क्या आज का युवा पाठक गंभीर साहित्य से विमुख है, विशेषकर हिंदी साहित्य से? इस प्रश्न पर विचार करते हुए आज के युवा की बौद्धिक निर्मिति और समूचे सामाजिक-सांस्कृतिक बदलाव को दृष्टिगत रखना जरूरी है। विचारणीय यह भी है कि घर, परिवार, गांव, मोहल्ले से लेकर शिक्षण संस्थाओं और कार्यस्थल तक क्या उसके पास साहित्यिक सांस्कृतिक आस्वाद के लिए कुछ अवसर या अवकाश बचा हुआ है? शायद नहीं। क्या बचपन से ही उसके फुर्सत के क्षणों को इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों ने चुरा कर अनुकूलित नहीं कर दिया है? शुरू से ही तकनीक निर्भरता और पाठ्यक्रम के बोझ ने क्या उसकी साहित्यिक भूख-प्यास का हरण नहीं किया है? क्या फेसबुक, ट्विटर और वाट्स-ऐप उसके फुर्सत के लमहों को नहीं छीन रहे हैं? फिर यह भी कि जिन लोगों को साहित्य की तलब है, क्या उन तक साहित्य की उपलब्धता है? क्या आज के दौर में बड़े प्रचार-प्रसार वाली एक भी ऐसी पत्रिका उपलब्ध है, जिससे साहित्यिक अभिरुचि निर्मिति हो सकती हो? पत्र-पत्रिकाओं और समाचार पत्रों में साहित्यिक स्पेस का लगातार घटना और नए माध्यमों पर साहित्य का अदृश्य होना क्या साहित्य को व्यापक समाज से अनुपस्थित नहीं कर रहा है?
स्वीकार करना होगा कि स्वाधीनता बाद के दौर में ‘धर्मयुग’, ‘हिंदुस्तान’, ‘सारिका’, ‘दिनमान’ सरीखी पत्रिकाओं ने जो साहित्यिक संस्कार दिए थे, उनके तिरोहित होने के साथ मास-सर्कुलेशन की पत्रिकाओं के युग की ही समाप्ति नहीं हुई, बल्कि हिंदी में मास-पाठक वर्ग की भी समाप्ति हो गई। साहित्यिक रुचि के निर्माण और विकास में इन पत्रिकाओं ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हुए हिंदी का वृहत्तर पाठक समुदाय बनाने के साथ-साथ हिंदी लेखकों की नई पांत भी खड़ी की थी। आज अगर हिंदी का गंभीर साहित्य कुछ हजार पाठक-लेखकों तक सिमट कर रह गया है और ‘हंस’ सरीखी बाजार में उपलब्ध पत्रिका भी दस हजार का सकुर्लेशन मुश्किल से पार कर पाती है, तो यह समूचे हिंदी समाज के लिए एक शोचनीय स्थिति है। विशेषकर तब जब हिंदी के पठन, पाठन, शिक्षण और राजभाषा के प्रचार-प्रसार से जुड़े लोगों की ही संख्या लाखों में है। वैसे दिलचस्प होगा यह जानना भी कि हिंदी के कितने रचनाकार अपनी विधा के अतिरिक्त अन्य विधाओं की पुस्तके पढ़ने में रुचि रखते हैं! याद है कि अभी हाल में ही हिंदी के एक बड़े कवि-आलोचक ने कहा था कि वे अंगरेजी का कथा साहित्य तो पढ़ लेते हैं, लेकिन हिंदी का नहीं। सच तो यही है कि साहित्य का पठन-पाठन अब रुचि आधारित कम, पेशेगत जरूरत अधिक बन गया है। देखने में आया है कि विश्वविद्यालयों में बड़ी संख्या में हिंदी के छात्र परीक्षा और शोध अध्ययन के दौरान जो कुछ साहित्य पढ़ते-पढ़ाते भी हैं, तो नौकरी पाने के बाद उससे विमुख हो जाते हैं।
सच तो यह है कि हिंदी साहित्य जितना भी, जो कुछ भी बचा हुआ है उसमें स्वांत: सुखाय पाठकों का अधिक योगदान है। ऐसे में अगर सामान्य युवा बाजार के प्रचार के चलते चेतन भगत और अमीश त्रिपाठी की पुस्तकों का पाठक बन जाता है और उसे ही साहित्य मानता है, तो उसका क्या दोष? विडंबना तो यह है कि अंगरेजी का युवा पाठक ही नहीं, बल्कि हिंदी का युवा पाठक भी ‘हाफ ए गर्ल फें्रड’ और ‘शिवा ट्रिलॉजी’ का हिंदी में अनुवाद पढ़ना पसंद करता है। यहां तक कि हिंदी के बाल-पाठकों तक के लिए हैरी पॉटर शृंखला का अनुवाद बाजार में उपलब्ध है। यह पाठक वर्ग उसी तरह अरुंधति राय, अमिताव घोष और रोहिंटन मिस्त्री की पुस्तकें नहीं पढ़ता, जिस तरह चेतन भगत और आमीश त्रिपाठी का अंगरेजी पाठक इन्हें नहीं पढ़ता। दिक्कत तो तब होती है जब हिंदी के कुछ लेखक भी अंगरेजी के लुगदी लेखकों की बाजारू सफलता को श्रेष्ठता का पैमाना समझने लगते हैं। और यह तथ्य भुला देते हैं कि इन लुगदी लेखकों की अंगरेजी के गंभीर साहित्य की दुनिया में कोई पूछ नहीं है।
दरअसल, बाजार गंभीर और लुगदी साहित्य के बीच जिस तरह पाटा चला रहा है वह आज एक नई परिघटना के रूप में उपस्थित है। पिछले कुछ वर्षों में ‘लिटरेचर फेस्टिवल’ के चलन ने भी इसे काफी कुछ खाद पानी दिया है। सच तो यह है कि सिनेमा और टेलीवीजन के सितारों ने साहित्य के पापुलर स्पेस को छीन कर आज के बच्चन और नीरज सरीखों को भी बेदखल कर दिया है। जब स्टार वैल्यू को साहित्य की सफलता का पैमाना माना जाएगा तो साहित्य की सार्थकता दुर्घटनाग्रस्त होगी ही। हिंदी के प्रकाशकों को अपने गंभीर लेखकों और उनकी महत्त्वपूर्ण कृतियों के प्रचार-प्रसार के लिए भी अब नए माध्यम और तौर-तरीकों की तलाश किए जाने की जरूरत है। जरूरत है ‘गुनाहों का देवता’ और ‘मुझे चांद चाहिए’ पढ़ने वाले युवा को यह बताने की कि कल की सुधा और वर्षा ही आज की रशीदा है। आखिर क्यों मंजूर एहतेशाम के ‘सूखा बरगद’ को आज के युवा के समक्ष ‘लव इन दि टाईम आफ कम्युनलिज्म’ की तर्ज पर नहीं पेश किया जा सकता?
आशय यह कि युवा वर्ग की गंभीर साहित्य के प्रति विमुखता का ठीकरा सिर्फ उन्हीं के सिर न फोड़ कर उसके व्यापक संदर्भों को तलाशने की जरूरत है। यह सचमुच चिंता की बात है कि देश की राजधानी दिल्ली, जो प्रकाशकों की मंडी भी है, में एक भी पुस्तकों की ऐसी दुकान नहीं है, जहां हिंदी की श्रेष्ठ पुस्तकें उपलब्ध हों। देश के अन्य शहरों का हाल और बुरा है। पुराने पुस्तक केंद्र बंद हो रहे हैं और नए बन नहीं रहे हैं। पुस्तकालय दुर्दशाग्रस्त हैं। ऐसे में उत्तर भारत के छोटे-बड़े नगरों में पुस्तक मेलों का नया चलन उम्मीद की नई किरण है। इससे युवा पाठक वर्ग में पुस्तकों की पहुंच एक सीमा तक संभव हुई है। प्रकाशकों को चाहिए कि वे पुस्तकों की बिक्री के साथ-साथ पुस्तक संस्कृति के संवर्धन में भी अधिक सक्रिय भूमिका का निर्वहन करें। आज का समय विशेषकर युवाओं के लिए फेसबुक, वाट्स-ऐप के साथ आनलाइन बिक्री का भी दौर है। इन नए माध्यमों का कल्पनाशील और प्रचारात्मक इस्तेमाल साहित्य के प्रति युवाओं को आकर्षित करने में कारगर भूमिका निभा सकता है। यह सब इसलिए भी किया जाना चाहिए कि बाजार और उपभोक्तावादी जकड़बंदी के बावजूद देश में एक ऐसा युवा पाठक वर्ग अब भी मौजूद है, जो गंभीर साहित्य के माध्यम से अपने देश, समाज और परिवेश को जानना-समझना चाहता है। जरूरत है इस भ्रम निवारण की भी कि हिंदी साहित्य में कुछ भी अच्छा नहीं हो रहा है। हां, इसके लिए यह भी जरूरी है कि हिंदी आलोचना अपने नैतिक विवेक के बल पर अपनी विश्वसनीयता कायम करे, ताकि नया पाठक वर्ग नई पुस्तकों और लेखकों के प्रति आश्वस्त हो सके।
कहना न होगा कि आज के इस अबौद्धिक और संस्कृतिविरोधी समय में पुस्तकों का लिखा जाना जितना जरूरी है उससे अधिक जरूरी है उनका पढ़ा जाना। युवा वर्ग आज जिस तुरंता भेड़चाल की गिरफ्त में है, पुस्तकें उससे राहत दिलाने में काफी कुछ कारगर हैं। आज जब सब कुछ ‘लेस’ होने का समय है, तब इस हंता समय में युवा पाठकों के लिए पुस्तकों का होना एक बड़ी क्षतिपूर्ति है। लेखक, पाठक और प्रकाशक की त्रयी ही इसका नवोन्मेष कर सकती है। जरूरत है नई संकल्पबद्धता की।
