कोरियाई प्रायद्वीप में परमाणु अस्त्र परीक्षणों की होड़ रोकने के उत्तर कोरिया के वचन और बदले में अमेरिका द्वारा उस पर लगाए गए आर्थिक प्रतिबंध हटाने के प्रमुख बिंदु पर पिछले वर्ष जून में सिंगापुर में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और उत्तर कोरियाई प्रमुख किम जोंग उन के बीच हुई वार्ता जहां परमाणु निरस्त्रीकरण को लेकर कुछ सकारात्मक संदेश के साथ संपन्न हुई थी, वहीं इस वर्ष फरवरी के आखिरी दिन विएतनाम की राजधानी हनोई में इन्हीं नेताओं के बीच हुआ दूसरा शिखर सम्मेलन बिना किसी समझौते और संयुक्त वक्तव्य के ही पूरा हो गया। हनोई में उत्तर कोरिया का प्रतिवेदन था कि अमेरिका उस पर लगे प्रतिबंध पूरी तरह हटाए, जबकि अमेरिकी प्रतिवेदन दोनों वार्ताओं में उत्तर कोरिया से प्रमाणों और तथ्यों के आधार पर परमाणु परीक्षण रोकने संबंधी उसकी प्रगति की मांग करता है। उत्तर कोरिया और अमेरिका के मध्य सिंगापुर में हुई वार्ता दशकों के बाद हुई पहली द्विपक्षीय वार्ता थी। इस बात के लिए ट्रंप सरकार की प्रशंसा स्वाभाविक थी कि वह परमाणु परीक्षणों से विश्व को भयातुर किए जा रहे किसी ‘सनकी’ शासक से मिलने और परमाणु निरस्त्रीकरण पर वार्ता के लिए तैयार हो गई।

उत्तर कोरिया शासक की विध्वंशात्मक प्रवृत्ति एक तरह से पूरी दुनिया के लिए संकट बनी हुई थी। सन 2015 से लेकर 2017 तक अंतरराष्ट्रीय समुदाय की बड़ी चिंता इसी बात को लेकर थी कि कोरियाई प्रायद्वीप में उत्तर कोरिया द्वारा निरंतर किए जा रहे परमाणु प्रक्षेपास्त्रों पर प्रतिबंध कैसे लगे। उस समयावधि में उत्तर कोरिया के शासक किम का पूरा ध्यान केवल परमाणु अस्त्रों के परीक्षण पर था। यहां तक कि उत्तर कोरिया ने हाइड्रोजन बम का परीक्षण करके दुनिया को भयाक्रांत कर दिया था। अपने ऊपर लगे आर्थिक और व्यापारिक प्रतिबंधों को लेकर किम बुरी तरह विचलित थे और अमेरिका, जापान और दक्षिण कोरिया जैसे देशों पर निरंतर परमाणु प्रक्षेपास्त्र छोड़ने की चेतावनी दे रहे थे। उस समय विश्व के अधिसंख्य देश उत्तर कोरिया की परमाणु मिसाइलों को दागने की धमकी से इतने भयाकुल हो उठे कि उनमें न तो सीधे-साधे उत्तर कोरिया को समझाने और शांत करने का साहस था और न ही उन देशों के समर्थन में खड़े होने का, जिन पर परमाणु हमले को लेकर किम बुरी तरह व्यग्र थे।

विश्व को इस अप्रत्याशित भय से मुक्त करने के लिए अमेरिका ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में अपने स्थायी सदस्य चीन की सहायता ली। चीन ने उत्तर कोरिया को इस शर्त पर अमेरिका से वार्ता करने के लिए राजी कर लिया कि उस पर लगे आर्थिक और व्यापारिक प्रतिबंध तभी हटेंगे, जब वह परमाणु निरस्त्रीकरण की राह पर चलने संबंधी संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् की शर्तों पर समझौता करेगा। पिछली बार सिंगापुर में वार्ता से पहले किम ने चीन की यात्रा की थी। चीन उस शिखर सम्मेलन में किम के माध्यम से अमेरिका के समक्ष अपने गुप्त और स्वार्थी बिंदुओं को भी रखना चाहता था। किम ने परोक्ष रूप में चीन के हितों की बाबत अमेरिका के समक्ष कुछ बिंदु रखे भी थे, पर दशकों के बाद हुई अमेरिका-उत्तर कोरिया की वार्ता के प्रमुख वार्ता-बिंदुओं में चीन के हितसाधक बिंदुओं की इच्छा-अनिच्छापूर्वक अनदेखी हो गई। हालांकि पिछली बार भी परमाणु निरस्त्रीकरण को लेकर कोई आधिकारिक क्रियात्मक समझौता नहीं हुआ था। लेकिन तब यह घटना बड़ी और महत्त्वपूर्ण इसलिए थी कि उत्तर कोरियाई शासक के सनकी व्यवहार में अमेरिका की कूटनीतिक पहल के कारण एक आदर्श संतुलन देखने को मिला था। अमेरिका सहित दुनिया को लगा था कि कम से कम आर्थिक प्रतिबंध हटने की इच्छा से उत्तर कोरिया वार्ता को सहमत तो हुआ।

पिछली वार्ता में भी किम ने अमेरिका की मांग पर परमाणु निरस्त्रीकरण पर चलने, भविष्य में किसी परमाणु अस्त्र का परीक्षण न करने और शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की भावना पर चलने का वचन दिया था और बदले में ट्रंप ने भी ऐसा करने पर उसके ऊपर अधिरोपित आर्थिक प्रतिबंधों को धीरे-धीरे समाप्त करने का अनुबंध किया था। पर वर्ष भर दोनों देश एक-दूसरे की ओर अपनी-अपनी शर्तों के पूर्ण होने की आशा से देखते रहे, पर व्यावहारिक रूप में इस संदर्भ में कुछ करने के लिए दोनों के बीच कोई विशेष संवाद नहीं हुआ। वार्ता के लिए मध्यस्थ बना चीन भी उत्तर कोरिया-अमेरिका के बीच हुए शिखर सम्मेलन के समझौते को भूल गया। हां, इतना अवश्य हुआ कि उत्तर कोरिया की परमाणु प्रक्षेपास्त्र चलाने की धमकियां थम गर्इं। संभवत: उसे आशा रही हो कि हनोई सम्मेलन में अमेरिका से भेंट होने पर उसे आर्थिक प्रतिबंधों से मुक्ति का संदेश मिलेगा। दूसरी ओर अमेरिका को लगता था कि उत्तर कोरिया के शासक वहां उसके सम्मुख परमाणु निरस्त्रीकरण और परीक्षण के संबंध में कुछ प्रामाणिक प्रतिवेदन लाएंगे। पर दोनों देशों के हाथ कुछ नहीं लगा।

इस बीच दुनिया में अनेक भू-राजनीतिक और आर्थिक परिवर्तन हुए। व्यापार युद्ध में चीन और अमेरिका के बीच असीमित संघर्ष हुआ, जो अलग-अलग तरह से अब भी जारी है। किम-ट्रंप के मध्य कोरिया को परमाणु हथियारों से मुक्त करने के उद्देश्य से संपन्न दूसरी शिखर वार्ता इसलिए विफल हुई होगी कि चीन इसमें बाधक बना। यह तब परिलक्षित हो गया था जब इस बार हनोई शिखर सम्मेलन में जाने से पूर्व किम फिर चीन से मिलने गए। स्पष्ट है कि अमेरिका के साथ गंभीर विषय पर वार्ता को लेकर उत्तर कोरिया केवल अपने विवेक से नहीं चल रहा। इस संबंध में उसे चीन की बात इसलिए माननी पड़ रही है क्योंकि फिलहाल उसकी अर्थव्यवस्था का सारा दारोमदार चीन ही संभाल रहा है। उत्तर कोरिया का सर्वाधिक व्यापार, आयात और निर्यात चीन के साथ ही होता है। चीन इस समय दुनिया में कई भू-राजनीतिक, आर्थिक चुनौतियों तथा समस्याओं का कारक बन चुका है। वह ऐसा व्यापार में लाभार्जन के स्वार्थ के लिए कर रहा है। दक्षिण एशिया में भूमि, सागर, व्यापार और आतंक के कारण उत्पन्न विभिन्न राष्ट्रों के मध्य होने वाला संघर्ष हो या कोरियाई प्रायद्वीप में परमाणु परीक्षण और निरस्त्रीकरण को लेकर आकार ले रही वैश्विक चिंता या दुनिया के महाशक्तिशाली राष्ट्रों के बीच हर आधुनिक प्रतियोगिता में प्रथम आने की प्रतिस्पर्द्धा, चीन ने किसी भी स्तर पर शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व और वैश्विक कल्याण का दायित्व और मानवीयता की भावना से संचालित व्यवहार का प्रदर्शन नहीं किया।

कोरियाई प्रायद्वीप में सुख-शांति और समृद्धि लाने और परमाणु निरस्त्रीकरण की दिशा में दृढ़तापूर्वक आगे बढ़ने के लिए अगर उत्तर कोरिया पूरी तरह तैयार नहीं हो पा रहा और इस संबंध में ट्रंप-किम की वार्ता पूरी तरह विफल हुई है तो इसके लिए अकेले अमेरिका और उत्तर कोरिया दोषी नहीं हैं। इसमें वास्तविक दोषी चीन है, जो केवल अपनी व्यापारिक प्रतिबद्धताओं के लिए वैश्विक महत्त्व के कल्याणकारी कार्यों में गोपनीय तरीके से बाधक बन रहा है।

इस समस्या का समयबद्ध निराकरण न हो पाने का सबसे बड़ा कारण है कोरियाई प्रायद्वीप में शांति के लिए अमेरिका और उत्तर कोरिया की वार्ता के पक्ष में खुल कर अन्य देश सामने नहीं आ रहे। अगर अन्य देश प्रयास करते तथा वे अमेरिका और उत्तर कोरिया को पहली शिखर वार्ता के समझौते का क्रियात्मक अनुपालन करने के लिए प्रेरित करते या उनका किसी तरह मार्गदर्शन करते, तो हो सकता था हनोई की वार्ता सफल होती। ट्रंप और किम के बीच हनोई में हुई वार्ता का किसी सकारात्मक परिणाम के बिना ही विफल हो जाना सिद्ध करता है कि विश्व के अधिसंख्य राष्ट्र अपने-अपने स्वार्थ की परिधि से बाहर नहीं आना चाहते।