राष्ट्रीय शिक्षा नीति की औपचारिक घोषणा को एक साल हो चुके हैं। पिछले कुछ महीनों से इसके कुछ आयामों को लेकर चर्चा जारी है। नई पाठ्यचर्या और नई राष्ट्रीय शिक्षक-शिक्षा पाठ्यचर्या बनाने के क्रम में भी कुछ पहल हुई है। चर्चाओं की मुख्य विषय ‘शिक्षक’ हैं। एक तरफ कार्यरत शिक्षकों को ‘सशक्त’ बनाने का लक्ष्य रखा गया है, तो दूसरी तरफ नए प्रशिक्षु शिक्षकों की तैयारी के लिए पाठ्यक्रम और प्रशिक्षण में बदलाव की योजना है। आने वाले दिनों में शिक्षकों के प्रशिक्षण की योजना बनेगी, तो देखने की बात होगी कि क्या नए प्रशिक्षण पहले के प्रशिक्षण से अलग हैं? क्या इससे शिक्षा में बदलाव सुनिश्चित होता है?

स्कूली शिक्षकों को ‘सशक्त’ बनाने के कार्य में संस्थाएं पिछले तीन दशक से काम कर रही हैं। अपवादों को छोड़ दें तो शिक्षकों का एक छोटा वर्ग ही प्रशिक्षण के बाद अपेक्षित बदलाव के लिए जमीनी स्तर पर प्रयास करता रहा है। हालांकि जो शिक्षक अपने विद्यालय में योजनाबद्ध ढंग से गुणवत्ता पर कार्य करना चाहते हैं उनको भी गैर-शैक्षणिक कार्यों से फुर्सत नहीं मिलती। अगर एक अकादमिक वर्ष में किसी प्राथमिक विद्यालय के अध्यापकों की विद्यालयी या विभागीय कार्य हेतु ‘उपस्थिति’ और छात्रों के लिए कक्षा में उनकी उपलब्धता का विश्लेषण किया जाए, तो इसके निष्कर्ष योजनाकारों के लिए उपयोगी होंगे। दरअसल, होता यह है कि तकनीकी तौर पर शिक्षक ‘ड्यूटी’ पर होते हुए भी कक्षा में उपलब्ध नहीं हो पाते हैं।

शिक्षा में गुणवत्ता को लेकर लगातार प्रयास और प्रशिक्षण चलते रहे हैं, लेकिन दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्यप्रदेश, बिहार, झारखंड, गुजरात, पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों में सरकारी प्राथमिक-मिडिल स्कूल स्तर पर छात्रों की पढ़ाई को लेकर विशेष उल्लेखनीय उपलब्धि नहीं देखी गई है। शिक्षकों की कमी भी एक मुद्दा है। अब भी देश में लगभग आठ प्रतिशत स्कूल एकल शिक्षक के भरोसे चल रहे हैं। शिक्षा में सुधार की प्रत्येक नई पहल कुछ नए आंकड़ों की मांग करती है और शिक्षकों का कुछ समय ‘आंकड़ों’ के प्रबंधन में चला जाता है।

सर्व शिक्षा अभियान और अन्य योजनाओं के अंतर्गत 2001 से 2018 के बीच स्कूली शिक्षकों के लिए सरकारी और गैर-सरकारी संगठनों द्वारा अनुमानत: बाईस सौ से अधिक अवधारणाओं पर प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित किए गए। इनमें पढ़ाने के तरीके से लेकर संप्रेषण, कक्षा-व्यवस्थापन, मूल्यांकन तक पर प्रशिक्षण दिए गए। लेकिन क्या स्कूली शिक्षा में आधारभूत बदलाव आए? इसके बरक्स शिक्षा का अधिकार कानून लागू होने के एक दशक के भीतर देश में एक लाख से अधिक सरकारी विद्यालय बंद कर दिए गए। स्कूलों को बंद करने का मुख्य कारण छात्रों का नामांकन कम होना बताया गया।

कुछ राज्यों में स्कूलों में शिक्षकों की कमी को पूरा करने के लिए शिक्षकों की नियुक्ति के बजाय दो-तीन स्कूलों को एक साथ मिला दिया गया। इस तरह एक स्कूल में शिक्षकों की संख्या तो बढ़ गई, लेकिन कुछ छात्रों के लिए स्कूल दूर हो गए। अब जब नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति तीन वर्ष की उम्र के बाद ही औपचारिक शिक्षा का आगाज करना चाहती है, तो क्या बच्चों के घर के पास बंद हो चुके स्कूलों को फिर से खोला जाएगा या आंगनवाड़ी का विस्तार करके अतिरिक्त कक्ष बनाए जाएंगे?

दरअसल, शिक्षक प्रशिक्षण के अब तक के अनुभवों पर व्यापक विमर्श करने के बजाय एक बार फिर शिक्षक प्रशिक्षण शुरू हो रहा है। बहुमत में जिन शिक्षकों ने सर्व शिक्षा अभियान और राष्ट्रीय पाठ्यचर्या-2005 के अंतर्गत प्रशिक्षण लिया था, उन्हें अब राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 और नई राष्ट्रीय पाठ्यचर्या के आलोक में प्रशिक्षित किया जाएगा। इस संदर्भ में सवाल है कि शिक्षकों के अनुभव से सीखने के बजाय, बार-बार शिक्षक प्रशिक्षण का तरीका अपनाना शिक्षा में गुणवत्ता के लिए कितना प्रभावी होगा?

प्रत्येक प्रशिक्षण शिक्षकों को सक्षम बनाने की योजना से शुरू होता है। मगर यह विचार करना होगा कि शिक्षकों की अपनी सीमाएं क्या हैं? नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति बनाने में शिक्षकों की कितनी भूमिका रही है? क्या शिक्षकों ने इसके कार्यान्वयन की योजना और समय-सीमा तय की है? क्या शिक्षकों के पास स्कूल स्तर पर अपनी बनाई योजना को अमल में लाने के लिए कोई वित्तीय संसाधन और निर्णय लेने की आजादी उपलब्ध है? शिक्षा का अधिकार कानून के बाद सभी स्कूलों को स्कूल विकास के लिए वार्षिक योजना बनाने का कार्य दिया गया था।

इसका उद्देश्य था कि स्कूलों को इस योजना के आधार पर बजट आबंटित किया जाएगा। लेकिन स्कूल विकास योजना के साथ संसाधन का समन्वय अभी तक नहीं हो सका और स्कूल विकास की स्थानीय योजना सिर्फ कागजी औपचारिकता बन कर रह गई। जब तक शिक्षकों की स्कूल में सकारात्मक बदलाव करने की सीमाओं को नहीं पहचाना जाएगा, तब तक गुणवत्तापूर्ण बदलाव की पहल प्रभावी और दीर्घजीवी बनेगी, इसमें संदेह है।

नई शिक्षा नीति के अंतर्गत एक बार फिर सेवा पूर्व शिक्षकों के प्रशिक्षण के पाठ्यक्रम में भी बदलाव अपेक्षित है। बीएड के पाठ्यक्रम को एक वर्ष से बढ़ा कर पहले ही दो वर्ष का किया जा चुका है। क्या इस पाठ्यक्रम को दो वर्ष का कर देने से हमारे पास ‘गुणवत्ता पूर्ण’ शिक्षकों की आमद बढ़ गई है? पहले से ही कुछ संस्थानों में बारहवीं के बाद चार वर्षीय शिक्षक प्रशिक्षण पाठ्यक्रम भी प्रचलन में है।

अब इसका भी विस्तार होना है। क्या अब यह जरूरी नहीं है कि शिक्षक-प्रशिक्षण संस्थानों के मानकों को नए ढंग से परिभाषित किया जाए? होना तो यह चाहिए कि देश भर में शिक्षक-प्रशिक्षण संस्थानों और उनकी गुणवत्ता की रैंकिंग के लिए उनमें पढ़ चुके पूर्व और वर्तमान छात्रों के विचार लिए जाएं और उसके साथ ही उनकी गुणवत्ता के लिए ‘सोशल आडिट’ की व्यवस्था लागू की जाए।

शिक्षकों का अपने पर, प्रशिक्षकों और राष्ट्रीय शिक्षा नीति द्वारा बदलाव पर कितना विश्वास जमता है, यह देखना होगा। कुछ वर्ष पहले मध्यप्रदेश के भिंड जिले में, एक जिला शिक्षा अधिकारी ने अपने बच्चे का नामांकन एक सरकारी मिडिल स्कूल में करा दिया। उस वर्ष वहां बारह शिक्षक थे और उस विद्यालय में कुल पैंतीस छात्र बचे थे। शिक्षा अधिकारी के बच्चे के नामांकन के साथ ही वहां माहौल बदलने लगा। अगले वर्ष उसी विद्यालय में छात्रों की संख्या पांच सौ से अधिक हो गई। आसपास के सभी बच्चे निजी स्कूल छोड़ कर उसी स्कूल में आने लगे। स्कूल बढ़िया चलने लगा। क्या इन प्रयोगों से कुछ सीखा जा सकता है?

अब नई शिक्षा नीति को लेकर यह देखना दिलचस्प होगा कि इस नीति को बनाने और उसे क्रियान्वित करने की जिम्मेदारी जिन लोगों पर है, उनका खुद का सरकारी स्कूलों और उनके शिक्षकों पर कितना भरोसा है? यह भी एक सूचकांक होगा, जो स्कूली शिक्षा में बदलाव का आगे का रास्ता तय करेगा।