मूसलाधार बारिश पड़ रही थी। हर तरफ पानी ही पानी था। टेलीविजन पर एंकर चिल्ला रही थी- तेज बारिश, शहर पानी-पानी! एंकर साहिबा ने पीठ पीछे से वार किया था। मैं पानी-पानी हो गया। शहर और मेरी एक जैसी स्थिति तो नहीं थी, पर साहिबा की बात ने हम दोनों को एक नाव में जरूर सवार कर दिया था।
बारिश के साथ बादल भी गरज रहे थे। बीच-बीच में बिजली कड़क रही थी। तेज हवाएं घर के दरवाजे और खिड़कियों को बजा रही थीं। राष्ट्रवाद की तरह बरसात अपने जोबन का पूरा कहर ढा रही थी। मैं घबरा रहा था और अपने में और सिमटा जा रहा था।
ऐसी बरसात जब होती है, तो मोहल्ले का हर नाला उफान पर आ जाता है। कल तक जो चुपचाप मैला-सा बह रहा था, जमींदोज था, जिसको ढक कर रखा गया था, वह नभ के प्रताप से उद्दंड हो गया था। आसमान जरा-सा छलका था, पर गटर आपे से बाहर था। मेरे इलाके में और उसके आसपास नदी नहीं है, पर हमारा स्थानीय नाला नदी को अपनी मर्दानगी दिखाने के लिए उतावला हो गया था। मैले को हाथों में उठाए, नाली से सिर उठा कर, सीना फुलाए पूरे वेग के साथ सड़क पर उतर आया था। कुछ नारे भी शायद लगा रहा था। वह जब तक सड़क पर उत्पात करता रहा, तब तक मुझे कोई फर्क नहीं पड़ा था।
मैं अपनी चारदीवारी में सुरक्षित था। मैं आश्वस्त था कि जल्दी ही बारिश रुक जाएगी और फिर नगरपालिका के कर्मचारी आकर सड़क को साफ कर देंगे। हां, दो-चार दिन कीचड़ और बदबू जरूर सहनी पड़ेगी, पर फिर सब सामान्य हो जाएगा। पर बारिश का जोश घटा नहीं था। किसी ऊपर बैठे हुए देवता ने बंबा पूरी तरह से खोल दिया था और उसकी कृपा से नाला मदमस्त हो गया था। वह मेरे घर में घुस कर तांडव करने पर उतारू था।
मुझे पता नहीं चला, कब वह दरवाजे के नीच से चुपचाप मेरे घर में घुस आया था। जब वह सड़क पर हिलोरें ले रहा था तब मैं खिड़की से उसे देख कर कुछ चिंता में जरूर पड़ गया था। पर वह बुद्धिजीवी वाली सोच थी- आने वाली दुर्दशा की कल्पना करके सिहर जाने वाली सोच। जिम्मेदार नागरिक वाली सोच नहीं थी, जो नाले की चिंता किए बगैर बरसात का मजा लेती है। मेरे पड़ोसी अपनी प्रेयसी के साथ, नाले के बहते पानी में कागज की नावें तैरा रहे थे। मस्त थे।
भाई साहब, देखिए कितना सुंदर मौसम है। बाहर तो आइए, सड़क पर छपछप करते हैं और फिर चाय पकौड़ी का आनंद लेते हैं।
एक पल को मेरा भी मन हुआ कि नाले में उतर जाऊं। काफी लोग उतरे हुए थे- छपछप करके मस्त हो रहे थे, पर मैं ठिठक गया था। नाले का पानी है, इसमें मत जाओ, मैंने कहा था। आप भी बड़ी हुज्जत करते हैं, भाई साहब। इतनी जोर से बारिश हो रही है- नाला-वाला बह गया है, वह अब दूसरे मोहल्ले में मैला फैला रहा होगा। यहां सब साफ है। पड़ोसी ने आत्मविश्वास से कहा। मैं चुप हो गया। जनभावना का आदर करना मेरा स्वभाव रहा है। वैसे भी आकाशीय इशारे ने नाले को पावन गंगा बना दिया था। कुछ लोग उसकी स्वच्छता पर शक जरूर कर रहे थे, पर बादलों के गरजते और बिजली के चमकते ही जो सहम कर हर हर गंगे के जयघोष में शामिल हो जाते थे। मौसम के मिजाज के आगे आम लोगों की नहीं चलती है। वे उसके साथ हो लेते हंै। उत्सव मनाने लगते हैं। पकौड़े तलने में जुट जाते हैं।
मौसम का धर्म समझना बुद्धिजीवियों के वश की बात नहीं है। वे अपनी लकीर की फकीरी करते हैं, इसीलिए आज तक उनका विकास नहीं हो पाया है। उनका नाला नाला रह गया है, जबकि देश ने हर मोहल्ले में स्वच्छ जलमार्ग फुटपाथों को चूमते कल-कल बह रहे हैं। आत्मनिर्भर मोहल्ले अपने नलों को इन धाराओं से जोड़ चुके हैं। इसी को पीते हैं और इसी में दो वक्त नहाते हैं।
वैसे प्राचीन काल में नाले उपेक्षित नहीं थे। उनकी महिमा पर कई ग्रंथ थे, जिनको अवांछनीय लोगों ने नाले में फेंक दिया था। उसके बाद बड़े-बड़े वैज्ञानिक आए और मर-खप गए, पर वे बरसात और नालों का रिश्ता नहीं समझ पाए थे। उन्होंने बिना ऊपर देखे नालों को निचला दर्जा दे दिया था, क्योंकि उन्होंने सिर्फ बाएं वाले नालों का अध्ययन किया था, जो कि मैले से जुड़े थे। दाहिने वालों को नहीं खंगाला था। ‘राइट इज रांग’ के पूर्वाग्रह के चलते वे नालों और बरसात के दैविक सत्य से वंचित रह गए थे। शायद उनका विज्ञान संकुचित था, इसलिए वे लेफ्ट-लेफ्ट की कवायद करते रहे और राइट उठाना भूल गए थे। वे जमीन पर नालों की स्वच्छता का हल ढूंढ़ते रह गए थे, जबकि उन्हें ऊपर देखना चाहिए था। शीर्ष कारक था- ऊपर वाला जब चाहता था नालों में इतना पानी भर देता था कि गंदगी घरों में घुस जाती थी और नाले साफ हो जाते थे।
यह एक वैज्ञानिक तरीका ही नहीं था, बल्कि क्रांतिकारी समाजवादी सोच भी थी। इसके अनुसार गंदगी नालों की ही मिल्कियत क्यों हो? समाज के हर शख्स को इस जागीर में बराबर का हिस्सा मिलना चाहिए। हिस्सेदारी जरूरी थी। सबका विश्वास हिस्सेदारी के जरिए जीता जाता था।
वैसे भी उफनते नालों को समाज में लाना उतना ही जरूरी है, जितना समाज को नालों में उतारना। समाज भी तो एक नाला है- कभी पूरे जोश में बहता है, तो कभी ठहर जाता है। सड़ांध मारने लगता है। बरसात में तो दोनों एक हो जाते हैं। नाले घर-घर जाकर जबरन पकौड़ी तलवाते हैं और आम लोगों के साथ बैठ कर बरखा बहार में भीगते हैं। वास्तव में नाले ऐसे विशेष प्राणी हैं, जो बरसात को घर के अंदर सम्मानजनक प्रवेश दिलाते हैं, घर के सामान को अपनी धारा में डुबकी लगवाते हैं और अपनी विशेष खुशबू से कपड़ों, गलीचों और बर्तनों को लबालब कर देते हैं। कार को बोट बना देते हैं, हमको पानी पर चलना सिखा देते हैं, नर-भेद बता देते हैं। नाले चमत्कारी होते हैं। उनकी महिमा मेरे मोहल्ले से लेकर जंतर मंतर तक फैली हुई है।