राजकुमार भारद्वाज

पिछले कुछ वर्षों से पूरे विश्व में समग्र और संवहनीय विकास पर विमर्श चल रहा है। आर्थिक, भौतिक दृष्टि से पिछड़े, विकसित और विकासशील राष्ट्र, सब इस विमर्श में शामिल हैं। यह भी कहा जा रहा है कि समग्र और संवहनीय विकास का आधार शिक्षा बन सकती है। ऐसे में भारत की नई पीढ़ी को शिक्षा से संस्कारित करने का मूलभूत काम शिक्षकों को करना होगा। पर सवाल है कि क्या आज देश में शिक्षकों का उतना सम्मान है, जितना होना चाहिए। गुरु-शिष्य परंपरा वाले देश में हम एक भ्रष्ट नेता, नौकरशाह या व्यापारी से मिल कर प्रसन्न होते हैं, पर क्या अपने या अपने बच्चे के शिक्षक से मिल कर होते हैं?

देश में सबका साथ, सबका विकास की बात कही जा रही है। तकनीक ने पिछले तीन दशक में जो बदलाव किए हैं, उनसे पूरी दुनिया चकित है। समाज हो या राजनीति का क्षेत्र या फिर अर्थ जगत, सब कुछ रातोंरात बदल रहा है। डिजिटल करेंसी की बात हो रही है। सूचना क्रांति के बाद अब अगली औद्योगिक क्रांति की बात हो रही है। गांव खाली हो रहे हैं, शहरीकरण बढ़ रहा है, पश्चिम के मॉडल को आदर्श मान लिया गया है। अधिक से अधिक भोग, अधिक से अधिक उत्पादन की बात हो रही है।

विषमता बढ़ रही है। तकनीक ने जीवन दृष्टि बदल दी है। आज का मानव धरती का पेट चीर कर सब कुछ एक दिन में भोग लेना चाहता है। विश्व की बीस प्रतिशत जनसंख्या दुनिया के अस्सी प्रतिशत संसाधनों को भोग रही है, जबकि अस्सी प्रतिशत जनता को बीस प्रतिशत संसाधनों पर निर्भर रहना पड़ रहा है। नतीजतन त्रासदियां, विसंगतियां, आतंकवाद, भ्रष्टाचार बढ़ रहे हैं। इससे धन की निरंकुशता बढ़ रही है।

नदियां समाप्त हो रही हैं, भूमि की उर्वरा शक्ति कम हो रही है, मरुस्थल बढ़ रहे हैं। भ्रातृत्व भाव कम हो रहा है। रोजगार कम हो रहे हैं। उपभोग पर नियंत्रण, संयम की बात कहीं नहीं है। अंतत: शिक्षा का उद्देश्य क्या है? क्या एक सुंदर, स्वच्छ, ईमानदार और एक-दूसरे का सहयोग करने वाला समाज बनाना शिक्षा का उद्देश्य नहीं है। अगर है, तो क्या शिक्षा अपना उद्देश्य पूरा कर पा रही है? आज मनुष्य विकास के नाम पर पूरी प्रकृति को विनाश के रास्ते पर धकेल रहा है, क्या ऐसे मनुष्य का निर्माण कर शिक्षक भी अपना उद्देश्य पूरा कर पा रहे हैं?

क्या हम पश्चिम की अंधाधुंध नकल कर शिक्षा के उद्देश्य को पूरा कर पा रहे हैं? क्या हमारे शिक्षण संस्थानों में शिक्षक इस बात पर संवाद, विमर्श कर भी रहे हैं या नहीं? पांच दशक पहले अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति रूजवेल्ट ने अधिकाधिक उपभोग और अधिकाधिक उत्पादन पर बल दिया था, लेकिन वहीं के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने कुछ ही दशकों के बाद अमेरिका की जनता को संबोधित करते हुए कहा था, हमारा देश गंभीर आर्थिक संकट से जूझ रहा है और इससे बचने का एक ही रास्ता है- कम से कम लालच और कम से कम उपभोग। क्या आज भारत भी आर्थिक चुनौती का सामना नहीं कर रहा? ऐसे में सवाल है कि हमारी जीवन-दृष्टि क्या हो। क्या शिक्षा और शिक्षक हमें वह जीवन-दृष्टि दे पा रहे हैं?

ऐसे में जब हम पाश्चात्य दर्शन और तकनीक की नकल के बावजूद सफल नहीं हो पा रहे, तो क्या हमें अपनी शिक्षा, शिक्षण और शिक्षकों के बीच तकनीक, कृत्रिम बुद्धिमता और आभासी शिक्षण की कितनी आवश्यकता है, इस पर विमर्श नहीं होना चाहिए? कोविड महामारी के बाद पूरे देश में शिक्षण में तकनीक के अधिकाधिक उपयोग, आभासी शिक्षण की बात की जा रही है?

निश्चित रूप से शिक्षण में तकनीक की आवश्यकता आज बढ़ी है, लेकिन क्या तकनीक हमारी हजारों वर्षों से चली आ रही उस शिक्षण पद्धति का विकल्प हो सकती है, जिसके माध्यम से हमारे ऋषि अपने शिष्यों को पूरे के पूरे वेदों की ऋचाएं स्मरण करा देते थे। उस समय गूगल, हार्ड डिस्क या क्लाउड जैसी कोई चीज नहीं थी। पर तक्षशिला और नालंदा जैसे विश्वविद्यालयों ने हमारे उस ज्ञान को अपने छात्रों को स्मरण करा कर बचा लिया था, जिसके ग्रंथ आतताइयों ने नष्ट कर दिए थे। प्रश्न यह भी है कि क्या तकनीक से बना रोबोट या तकनीक मानवीय संवेदनाएं भी प्रस्फुटित कर देंगी?

पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने कहा था, ‘श्रेष्ठतम शिक्षण लोकभाषा और लोक माध्यमों को केंद्र में रख कर लोक की सहभागिता से ही सुनिश्चित होता है और यही समग्र और संवहनीय विकास का आधार बनता है।’
नई शिक्षा नीति में भारत सरकार ने नवाचार, कौशल विकास और छात्रों में मानवीय गुणों के विकास की बात कही है। पर सरकार के नीतिकारों को यह बात भी स्पष्ट रूप से समझ लेनी चाहिए कि पश्चिम की खंडित सोच वाली शिक्षण पद्धति, तकनीक और मानदंडों को अपना कर उसका सपना पूरा नहीं हो सकता।

यह स्वप्न केवल तभी साकार हो सकता है, जब शिक्षा के मूलभूत दर्शन में बदलाव होगा। इसके केंद्र में प्राणी, सृष्टि, वनस्पति और मानव सबको रखना होगा। सबका सहअस्तित्व है। इनमें से किसी एक के बिना एक का भी अस्तित्व नहीं है। क्या एक संपूर्ण मनुष्य के निर्माण हेतु आज हमारे शिक्षकों को विकास की सीमा, विकास के मानदंड पर विमर्श करना जरूरी नहीं है?

आज शिक्षक और शिक्षार्थी के संबंध पर भी विमर्श जरूरी है। चाणक्य ने जब तक्षशिला में अपनी पढ़ाई पूरी की, तो दीक्षांत के बाद उनके सभी सहपाठियों को देश भर में शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए भेज दिया, लेकिन चाणक्य की विद्वता और समर्पण को देखते उन्हें वहीं पाठन करने के लिए कहा। उन्हीं चाणक्य ने बाद में चंद्रगुप्त को जंगल में पहचाना, उसके लिए पांच हजार कांस्यार्पण में अपनी पांडुलिपि बेच चंद्रगुप्त के मामा को दिए और उसे भारत का श्रेष्ठतम शासक बनाया। गार्गी ने गुरु याज्ञवल्क्य से हजारों प्रश्न पूछे, लेकिन वे नाराज नहीं हुए।

आधुनिक संदर्भ में- आशुतोष चटर्जी, मार्क्सवादी नेता सोमनाथ चटर्जी के पिता, शिक्षक थे। जब वे विदेश से पढ़ कर भारत लौटे तो उनके गुरु ने अपने शिष्य का स्टेशन पर माला पहना कर स्वागत किया। उनके शिष्य को इस बात की भनक तक नहीं थी।

इसमें कोई दो राय नहीं कि पूरी दुनिया की दृष्टि आज भारत पर टिकी है। वर्षों पहले ऑस्ट्रेलिया के दार्शनिक इर्विन श्रोडिंगर ने भारत की ओर देखने की बात कही थी। हाल के ही वर्षों में अमेरिका के एक दर्शनशास्त्री ने भी कहा था कि हम दार्शनिक प्रलय से बचने के लिए भारत की ओर देख रहे हैं।

यह संभव है, लेकिन केवल तब जब शिक्षा की दुनिया में उच्च प्रामाणिकता प्राप्त लोग शिक्षक बनें और तकनीक के साथ केवल आवश्यक तालमेल बना कर समग्र विकास- संवहनीय विकास का आध्यात्मिक मार्ग चुन कर भारत को पुन: विश्व गुरु बनाने की दिशा में पहल करें। सरकार और समाज को भी इसके लिए अपना सब कुछ खुले मन से शिक्षकों हेतु खोलने का साहस करना चाहिए।