कोरोना विषाणु का प्रकोप हिंदुस्तान में जब फैलना शुरू हुआ, तो हममें से बहुतों को लगा था कि यह कोई बड़ा संकट नहीं है। हां, कुछ दिनों के लिए कुछ एहतियात बरतने होंगे और फिर जल्दी ही जिंदगी पुराने ढर्रे पर लौट आएगी। वैसे हम एक तरह से जीने की इतने आदी हो गए थे कि किसी और विकल्प के बारे में हमने कल्पना करने की कोशिश भी नहीं की थी। हम बस चले जा रहे थे- एक सपाट-सी सड़क पर, भीड़ के बीच जूझते, पसीने से तरबतर।
अक्सर दम भी घुटता था, पर हम एकाध लंबी सांस खींच कर अपने को फिर से संतुलित कर लेते थे और भीड़ में दुबारा खो जाते थे। इस जद्दोजहद में यह खयाल नहीं आता था कि क्या वर्तमान से बेहतर हमारा जीवन हो सकता है या इससे बदतर भी?
पर एक दिन सब बदल गया। विषैले विषाणु के फन की छाया ने हमें सड़कों से खदेड़ कर घरों में कैद कर दिया। झुंड से कट जाने की वजह से हम कुछ घबरा भी गए, पर फिर भी आश्वस्त रहे कि कुछ दिनों की बात है, जल्दी ही सन्नाटा खत्म हो जाएगा। वास्तव में हम अंधेरों से इतना नहीं डरते हैं, जितना कि सन्नाटे से भयभीत हो जाते हैं।
सन्नाटा दीखता भी है और शोर भी मचाता है। इसके भूत अदृश्य होते हुए भी वीरानी के दृश्य होते हैं। और सबसे बड़ी बात यह है कि गुम माहौल में हल्की-सी आहट चौंका देती है। अंधेरे में ऐसा नहीं होता है। उसमें रोशनी का कोई सुराग चौंकाता नहीं, बल्कि ढांढस बंधाता है।
विषाणु संक्रमण से जहां मानव जाति ग्रसित हुई, तो दूसरी ओर प्रकृति पर मानव संक्रमण कट गया था। घरबंदी के पहले हफ्ते से ही हमारे आसपास हो रहे बदलाव ने हमे आश्चर्यचकित कर दिया था। हमने सपने में भी नहीं सोचा था कि अगर हम ठहर जाएं, तो गुलशन का कारोबार इतने शानदार तरीके से चलने लगेगा।
सुबह अब थकी हुई बुढ़िया की तरह नहीं उठ रही थी, बल्कि नई नवेली की तरह दमक रही थी। वास्तव में एक छोटी-सी आशा, जिसका हमें दूर-दूर तक गुमान नहीं था, कहीं से आकर अचानक खिल गई थी। अब तक ऐसा होना हमारी कल्पना से परे थे। बहुत साहस करने पर भी हम इस सपने को देखने के लिए अक्षम हो चुके थे। या यह कहें कि हर ओर फैली आपाधापी ने हमारे साहस को कुचल दिया था।
पुरुष के हटने ने प्रकृति को बदल दिया था और इसके साथ उम्मीद की किरण जागी थी कि पुरुष की प्रकृति भी बदल जाएगी। घरबंदी ने हमको बहुत कुछ एहसास करवा दिया था। लगने लगा था कि हमारे संक्रमित भाव भी बहुत हद तक स्वास्थ्य लाभ पा लेंगे। विषैले विषाणु का विष हमारे अंदर के विष को काट देगा- शायद कोरोना करुणा का अमृत दान हमें देकर जाएगा और हमारा प्राकृतिक स्वभाव बाहर के फूलों की बगिया की तरह फिर से लहलहाने लगेगा।
कई मर्तबा हमने देखा, लोग पशुओं को रोटी खिलाने के लिए सुबह-शाम घर से निकलते थे और अपना भोजन ग्रहण करने से पहले उनको भरपेट खिलाते थे। ऐसा पहले नहीं था। इक्का-दुक्का कोई करता था। ज्यादातर लोग अपनी ही फिक्र में रहते थे। पर अब समय बदल रहा था। शायद नए जमाने के आने की आहट सुनाई दे रही थी।
पुरानी कहावत है- जैसी प्रजा वैसा राजा। प्रजा बदल रही थी। अच्छा परिवर्तन था। साथ ही जब कुछ लोग अपने घर में बैठे थे, तो कुछ प्रवासी घर जाना चाहते थे। पराए शहर में, जहां रोजी-रोटी के अवसर बंदी के चलते समाप्त हो चुके थे, वहां रहने का कोई मतलब नहीं रह गया था। शहर वालों ने उनकी हर तरह से मदद करने की कोशिश जरूर की थी, पर दो वक्त की मांगी हुई रोटी खाने से घर में एक वक्त आधी रोटी खाना बेहतर था। वे चल दिए। अपना बोझ खुद उठाए हुए। चिलचिलाती कहर से बचाव अपने आंगन की छांव में उनको सूझ रहा था। उनकी हूक वाजिब थी।
पर जैसा होना चाहिए था वैसा हुआ नहीं। राजा प्रजा से पृथक हो गया था। आम लोग सामने खड़े संकट को देख रहे थे, तो राजा बहुत दूर कहीं क्षितिज में दीर्घ कालीन भविष्य तलाशने में जुट गया था। करुणा और संवेदना से परे, राजा एक कल-पुर्जों का संवादहीन कारखाना बनाने की फिराक से अपने को लैस कर रहा था।
उसकी पथराई आखों से मानव भाव का पानी सूख कर कड़े शब्दों में तब्दील हो गया था। उसको लग रहा था कि पैदल चलते भूखे-प्यासे बुजुर्ग, बच्चे, औरतें और जवान राजमार्गों को वैसे ही कलंकित कर रहे थे जैसे भिनभिनाती मक्खियां राजभोग को दूषित कर देती हैं। दान मांग कर उसने राजभोग बनाया था, पर उसको दान में देने में उसका राजहठ सामने आ गया था।
राहत पर बहस ही शायद राजक्रिया होती है। एक तरह से लंबी, तर्क और संवेदनहीन बहस राजा की राहत होती है। पैदल चलते, संक्रमण और भूख की मौत से बचते बेहिसाब लोगों की व्यथा को बिना विचलित हुए गौर से देखना और फिर निश्चिंत मन से उस पर लंबी रणनीति तैयार करना राजकर्म की सर्वश्रेष्ठ पहचान है। लोग इस राज्यनीति से वाकिक थे, पर अति का संज्ञान उन्हें नहीं था। वे समझ नहीं पा रहे थे कि राजा के घर में देर है या फिर सिर्फ अंधेर है।
वे देख रहे थे कि गरीबों के सिर पर लदी गठरी को हाथ देने के बजाय राजा सेठों की गठरी में हाथ डाल रहा था। सेठों को मजदूरों के झुके हुए कंधों पर मालिक बना कर बिठाने के लिए इस लाचार समय का इस्तेमाल कर रहा था।
विषाणुकाल के परिणामों के बारे में कई विद्वानों का कहना था कि यह हमारे जीवन में मूलभूत परिवर्तन देकर जाएगा। उनका कहना सही हो रहा है, क्योंकि जहां एक तरफ प्रकृति ने अपने को पुनर्जीवित कर लिया है और हमने व्यर्थता के कुछ पाठ पढ़ लिए हैं, तो दूसरी तरफ यह भी साफ हो गया है कि राजधर्म नए संदर्भ में आ गया है।
अब प्रजा को राजा की तरह अपने को ढालना पड़ेगा। यानी जैसी प्रजा वैसा राजा नहीं, बल्कि जैसा राजा वैसी प्रजा का होना जरूरी हो गया है। दूसरे शब्दों में, हमको उलटे पैर चलना है- संवेदना से संवेदनहीनता की ओर, संवाद से संवादहीनता की ओर, अधिकारों से अधिकारहीनता की ओर, स्वतंत्रता से अधीनता की ओर। यह अनिवार्य है, क्योंकि अगर ऐसा नहीं होगा तो बहुस्वर एकस्वर के उद्घोष से कैसे दबाए जा सकेंगे? आखिरकार कोरोना का विष कहीं तो चढ़ कर बोलेगा।

