ट्विटर रोष संवैधानिक-सा लगने लगा है- एक विधि या प्रक्रिया की तरह, जिससे हमारे लोकतंत्र का दिन-रात एजेंडा सेट हो रहा है। शायद यह उस लोक-बहस की मुख्यधारा भी बन गया है, जो हम आमतौर पर संसद या विधान भवनों में चाहते थे, पर संस्थागत मर्यादाओं के चलते मुमकिन नहीं थी। खुल्लम-खुल्ला बहस होना जरूरी है और किसी भी लोकतंत्र के लिए यह एक स्वस्थ परंपरा है। इसमें वे सब लक्षण हैं, जो लोकतांत्रिक ढांचे को परिभाषित करते हैं, जैसे अभिव्यक्ति की पूर्ण स्वतंत्रता, वर्ग विशेष को संबोधन, जनहितों पर सरकार से बेबाक सवाल या फिर उन मुद्दों की जबर्दस्त वकालत, जो किन्हीं कारणों से उपेक्षित रह गए हैं। ट्विटर रोष राजनीतिक संवेदनशीलता की मजबूरियां नहीं जानता और न ही पोलिटिकली करेक्ट होने की होड़ में अपना नाम दर्ज कराना चाहता है। वह तो अपनी बात पूरे जोर और अक्सर काफी शोर से आगे रखना चाहता है। यही उसकी खासियत है और यही उसका दोष और धर्म भी है। अगर देखा जाए तो ट्विटर एक खुली पंचायत है। जैसा कि गांव की एक आम पंचायत में होता है, किसान रामू अपने खेत की बात ही करता है, तो दूसरी ओर मल्लाह काकू नदी के उफान से ही उलझा रहता है। सिराज मजदूरी के बाजार से परेशान है, तो बकुल कुम्हार चिकनी मिट्टी के फिराक में है। कहने का मतलब कि सबका अपना-अपना एजेंडा है, जिसे लेकर सभी एक पटल या मंच पर आते और अपनी बात को आगे बढ़ाने का भरसक प्रयास करते हैं।
ट्विटर और उसके जैसे प्लेटफार्म भी यही काम करते हैं। वह वर्चुअल (आभासी) प्लेटफार्म जरूर है, पर उसके पैर वास्तविक धरातल पर जमे हुए हैं। ट्विटर पर आपको गंवार भी उतने ही मिलेंगे, जितने कि सयाने बुद्धिजीवी। अंधभक्त भी उतने ही हैं, जितने कि अनीश्वरवादी। बहुसंख्यकवाद भी विवाद में है और अल्पसंख्यकवाद भी। कुछ लोग अपने को राष्ट्र से पुरजोर जोड़ते हैं, तो कई और अपने को मोबाइल रिपब्लिक घोषित करके इतराते हैं। सबका एजेंडा है, जिस पर वे वोट फॉलोवर्स, रिट्वीट, लाइक्स के रूप में पाते हैं। दोनों तरह की नेतागीरी- आभासी या वास्तविक- इन्हीं तरह की पंचायतों से शुरू होती है और संसद तक जाती है। अगर देखा जाए तो आभासी पंचायत में भी वही होता है, जो कि वास्तविक पंचायत में होता है। दल और बल (बाहु, धन और कंठ) दोनों महत्त्वपूर्ण हैं, अपनी बात कहने में ही नहीं, बल्कि दूसरे की बात दबाने में भी। वास्तव में दूसरे की बात दबा देना शायद ज्यादा जरूरी है, क्योंकि विपरीत स्वर होना या पनपना बलिष्ठ विरोध की पहली चेतावनी है। दबाने वाली प्रक्रिया को ट्विटर पर ट्रोल्लिंग कहते हैं।
आभासी गुंडागर्दी उतनी ही भयावह है, जितनी वास्तविक लठैतगिरी। आभासी लाठी आवाज नहीं करती, पर उसकी चोट पूरी होती है। भाड़े के पहलवान वहां भी हैं और यहां भी, और घर तक धमकाते हुए छोड़ कर आने की प्रवृत्ति कहीं भी कम नहीं है। जन स्वर इनसे लगातार जूझते, अक्सर मार खाते हैं, पर मर नहीं जाते हैं। संवाद और विमर्श किसी भी फैसले पर आने के लिए संवैधानिक तरीका है। हमारे देश में पंचायत से लेकर संसद तक इस लोकतांत्रिक व्यवस्था को स्थापित किया गया है और कहा जाता है कि पिछले सत्तर साल से इसका सफल क्रियान्वन भी हो रहा है। पर क्या ऐसा है? क्या हमारे देश में स्वतंत्र और निष्पक्ष जन-संवाद हो रहा है या फिर तरह-तरह के लठैत उन सभी प्लेटफॉर्मों पर काबिज हो गए हैं, जहां से हमें जनता की आवाज सुनने की अपेक्षा थी? क्या ऐसा हो गया है कि बाहुबल बुरी तरह से हावी हो गया है और उसके गर्जन से सभी कंठ सहम गए हैं? कहीं न कहीं हम सबको मालूम था कि ऐसा हो चुका है और अमूमन हम उसको स्थानीय समस्या कह कर टाल दिया करते थे। गांव से लेकर बड़े शहरों तक हवा में अक्सर कुछ सरसराहट-सी तो लगती थी, पर वह प्रत्यक्ष रूप में समाने नहीं थी।
ट्विटर ने इसको हमारे सामने लाकर खड़ा कर दिया है। हर पल हम उसका भयावह रूप देख सकते हैं, उसकी मार को महसूस कर सकते हैं। किसी भी टाइम लाइन पर जा कर हम इस सच्चाई से रूबरू हो सकते हैं। वास्तव में ट्विटर ऐसा अनूठा प्लेटफार्म बन गया है, जो हमारी लोकतांत्रिक प्रक्रिया की वीभत्सता को बड़ी बारीकी से रेखांकित करता है।
ट्विटर यह सच बताता है कि मौजूदा व्यवस्था में संवाद मुमकिन नहीं है। वह यह बताता है कि हो-हल्ले की पद्धति इतनी परिपक्व और व्यापक हो गई है कि वह अब वैचारिक मुद्दों को पनपने नहीं देती। अगर कोई संवाद स्थापित करने की पहल करता है, तो ट्विटर पहलवान उसकी तरफ वैसे ही दौड़ पड़ते हैं, जैसे जमींदारी के दौरान लठैत ललकारते थे। जो गांव पंचायत में राजा-ठाकुर का कब्जा था, ठीक वैसा ही कब्जा आज दल और बल का ट्विटर पर है। आश्चर्य की बात यह है कि इतना कुछ हमारी आखों के सामने हो रहा है और फिर भी हम कहते हैं कि हमारा लोकतंत्र ठीक चल रहा है। हम कैसे मान लेते हैं कि जो गुंडागर्दी एक सार्वजनिक मंच पर हो रही है, और जिसे सब देख रहे हैं, फिर भी बेरोक-टोक हो रही है, उससे बदतर बेहयाई उन इलाकों में नहीं हो रही, जो हमारे लिए लगभग अदृश्य हैं?
हम कैसे मान लें कि जब लोग ट्विटर जैसे माध्यम पर अपनी बात रखने से डरते हैं, तो गांव-देहात में वोट डालते वक्त स्वतंत्र और निर्भीक होंगे? हम कैसे मान लें कि भय मुक्त समाज हमारे सामने परोसा जा रहा है, जबकि ट्विटर के हैंडलों पर पहलवान दंड पेल रहे हैं? इसी तरह हम कैसे मान लें कि धोबी की भी राज्य में सुनी जाएगी, जबकि रजवाड़ों पर सख्त पहरा है? एक वक्त था कि एक अकेला धोबी राज्य की मर्यादा में हस्ताक्षेप कर सकता था और बहुसंख्यकवाद को उसके सामने मूक होना पड़ता था। पर आज क्या ऐसा है? क्या पिछले सत्तर साल में ऐसा था? हमें ट्विटर को और गौर से देखना होगा। शायद वही हमारे लोकतंत्र और संवैधानिक प्रक्रिया का सच्चा आईना है, जो कि रियल टाइम में बताता है कि हमारे चेहरे पर कितने दाग हैं। वास्तव में वह सिर्फ प्रतिबिंब नहीं है, बल्कि बीमार शरीर का डॉक्टरी मुआयना है, जो संसदीय काल की तरफ संकेत कर रहा है।

