सुभाष अखिल

चित्रकार-कथाकार राज कमल के संग्रह घर तिकोने नहीं होते की कहानियां अनेक व्यक्तियों और घरों के ज्यामितीय समीकरणों की बात करती हैं। घरों के कोणों यानी कोनों के माध्यम से मन के झरोखों से झांकने की सफल कोशिश की गई है। ये कोण ‘घर’ नामक व्यवस्था के भी हैं और व्यक्ति की ऊपरी से भीतरी सतह में उतरने की प्रक्रिया के दौरान स्वत: प्रकट विरोधों के भी।

इस संग्रह की कथाएं तमाम परिस्थितियों, घटनाक्रमों, भीतरी-बाहरी परतों से होते हुए विविध पात्रों की यात्रा संबंधों के ज्यामितीय समीकरणों की पड़ताल करती चलती हैं। यही पड़ताल और विविधता उनकी हर कहानी में झलकती है। चाहे वह ‘घर तिकोने नहीं होते’, ‘निर्वासित स्वप्न’, अंतर्नाद’, ‘अघटित प्यार में’, ‘जीनत उर्फ रमजानी’ हो या ‘एक कुलटा का सच’। ऐसा नहीं कि राज कमल ने परिस्थितिजन्य उपजे घटनाक्रम को ही कथानक में प्रमुखता दी है। लगभग हर कहानी में पात्रों का मनोविश्लेषण विभिन्न कोणों में उद्घाटित हुआ है।

‘निर्वासित स्वप्न’ में लेखक कथा के आरंभ में ही स्पष्ट कर देता है: ‘स्वप्न देखना सुखद लगता है… उन्हें पाना, तितलियों को छूना भर है।’ हजारों लोगों की भीड़ में ज्ञानेश्वर अपने कक्का के साथ शामिल है। अपने जन-जीवन से तिरस्कृत कक्का को उनके रोजनामचे में रचा-बसा गांधीवादी आग्रह महानगर तक ले आया। पर वही ‘ढाक के तीन पात’! लोगों की स्वार्थसिद्धि और दोगलेपन से आहत कक्का फिर एकांत में लौट गए। एक स्वप्न निर्वासित हो गया।
राज कमल चूंकि चित्रकार भी हैं, वे बिंबों, आमजन की आकृतियों और मनोभावों की बारीक पड़ताल करते चलते हैं। तभी तो ‘महानगर एनेक्सी’ कहानी को इतनी सहजता और प्रामाणिकता के साथ रचने में सफल होते हैं, जहां पात्रों, स्थितियों की भरमार है। उनके तनाव, कुंठा, आशा-निराशा, राग-द्वेष, ऊंच-नीच, विडंबनाओं का लेखा है।

उनकी कई कहानियों में तीसरे कोण का बयान है। राज कमल ने दैहिक अनुगूंज के विरोधाभासी कथानकों को भी बड़ी खूबसूरती और सहजता से साधा है। तीसरे कोण के रूप में पुरुष दोनों जगह मौजूद हैं। पर अपने अस्तित्व के लिए जूझती स्त्री भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराती है। दोनों कथानकों में स्त्री देह की परिभाषाएं भिन्न हैं और उनकी स्वीकारोक्ति भी। ‘घर तिकोने नहीं होते’ में पति विक्षुब्ध होकर खिड़की बंद कर लेता है, जहां से पहले संकेत और फुसफुसाहटें आती थीं, वहां अब लोगों की बेबाक हंसी सुनाई देती है। यहां पति, पत्नी से कहता है: ‘मैं तुम्हें आजाद करता हूं। घर-परिवार के संबंधों से मुक्त करता हूं। तुम्हारे जीवन पर मेरा कोई अधिकार नहीं होगा। तुम भी मुझे अपने जीवन से बेदखल कर दो। कहीं भी रहो… किसी के साथ रहो… नो प्रॉब्लम!’

‘एक कुलटा का सच’ में पत्नी की कोख पूरने में अक्षम पति, संतान उत्पत्ति के लिए उसे नियोग की सहमति देता है। जब पत्नी प्रश्न करती है कि ‘अगर देह के साथ-साथ मन का जुड़ाव भी हो गया तो?’ तब पति मुस्करा देता है। फिर पत्नी शर्त रखती है कि ‘संसर्ग के लिए पात्र का चयन वह स्वयं करेगी।’ उसके लिए भी पति का सहमत होना, न केवल स्त्री की आजादी को नई ऊंचाइयां देता, बल्कि समाज की जड़ता को तोड़ने का आह्वान कर के पाठक को चकित कर देता है। पति का पत्नी से यह कहना कि ‘अपनी देह पर स्त्री का अधिकार होना ही चाहिए- इसमें शर्त कैसी?’
दोनों कहानियों के अंत पाठक को ऐसी जगह ले जाकर छोड़ देते हैं, जहां से फिर नए कोण जन्म लेते हैं।

‘अरण्य में फिर’ कहानी कई प्रश्न उठाती है। ‘गिनीपिग’ बन गए अस्तित्व को बचाने के साथ-साथ उसकी सार्थकता का सवाल भी। बैंचे लाल से ‘बीएल’ होते हुए बच्चन बाबू तक की यात्रा भी दलित विमर्श के अनेक संदर्भों को उद्घाटित करती है। कैसे जातिगत स्वार्थ, जीवन की सामान्य दुर्घटनाओं को राजनीतिक और सामाजिक वैमनस्य में बदल देते हैं! कहानी में बच्चन बाबू के साथ हुए हादसे का चित्रण सजीव और प्रामाणिक बन पड़ा है और उसे ‘नेताजी’ द्वारा बलात दलित विमर्श की ओर मोड़ देना- यह लेखक की खूबसूरत कल्पनाशीलता का परिचय है। विशेष हो या आमजन, उसके स्वप्न दरकने का अहसास यहां भी मन को सालता है- ‘परिवार और अन्य दायित्वों के निर्वाह में व्यक्ति अपनी अकिंचन-सी इच्छाओं को डायरी के पन्नों में फूल और मोरपंखी की भांति सहेजता चलता है। पर अनेक बार वे विस्मृत हो जाती हैं, तो कई बार समय उन्हें अनुपयोगी बना देता है…।’

हमारी न्याय-प्रणाली से जुड़े लोगों के दायित्वबोध पर प्रश्नचिह्न लगाती कहानी ‘अंतर्नाद’ अदालती विद्रूपताओं के विरुद्ध एक हाशिये के निरीह आदमी की चीत्कार से उपजी संवेदना को अभिव्यक्ति देती और खोज का कारक बन जाती है। अंतर्नाद को सुन पाने की चेष्टा में एक अंतहीन यात्रा का आरंभ है।

संबंधों की तलाश से उपजी, आहत भावनाओं की बारीक व्याख्या करती कहानी ‘अघटित प्यार में’ से होकर गुजरती तो है, पर यह कहना कि प्यार अघटित ही रहा, युक्तिसंगत नहीं लगता। क्योंकि हम जिसे अघटित कहते हैं, वह निरंतर घटता ही रहता है। शायद दोनों छोरों पर, कभी सायास तो कभी अनायास। यही घटित-अघटित कभी कंधों पर सवार हो जाता या फिर उतार कर फेंक दिया जाता है। ऐसी ही भावभूमि की कथा है ‘कंधों पर सवार प्रेत’। दोनों कहानियों के सामीप्य को स्वीकार करना या नकार देना, मात्र कथानक की भिन्नता है- मनोभावों की नहीं।

‘उस लड़की का नाम’ और ‘जीनत उर्फ रमजानी’ भावुक मन की कहानियां हैं। उनमें हिंदू और मुसलिम धर्मों की आस्थाओं को नकारने-स्वीकारने के बिंदु तो हैं, पर मन को अधिक छूने में सफल नहीं हो पाते। दूसरी ओर ‘पहचान’ में सन चौरासी के दंगों का दंश है। यह दंगों के ‘पश्चात प्रभाव’ की कहानी है, जो संस्कारों के तादात्म्य की भावना पर खींची विभाजक रेखा को बड़ी शिद्दत से महसूस कराती है।

राज कमल की कहानियों की विशेषता है कि वे न केवल व्यक्ति के बाहरी स्तर- पारिवारिक, सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक विद्रूपताओं को रेखांकित करती, बल्कि भीतरी गुहाओं की पड़ताल करती चलती हैं। ‘दद्दू की चिट्ठी’ और ‘कबाड़’ में परिवार के बुजुर्गों की अपरिहार्यता और जीवन की निस्सारता के संदर्भों की गहन तलाश है। नई पीढ़ी के अपने हित साधने के क्रियाकलापों का सुंदर विश्लेषण है। राज कमल की अनेक कहानियां धुर-विरोधी विषयों को- सिक्के के दो पहलू की तरह सामने रखती हैं। इस समांतरता के बीच निष्कर्ष के लिए पाठक को अकेला छोड़ देती हैं। उनकी भाषा पाठक को मोहती है, साथ लेकर चलती है। यही सहजता उनके पात्रों में परिस्थिति, वर्ग और काल की अनुकूलता के साथ बनी रहती है।

घर तिकोने नहीं होते: राज कमल; नेशनल पब्लिशिंग हाउस, 2/35, अंसारी रोड, दरिया गंज, नई दिल्ली; 300 रुपए।

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