ज्योति सिडाना
किसी भी देश की अर्थव्यवस्था को वहां की श्रम पूंजी आकार देती है, यानी श्रम शक्ति के बिना कोई भी अर्थव्यवस्था गति नहीं पकड़ सकती। मगर यह कैसी विडंबना है कि वही श्रम शक्ति विकास की छाया से भी कोसों दूर है। यहां तक कि यह वर्ग किसी भी प्रकार के विकास का लाभ नहीं ले पाया है। उसका सारा जीवन संघर्ष में बीतता है- कभी नियोक्ता से संघर्ष, तो कभी दिन-प्रतिदिन की आवश्यकताएं जुटाने के लिए संघर्ष। अपने इस जीवन के लिए ईश्वर की कृपा या अपने पूर्व जन्म को जिम्मेदार मान लेने की प्रवृत्ति उसे इस मकड़जाल से निकलने भी नहीं देती। दूसरी तरफ कितना बड़ा विरोधाभास है कि पूंजीपति वर्ग अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए तो श्रमिक वर्ग का दोहन करता है, पर इनकी आवश्यकताओं की पूर्ति में स्वयं को इनसे अलग कर लेता है। कोविड-19 के दौर में इसके अनेक उदाहरण देखे जा सकते हैं।

इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि वैश्वीकरण के बाद से राज्य के कल्याणकारी चरित्र में बदलाव आया है। धीरे-धीरे राज्यों में श्रमिक विरोधी दृष्टिकोण विकसित होते जा रहे हैं। कार्यस्थल एक विषमरूपीय संरचना है, यह औपचारिक-अनौपचारिक, राज्य स्तरीय-केंद्र स्तरीय, संगठित-असंगठित, निजी-सार्वजानिक विभिन्न प्रकार का होता है। देखा जाए तो औपचारिक कार्यस्थल पर काम करने वाले श्रमिकों को एक सीमा तक सुरक्षा होती है, जबकि अनौपचारिक कार्यस्थल पर ऐसा नहीं होता। लेकिन यह भी सच है कि वैश्वीकरण के बाद से औपचारिक क्षेत्रों में भी सुरक्षा की गारंटी नहीं है। मसलन, वर्ष 2004 से सरकारी क्षेत्र में भी पेंशन समाप्त कर दी गई है। ऐसा नहीं कि कोरोना काल में ही इस तरह की असुरक्षा बढ़ी है। हां, इतना जरूर है कि इस समय में इस तरह की असुरक्षा और भय में वृद्धि हुई है। समाजशास्त्री एमिल दुरखाइम इसे मौलिक अन्याय कहते हैं। यह एक महत्त्वपूर्ण कारण है, जिसकी वजह से श्रमिक वर्ग में अलगाव और निराशा के भाव उत्पन्न होते हैं।

कोविड महामारी ने न सिर्फ वैश्विक स्वास्थ्य संकट को उत्पन्न किया है, बल्कि इसने श्रम बाजार के सामने भी एक बड़ा संकट पैदा किया है, जिसने हर तबके के लोगों को बड़े पैमाने पर प्रभावित किया है। यही कारण है कि इन दिनों बेरोजगारी बढ़ी है, उत्पादन स्थगित होने के कारण मजदूरों का पलायन बढ़ा है।
सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) के अनुसार मार्च, 2021 तक 7.62 करोड़ लोग नौकरी में थे, जबकि पिछले वित्त वर्ष में उनकी संख्या 8.59 करोड़ थी। इस हिसाब से पिछले एक साल में अट्ठानबे लाख नौकरी-पेशा लोग बेरोजगार हुए। अगर गांवों की बात करें तो वहां मार्च, 2021 तक साठ लाख लोगों की नौकरियां गई थीं, जबकि तीस लाख कारोबारी बेरोजगार हुए थे। इस तरह पिछले एक साल में गांवों में कुल नब्बे लाख रोजगार खत्म हो गए।

पहले राष्ट्र-राज्य की अवधारणा का संघर्ष वैश्वीकरण, निजीकरण और उदारीकरण की प्रक्रियाओं के साथ था, उसके बाद बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ उसका द्वंद्व उभर कर आया। इन कॉर्पोरेट सेक्टर में काम करने वाली प्रत्येक इकाई उस कंपनी के एजेंट के रूप में काम करती है और यह कोशिश करती है कि उस कॉरपोरेशन के कार्य क्षेत्र का विस्तार हो सके या उसके लाभ में वृद्धि हो सके। और जब तक श्रमिक ऐसा करने में समर्थ होता है तब तक उसकी नौकरी रहती है। परिणामस्वरूप, वह अनेक प्रकार के तनाव झेलने को बाध्य होता है। आईएलओ की एक रिपोर्ट में वैश्विक श्रम शक्ति की संख्या तीन अरब तीस करोड़ बताई गई है, जिनमें से दो अरब से ज्यादा लोग अनौपचारिक अर्थव्यवस्था का हिस्सा हैं। इनमें से करीब पचास फीसद अपनी आजीविका खोने के खतरे का सामना कर रहे हैं। लाखों श्रमिकों के पास भोजन के लिए आय, सुरक्षा और भविष्य में गुजर-बसर करने का कोई जरिया नहीं है। आजीविका के वैकल्पिक साधनों के अभाव में प्रभावित श्रमिकों और उनके परिवार के लिए जीवन-यापन बेहद चुनौतीपूर्ण हो गया है।

इसी रिपोर्ट के अनुसार कार्यस्थलों पर असुरक्षित और स्वास्थ्य के लिए हानिकारक माहौल, ज्यादा तनाव, काम करने के लंबे घंटों और बीमारियों की वजह से हर साल अठाईस लाख कामगारों की मौत होती है। हर साल 37.4 करोड़ लोग नौकरी से जुड़ी वजहों से या तो बीमार पड़ते हैं या फिर घायल होते हैं। इसके कारण भी श्रमिकों में भय, असुरक्षा और भविष्य के प्रति अनिश्चितता में वृद्धि हुई है।

देखा जाए तो इन तीनों प्रक्रियाओं (वैश्वीकरण, निजीकरण और उदारीकरण) ने राज्य को निगमीय चरित्र का बना दिया है और इसलिए एक निगम की भांति राज्य भी समूह कल्याण के तर्क से स्वयं को पृथक करके लाभ कमाने की प्रक्रिया का हिस्सा बना है और राज्य में रहने वाले नागरिक धीरे-धीरे उपभोक्ता का रूप लेते जा रहे हैं। बहुराष्ट्रीय कंपनियां जिस तरह के सांस्कृतिक, नगरीय और राजनीतिक परिवेश को उत्पन्न कर रहे हैं उससे एक नए प्रकार का समाज पुनर्निर्मित हो रहा है। अब समाज में जो संघर्ष उभर कर आ रहा है वह एक तरह से लोकतंत्र और बाजार के बीच का संघर्ष है।

यह संघर्ष सामूहिक नियंत्रण एवं व्यक्ति नियंत्रण के मध्य का है। अब श्रम बाजार में सामूहिक सौदेबाजी और औद्योगिक लोकतंत्र जैसे पक्ष अर्थहीन हो चुके हैं। क्या बहुराष्ट्रीय कंपनियों में इन अवधारणाओं का कोई महत्त्व है भी? निश्चित रूप से नहीं है। साथ ही बाजार ने श्रमिक की श्रेणी को अनेक भागों में विभाजित कर दिया है। इस विभाजन ने श्रमिकों की एकता को भी विभाजित कर दिया है, उनमें भी उच्चता और निम्नता का भाव उत्पन्न हो गया है और विभाजित समूहों से किसी प्रकार के संगठित विरोध की अपेक्षा करना कठिन ही नहीं, असंभव होता है।

इसमें कोई शक नहीं कि महिलाओं की शिक्षा में वृद्धि के बाद से वे अब बड़ी संख्या में श्रमबल का हिस्सा बन रही हैं। लेकिन इसके बावजूद लैंगिक भेदभाव एक बड़ी समस्या बना हुआ है। आईएलओ की एक और रिपोर्ट में सत्तर देशों की तेरह हजार कंपनियों का अध्ययन किया गया है और हर दस में से छह कंपनियों ने माना कि लैंगिक विविधता से उनकी कंपनी के प्रदर्शन में सुधार आया है और उनकी सृजनात्मकता, नवाचार और प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई है। साथ ही जिन कंपनियों ने प्रबंधन वाले पदों में महिलाओं को अवसर दिया उनमें से तीन चौथाई ऐसी कंपनियां हैं, जिन्हें पांच से बीस प्रतिशत तक फायदा हो रहा है। पर इन सकारात्मक परिणामों के बाद भी महिला श्रमिकों की स्थति में कोई बहुत बड़ा बदलाव नहीं हुआ है।

आज भी उन्हें कार्यस्थलों पर लैंगिक भेदभाव, लैंगिक पूर्वाग्रह, यौन-उत्पीडन, पुरुष सहकर्मियों की तुलना में कम वेतन आदि का सामना करना पड़ता है। महिला श्रमिकों के लिए शौचालय, बच्चों के लिए पालना गृह, यौन उत्पीड़न के विरुद्ध शिकायत करने हेतु अंदरुनी शिकायत समिति (विशाखा गाइड लाइन्स के अनुसार) की स्थापना लगभग सभी औपचारिक और अनौपचारिक कार्य क्षेत्रों से नदारद होती या केवल कागजों में होती हैं।

विचित्र है कि इस महामारी काल में एक तरफ कॉर्पोरेट क्षेत्र का लाभ बढ़ता गया और दूसरी तरफ श्रमिकों की आय में कटौती या नौकरी से छंटनी बढ़ती गई। इसलिए अब जरूरी हो गया है कि राज्य बाजार पर नियंत्रण और कामगार वर्गों को सुरक्षा प्रदान करे, अन्यथा इस संकट के बाद अर्थव्यवस्था को वापस पटरी पर लाना चुनौतीपूर्ण होगा।