अच्छा लगा छात्रों को सड़कों पर उतरते देख कर। अच्छा लगा उनको सीबीएसई के दफ्तर के सामने धरना देते हुए। उनका कसूर नहीं है कि प्रश्नपत्र लीक हुए हैं, लेकिन सजा उनको मिल रही है। परीक्षा देने के बाद दोबारा परीक्षा देने को क्यों मजबूर किया जा रहा है लाखों विद्याथियों को, जब सारी गलती उन अधिकारियों की है जिनके कंधों पर भारत के बच्चों को उत्तम शिक्षा उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी है। उत्तम शिक्षा वैसे तो कभी भी दे नहीं पाए हैं ये अधिकारी। इसके लिए कभी भी किसी अधिकारी को दंडित नहीं किया गया है। इस बार बच्चों के साथ इतना अन्याय हुआ है कि प्रधानमंत्री को खुद इस मामले में दखल देकर सीबीएसई के उन आला अधिकारियों को बर्खास्त करना चाहिए, जिनको उन्होंने नियुक्त किया है। प्रधानमंत्री कई बार गर्व से कह चुके हैं कि उनकी ‘मन की बात’ का सबसे ज्यादा असर भारत के बच्चों पर हुआ है। हर मन की बात के बाद प्रधानमंत्री को सबसे ज्यादा पत्र इन बच्चों से ही आते हैं। तो क्या इतनी बड़ी घटना के बाद भी प्रधानमंत्री का फर्ज नहीं बनता था कि कुछ बोलें? मानव संसाधन विकास मंत्री से हम सुन चुके हैं कि जांच समिति बिठाई जाएगी और यह भी सुन चुके हैं कि पेपर लीक होने की खबर सुनने के बाद उनको सारी रात नींद नहीं आई थी। इतना काफी नहीं है मंत्रीजी। बिल्कुल काफी नहीं है। पहले तो आप उन अधिकारियों को दंडित कीजिए जिनकी लापरवाही की वजह से यह सब हुआ है और उसके बाद आपसे हम सुनना चाहेंगे कि मंत्री बन जाने के बाद आपने हमारी रद्दी शिक्षा प्रणाली में सुधार लाने के लिए क्या कुछ किया है।

माना कि मोदी सरकार को रद्दी सरकारी स्कूल, कॉलेज और अन्य शिक्षा संस्थाएं विरासत में मिले हैं। लेकिन क्या पिछले चार साल में कुछ भी सुधार नहीं हो पाया है? कुछ महीने पहले मेरी मुलाकात प्रकाश जावड़ेकर साहब से हुई थी और मैंने उनसे पूछा कि शिक्षा अधिकार कानून को कब रद्द करने जा रहे हैं? उनका जवाब था कि इस कानून को रद्द करना मुश्किल है, क्योंकि आम लोगों को ऐसा नहीं लगना चाहिए कि मोदी सरकार उनको दिया हुआ अधिकार छीन रही है। लेकिन सच तो यह है कि इस अधिकार से भारत के बच्चों को कुछ भी हासिल नहीं हुआ है। सरकारी स्कूल वैसे के वैसे रहे हैं। इस कानून के बन जाने के बाद और कई छोटे-मोटे गांव के प्राइवेट स्कूल बंद हो गए हैं, क्योंकि इस कानून के तहत जो सुविधाएं अनिवार्य कर दी गई हैं, वे छोटे स्कूल दे नहीं पाए हैं। ये वही स्कूल हैं जिन पर गरीब से गरीब बच्चे निर्भर हैं। सुधार और भी हो सकते थे। प्रधानमंत्री अगर सुधार लाना चाहते तो ला सकते थे, उन राज्यों में जहां भारतीय जनता पार्टी की सरकारें हैं। आज काफी राज्यों में मुख्यमंत्री हैं भारतीय जनता पार्टी के और इनमें से एक भी ऐसा नहीं है जिसने अपने राज्य के स्कूलों को बेहतर बनाने का काम किया हो। कुछ ऐसे हैं जिन्होंने छोटा-मोटा परिवर्तन लाने की कोशिश की है। लेकिन अगर एक भाजपा-शासित राज्य में भी स्कूल-कॉलेजों में असली सुधार हुआ होता तो अन्य मुख्यमंत्रियों के लिए उदाहरण बन सकता था।

अच्छे स्कूल और कॉलेज तब बनते हैं जब अच्छे अध्यापकों के साथ अच्छी संस्थाएं भी निर्मित होती हैं। शिक्षा क्षेत्र में प्रशासनिक सुधार भी जरूरी हैं। अब सीबीएसई के प्रश्नपत्र लीक हो जाने के बाद साबित हो गया है कि प्रशासनिक सुधार बिलकुल नहीं हुए हैं। उलटा सीबीएसई की जिम्मेदारी एक ऐसे अधिकारी को दी गई है जो आक्रोशित छात्रों के सड़कों पर उतरने के बाद गायब हो गर्इं। आखिर में जब टीवी पत्रकारों ने उनको ढूंढ़ निकाला तो ऐसे पेश आर्इं कि जैसे मामूली-सी कोई बात हुई हो। मुस्कराते हुए कहा अनिता करवल ने, कि जो भी करने जा रही हैं, बच्चों के भले के लिए करेंगी। क्या बच्चों को दोबारा वही परीक्षा देने को मजबूर कर उनको दंडित नहीं किया जा रहा है? क्या इससे अच्छा नहीं होता, अगर कोई और रास्ता निकल सकता?

विकसित देशों और पिछड़े हुए देशों में सबसे बड़ा फर्क अगर देखने को मिलता है तो वह है शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्रों में। सो, भारत के काबिल बच्चे विकसित देशों के विश्वविद्यालयों में जाने की पूरी कोशिश करते हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि भारत में उनको वह शिक्षा नहीं मिल सकती जो अमेरिका या यूरोप में मिलती है। रही बात स्वास्थ्य सेवाओं की, तो हमारे राजनेता जब बीमार पड़ते हैं तो भागे-भागे जाते हैं विदेश में इलाज करवाने। जाते हैं हमारे पैसों से, लेकिन हमने कभी एतराज नहीं किया है। क्या अब समय नहीं आ गया है एतराज करने का? क्या समय नहीं आ गया है कि हमारे आला अधिकारी उन सरकारी अस्पतालों में इलाज करवाएं, जिनमें जाने के लिए आम भारतीय मजबूर हैं? क्या समय नहीं आ गया है कि आला अधिकारियों के बच्चे उन सरकारी स्कूलों में शिक्षा पाएं, जिनको भारत के आम बच्चों के लिए बनाया गया है? हम दशकों से चुप रहे हैं। अब समय आ गया है ऊंची आवाज में बोलने का। सो अच्छा लगा छात्रों को सड़कों पर उतरते देख कर।