लहर ने बेहाल कर दिया था देश को, तब तक प्रधानमंत्री कह रहे थे कि हमने पिछले साल कोरोना को हराया था ऐसे समय, जब टीके थे ही नहीं। भूल गए थे मंत्रीजी कि जिन देशों में अब स्थिति तकरीबन सामान्य होने लगी है, उन देशों ने पैसा देकर ऑर्डर किए थे करोड़ों टीके पिछले साल ही। भूल गए थे मंत्रीजी कि हमारे प्रधानमंत्री को इतनी देर लगी समझने में कि टीके ही हथियार हैं कोरोना की इस जंग में कि उन्होंने ऑर्डर ही नहीं दिए इस जनवरी तक और जब दिए तो बहुत थोड़ी तादाद में, क्योंकि उनकी नजर में हमने कोरोना को हराने में इतनी सफलता हासिल की थी कि दुनिया हमसे प्रेरणा ले सकती है।

खैर, छोड़ते हैं पुरानी बातें। अब जो स्थिति है उस पर बात करना ज्यादा जरूरी है। सर्वोच्च न्यायालय ने भारत सरकार की नीति पर जो पिछले हफ्ते कहा, उस पर बात करते हैं। न्यायाधीशों ने भारत सरकार की टीकाकरण नीति को तर्कहीन और मनमाना इसलिए कहा है, क्योंकि उनको समझ में नहीं आता है कि 18-44 वाली श्रेणी में जो लोग आते हैं उनके लिए टीके केंद्र सरकार क्यों नहीं खरीद रही है, उस पैंतीस हजार करोड़ रुपए वाले कोष से, जो बजट में इस काम के लिए रखा गया था। इतनी उलझी हुई है भारत सरकार की नीति कि जहां बड़े शहरों में अब पैसे देकर लोग निजी अस्पतालों में टीके लगवा सकते हैं, वहीं सरकारी टीकाकरण केंद्र बंद हो रहे हैं टीकों के अभाव के कारण। देहातों में समस्या यह भी है कि जिन गांवों में अभी तक डिजिटल होने का बंदोबस्त नहीं हुआ है उनमें कोविन पर कैसे अपना नाम दर्ज कर सकेंगे लोग? बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे पिछड़े राज्यों में तो अक्सर लोग शिक्षित भी नहीं हैं, डिजिटल होना तो दूर की बात।

सबसे बड़ी समस्या है टीकों का सख्त अभाव। अब मुख्यमंत्री भी कहने लगे हैं खुल कर कि टीकों की खरीदारी केंद्र सरकार की जिम्मेदारी है, उनका वितरण ही राज्य सरकारें कर सकती हैं, क्योंकि अंतरराष्ट्रीय बाजारों में जब जाने की उन्होंने कोशिश की, तो मालूम हुआ कि टीका बनाने वाली कंपनियां सिर्फ भारत सरकार से बात करने को तैयार हैं। इस उलझी नीति का नतीजा यह है कि जहां अमेरिका में सौ में से अट्ठासी लोगों को टीके लग चुके हैं, भारत में सौ में से सिर्फ पंद्रह लोगों को लगे हैं। इतना पीछे रह गए हैं हम कि जहां अब न्यूयॉर्क और लंदन में दुकानें, रेस्तरां, स्कूल और सिनेमाघर खुलने लगे हैं, हमारे देश में राज्य और जिला स्तर पर बंदी लग रही है। जितना नुकसान इनका आर्थिक तौर पर हो रहा है, वह अभी दिखने लगा है बेरोजगारी के बढ़ते आंकड़ों में। अर्थशास्त्रियों का कहना है कि मई के महीने में ही एक करोड़ भारतीयों की नौकरियां चली गई हैं।

जबसे महामारी आई है, पिछले साल मार्च के महीने में, प्रधानमंत्री ने स्पष्ट किया कि इस युद्ध में सेनाध्यक्ष वही होंगे। उनके आदेश पर संपूर्ण बंदी लागू हुई थी पिछले साल चार घंटों की मोहलत देकर। उनके आदेश पर हमने तालियां, थालियां बजाईं और दीये जलाए उन महीनों में, जब दुनिया के बाकी देश टीकों के आर्डर दे रहे थे। सुनने में आया है कि इजरायल ने जब देखा कि फाइजर के पास ज्यादा आर्डर आ गए थे, तो वहां के प्रधानमंत्री ने तीन गुना पैसे देकर अपने देश के लिए आर्डर तय किया।

रही बात हमारी, तो हमारा हाल यह था कि हम आत्मनिर्भरता पर गर्व कर रहे थे, लेकिन ऑर्डर नहीं दे रहे थे और न पैसा। फिर जब उस पहली लहर ने इतना नुकसान नहीं किया, तो प्रधानमंत्री जैसे भूल-से गए कि कोरोना के खिलाफ इकलौता हथियार है टीकाकरण, देश की कम से कम आधी आबादी का। जब अभियान शुरू हुआ तो भारत सरकार ने अपने हाथों में इसको रखा और प्रमाणपत्र जब मिले टीका लगवाने के बाद, तो उन पर चिपके थे प्रधानमंत्री के फोटो।

सो, अब जब उनके मंत्रियों से हम सुनते हैं कि उलझी नीति का दोष लगना चाहिए राज्य सरकारों पर तो अच्छा नहीं लगता है, बात झूठी लगती है। यह भी अच्छा नहीं लगता है कि प्रधानमंत्री ने अभी तक उन अधिकारियों को निकाला नहीं है, जिनकी गलतियों से हम इस हाल में पहुंचे हैं। आज भी उनके चेहरे दिखते हैं रोज बड़े-बड़े दावे करते हुए। उनको हटा कर जब तक प्रधानमंत्री अपनी टीम में मुख्यमंत्रियों को शामिल नहीं करते हैं, तब तक दूर तक उम्मीद की छोटी-सी भी किरण नजर नहीं आती है। लड़ाई लंबी है और कठिन, लेकिन इसको जीतने के लिए चाहिए निर्णायक राजनीतिक टीम, जो अभी तक दिखती नहीं है। दिखते हैं वही प्रयास प्रधानमंत्री की शान को सलामत रखने के। क्या फायदा अगर देश की शान न रहे?