वाल स्ट्रीट जर्नल में पिछले हफ्ते एक लेख छपा है, जिसमें इस्लाम और पश्चिमी देशों के रिश्तों को लेकर तफ्सील से चर्चा है। हालांकि यह लेख अमेरिका और यूरोप तक ही सीमित है, पर भारत में हो रहे बड़े सामाजिक और राजनीतिक बदलाव की प्रेरणा की ओर भी इंगित करता है। शायद यह लेख अपने देश में हो रहे कुछ कृत्यों को समझने में मददगार भी है और अगर ऐसा है तो साफ है कि भारत के कुछ राजनीतिक दल वे सब कर रहे हैं जो कि विश्व के बड़े देश भी करने की कोशिश में हैं। अमेरिका में डोनाल्ड टंप के राष्ट्रपति बनने से उस देश का इस्लाम के प्रति रवैया बहुत हद तक साफ हो गया है। ट्रंप ने कई कदम उठाइए हैं, जो कि साफ दर्शाते हैं कि उनका प्रशासन अमेरिका के पारंपरिक उदारवादी-मानववादी स्वभाव से एकदम अलग है। पहले दिन से ही उन्होंने कठोरतावादी नीतियां अपनाने का अपना मंसूबा अमेरिकी आप्रवास रोकथाम के जरिए जाहिर कर दिया था।

ट्रंप प्रशासन की नीतियां इस्लामिक फोबिया से ग्रस्त लगती हैं। उदारवादी विचारधारा इनकी घोर विरोधी है, क्योंकि पिछले कई दशकों से पश्चिमी देश, खासकर अमेरिका, इसको अपनी विशिष्ट संस्कृति मानते हैं, जिसमें उदारवाद की सीमा रेखा इतनी लचीली है कि उसको किसी भी व्यक्ति विशेष की संभावनाओं पर फिट किया जा सकता है। यूरोप हो या अमेरिका का समाज, व्यक्ति प्रधानता का आदर्श उत्तम लक्ष्य माना गया है। इसका मतलब यह है कि समाज को व्यक्ति के हिसाब से अपने को ढालना पड़ेगा और व्यक्ति के चलते हर सीमा बेमानी है। धर्म की भी, क्योंकि मानवतावाद में ही उसका समावेश हो जाएगा। उनके अनुसार व्यक्ति के अधिकार सार्वभौमिक हैं, जिनका साम्राज्य पूरी पृथ्वी पर प्राकृतिक रूप से फैलना लाजमी है। वे मानते हैं कि इस्लाम भी इसी प्रक्रिया में धीरे-धीरे घुल रहा है और एक दिन पूरी तरह से उसका विलय हो जाएगा, जैसा कि ईसाई समुदाय में हो गया है, जहां पर प्रार्थना पद्धति एक व्यक्तिगत मामला बन गया है।

पर जैसा फ्रेंच दार्शनिक पिएर्र मनेंत कहते हैं कि उदारवादियों के सामने भी इस्लाम बड़ी समस्या है। इस्लाम के नाम पर आतंकवाद या इस्लामिक स्टेट के रूप में उभरे आतंकवाद का हम वैश्वीकरण, व्यक्तिवाद और मानव के मूल अधिकार के मंत्र से उन्मूलन नहीं कर सकते। इसके लिए हमें कुछ और सोचना होगा।ट्रंप के भाषणों को अगर हम गौर से सुनें तो नई सोच साफ जाहिर दिखती है। यह सोच राजनेता अपने-अपने तरीके से अपने परिवेश के अनुसार नीतियों के जरिए परिभाषित कर रहे हैं। अमेरिका से लेकर यूरोप तक विशिष्ट थिंक टैंक और जाने-माने चिंतक परदे के पीछे से राजनेताओं को प्रभावित कर रहे हैं। मनेंत इनमें से एक हैं। वे पेरिस के स्कूल आॅफ एडवांस्ड सोशल स्टडीज में प्रोफेसर हैं।
विचारकों का मानना है कि इस्लामिक स्टेट या इस्लामिक कट्टरपंथ का जवाब राष्ट्रवाद है। उदारवादी देशों को अपने वैश्विक दृष्टिकोण को राष्ट्रवाद तक संकुचित करना होगा और अपने और पराए में भेद करना होगा।

दूसरे शब्दों में, राष्ट्र-राज्य (नेशन स्टेट) ही इस्लामी स्टेट का जवाब है। प्राचीन राष्ट्र-राज्य का संकल्प एक विशिष्ट भू-भाग था, जिसमें एक ही तरह की संस्कृति सर्वप्रथम थी। और तरह के लोग आ-जा तो सकते थे, पर उन पर यह अनिवार्य था कि वे वे रहें, हममें न मिलें। मनेंत जैसे विद्वान मानते हैं कि खुले दरवाजे और खुले दिलों ने ही तथाकथित इस्लाम की दहशतगर्दी को जन्म दिया है और उसको उस मुकाम पर पहुंचाया है कि आज वह लगभग हर देश के लिए एक भयानक खतरा बन गया है।  राष्ट्रवादी विचारकों के अनुसार इस्लाम का ‘स्पष्ट उद्देश्य’ धर्म है और वह जहां भी बसता है, वहां पर उसके उम्माह आधिकारिक रूप से आचार-विचार लागू करते हैं। यह प्रक्रिया और धर्मों, विशेषकर वर्तमान के ईसाई धर्म से, बिल्कुल अलग है जहां पर चर्च और स्टेट के बीच में फर्क किया गया है।  इसी तरह इस्लाम में दुनिया को दो भागों में विभाजित किया गया है- वह भाग जो इस्लाम को मानता है और वह जो गैर-इस्लामी है। गैर-इस्लामी को इस्लामी बनाना ही इसका पहला और आखिरी उद्देश्य है। ऐसे में इस्लाम को एक साम्राज्य के रूप में देखा जा सकता है, जो लगातार अपनी सीमाएं बढ़ाने के लिए तत्पर है। आॅटोमन साम्राज्य इसका प्रतीक था, पर 1924 में उसके ढह जाने के बाद बादशाहत बिना बादशाह के हो गई है।

दूसरी तरफ उदारवादियों का वैश्विक विचार उतना वैश्विक नहीं है, जितना समझा और बताया जाता है। जमीनी स्तर पर इससे स्थानीय समुदायों में गुस्सा पैदा हुआ है, क्योंकि बाहर के लोग उनके जीवन यापन और शैली में दखल देने लगे हैं। इसको ये लोग तुष्टीकरण कहते हैं। ऐसी स्थिति में यह जरूरी हो गया है कि पश्चिमी देश यह मान लें कि उनकी जनसंख्या के मुसलमान मुसलमान ही रहेंगे और उनको स्वीकार करना होगा, पर अब राष्ट्रों को उनसे साफ कहना होगा कि वे भी हमें स्वीकार करें। उनसे कहना होगा कि हमारा देश न कभी इस्लामी था और न ही कभी होगा। यूरोप में रहने के लिए उनको यह बताना जरूरी है कि वे वे हैं और हम हम। हम पर काबिज होने की कृपया चेष्टा न करें।

यूरोपीय विचारक यह भी मानते हैं कि देशों और लोगों को स्थानीय इस्लाम को बढ़ावा देना चाहिए, न कि आयात किए हुए इस्लाम को। उनका कहना है कि देशकाल में धर्म परिवर्तन हुआ, पर पौध स्थानीय ही है। जो आज मुसलिम हैं वे बीते हुए काल में फ्रेंच ही थे। उनको उनके मूल पर वापस लाना होगा। वे सिर्फ कागज पर फ्रेंच नहीं रह सकते, बल्कि उनको वास्तव में देशवासी होना होगा। यानी राष्ट्र की सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक प्रक्रिया से उनको पूरी तरह से संबद्ध होना होगा।विचारक यह तो नहीं कहते कि राष्ट्रवाद एक स्थायी हल है, पर वे यह जरूर दावा करते हैं कि मौजूदा हालात में, जिसमें इस्लामिक स्टेट जैसे विचारों का बोलबाला है, यह एक सशक्त विकल्प है। बंद दरवाजे उन तूफानों को लौटा देंगे, जिनकी चपेट में आज दुनिया के बहुत सारे देश हैं। मनेंत का कहना है कि अगर हम राष्ट्र का विचार फिर से स्थापित नहीं करते हैं, तो अराष्ट्रीय विषमताएं और गंभीर हो जाएंगी। वे कहते हैं कि राष्ट्रवाद एक लकीर खींचता है और फिर उस लकीर पर चलने के भाव को प्रोत्साहित करता है। इस लकीर से इस्लामी साम्राज्यवाद बहुत हद तक आबद्ध हो सकता है।