आदिवासी समाज को देखने के मुख्य रूप से दो दृष्टिकोण हैं। एक तो यह कि आदिवासी लोग जंगली, बर्बर होते हैं। इस दृष्टिकोण को हम भारतीय, खासकर हिंदू पौराणिक मिथकों में देख सकते हैं, जहां आदिवासियों को राक्षस, दैत्य, दानव, असुर वगैरह कह कर उनकी एक प्रकार की मनुष्य-विरोधी भयानक छवि प्रस्तुत की गई। ब्रिटिश हुकूमत के दौर में अधिकतर आदिम समुदायों को आपराधिक जनजातीय अधिनियम के अंतर्गत ‘जरायमपेशा कौम’ के रूप में सूचीबद्ध कर दिया गया था। आज आदिवासी समाज दो पाटों के बीच फंसा हुआ है; एक तरफ सत्ता की संगीनें हैं और दूसरी ओर नक्सली बंदूकें।
इस पृष्ठभूमि में जब फिल्मों में आदिवासी पर नजर डालें तो सबसे पहले हिंदी फिल्म के ‘आदिपुरुष’ धुंडीराज गोविंद फाल्के पर दृष्टि जाती है, जो दादा साहेब फाल्के नाम से मशहूर हैं। उनकी ‘बुद्धदेव’ और ‘सत्यवान सावित्री’ को छोड़ कर सारी फिल्मों में आदिवासियों को भयानक राक्षसों के रूप में चित्रित करते हुए उनके सर्वनाश को सबसे बड़ा धर्म बताया गया है। इसके बाद इसी दृष्टि से बहुत सारी फिल्में हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओं में बनीं।
आदिवासी समाज को देखने का दूसरा नजरिया ‘रोमांटिक’ कहा जा सकता है। रोमांटिक चश्मे से जब आदिवासी को देखा जाता है तो यह प्रतिक्रिया आती है कि ‘समृद्ध प्रकृति की गोद में आदिवासी मस्ती के साथ नाचता-गाता रहता है।’ इस चश्मे से आदिवासी को देखने वाले इस यथार्थ को नहीं देखते कि आदिवासी समाज सौ तरह के अभावों से घिरा है।
भारतीय सिनेमा के आरंभिक काल में महबूब के निर्देशन में एक फिल्म सन 1942 में बनी थी- ‘रोटी’। दर्शकों को लुभाने के आशय से उस फिल्म में आदिवासियों के नाम पर अर्द्धनग्न मुद्रा में कुछ नाच-गानों को फिल्माया गया। हालांकि यह फिल्म पूंजीवादी शोषण का विरोध करती है। राजकपूर की फिल्मों में आइटम सांग और आईटम डांस के बिना काम नहीं चलता। बिमल रॉय की फिल्म ‘मधुमती’ बहुत अच्छी है, लेकिन उसमें भी आदिवासी के प्रति वही रोमांटिक रवैया है। आदिवासी नृत्यों को पर्दे पर लाने वाली अन्य फिल्मों में ‘नागिन’, ‘विलेज गर्ल’, ‘अलबेला’, ‘दुपट्टा’, ‘श्रीमतीजी’, ‘यह गुलिस्तां हमारा’, ‘टार्जन और जादुई चिराग’, ‘दिलरुबा’, ‘टावर हाउस’, ‘शिकार’ आदि हैं। हिंदी फिल्मों के सौ साल पूरे होने के बाद भी आदिवासी समाज के प्रति फिल्मकारों का नजरिया वही का बना हुआ है।
आज फिल्मों में आदिवासी समाज को लेकर एक नया दृष्टिकोण विकसित हुआ है, जिसमें आदिवासियों को नक्सलवाद और आतंकवाद से जोड़ कर देखा जा रहा है। फिल्म ‘टेंगो चार्ली’ में भारतीय सेना का एक बड़ा आॅपरेशन फिल्माया गया है। इसमें आदिवासियों के हत्यारों को देशभक्तों के रूप में सामने लाने का प्रयास किया गया है। ‘रेड अलर्ट, फिल्म भी नक्सलवाद के आसपास ही सीमित रहती है। इसमें आदिवासी समाज की कोई समस्या अभिव्यक्त नहीं होती। इसलिए समाधान के विकल्पों को इसमें तलाशना निरर्थक है। अगर प्रकारांतर से कहीं आदिवासी इस फिल्म से जुड़ता है तो वह हिंसक तत्त्व के रूप में, जिसे सरकार, समाज, व्यवस्था और मनुष्य का दुश्मन बताया गया है। इसी चेतना-धारा में ‘द नक्सलाइट’, ‘लाल सलाम’, ‘हजारों ख्वाहिशें ऐसी’ और ‘चक्रव्यूह’ जैसी फिल्में आई हैं, जो नक्सलवाद पर केंद्रित हैं, उनके संगठन, भर्ती, अनुशासन, नेतृत्व, रणनीति, पुलिस के साथ मुठभेड़, मुखबिरी, महिला कैडर की उपस्थिति, प्रेम संबंध वगैरह को चित्रित किया गया है। इनमें शोषण का तत्त्व आता है, जिसका आदिवासी समाज के शोषण की विशिष्टताओं के साथ कम ही मेल खाता दिखाई देता है।
हिंदी फिल्मों में आदिवासी जीवन की इस कदर मिलने वाली सतही, गैरजिम्मेदाराना, अनुभव और यथार्थ से दूर की जाने वाली अभिव्यक्तियों के बावजूद हमें कुछ फिल्में आकर्षित, प्रभावित और आंदोलित करने में सक्षम हुई हैं, जिनमें ‘मृगया’, ‘आक्रोश’, ‘हजार चौरासी की मां’ हैं। ये फिल्में आदिवासी जीवन के यथार्थ को काफी हद तक आधिकारिक अनुभव के साथ पर्दे पर उतारती हैं।
आदिवासी विषयों को संवेदनशीलता से फिल्माने वाली ‘मृगया’ में निर्देशक मृणाल सेन ने दिखाने का प्रयास किया है कि वास्तविक शिकारी धूर्त साहूकार है, लेकिन जिस तरह भारतीय सामाजिक संरचना रही है, उसमें आदिवासी का शोषण उनकी नियति बन गई है। यह सब तब तक है जब तक आदिवासी चेतनाशील न हो जाएं।
महाश्वेता देवी की कृति ‘हजार चौरासी की मां’ को आधार बना कर गोविंद निहलानी ने ‘हजार चौरासी की मां’ फिल्म बनाई। यह क्रांति को बलपूर्वक कुचले जाने की सत्ता की पाशविक रणनीति के परिणाम का साक्षात दर्शन कराती है। फिल्म इस निष्कर्ष पर पहुंचती है कि क्रांति की समाप्ति तभी संभव है जब सरकार गरीब, शोषित, पीड़ितों को सम्मान और मूलभूत अधिकार देगी।
गोविंद निहलानी की प्रसिद्ध फिल्म ‘आक्रोश’ में ओम पुरी की लाहन्या भीखू के किरदार में काफी प्रशंसा होती रही है। मगर आदिवासी दृष्टिकोण से इस फिल्म को देखें तो इस प्रश्न से रूबरू होना होगा कि फिल्म देखने के बाद एक आदिवासी दर्शक की प्रतिक्रिया कैसी होगी? यह एक भ्रांत धारणा है कि आदिवासी समाज स्व-चैतन्य नहीं होता। बुराई के खिलाफ जितने युद्ध आदिवासी समाज ने किए हैं उतने किसी अन्य ने नहीं। ब्रिटिशकालीन आदिवासी संघर्षों का लंबा क्रम है। इसलिए अगर फिल्म यह संदेश देने का प्रयास करती है कि आदिवासी समाज के लिए मुक्तिकामी और मुक्तिदाता केवल सवर्ण होंगे, तो यह सबसे बड़ा भ्रम होगा।
सवाल है कि फिल्म में अभिनय करने वाले पात्रों और फिल्म निर्माताओं की मानसिकता के अंतर्संबंधों को कोई कैसे समझेगा? फिल्म निर्देशक के निर्देशानुसार अभिनेता काम करते हैं। इसलिए जाहिर है, सारी फिल्म पर निर्देशक की मानसिकता, विचारधारा, पूर्वाग्रह, संस्कार वगैरह प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से अपना हस्तक्षेप करते हैं।
अब उन डॉक्यूमेंट्री फिल्मों की बात, जिनमें आदिवासी विषयों को केंद्र में रखा गया है। आदिवासी जीवन पर आधारित हिंदी में ऐसी फिल्में बहुत कम बनी हैं। ज्यादातर फिल्में अंगरेजी या क्षेत्रीय भाषाओं में बनी हैं। सबसे पहली डॉक्यूमेंट्री बस्तर अंचल के आदिवासियों के जनजीवन पर ‘बस्तर’ नाम से बनाई थी, वहां के प्रशासक ईएस हाईड ने सन 1937 में।
‘जोलीवुड’ नाम से लोकप्रिय छोटा नागपुर फिल्म इंडस्ट्री के बैनर तले कई फिल्में बनी हैं, जो आदिवासी जीवन को गहराई से दृश्यांकित करती हैं। झारखंड के आदिवासी संघर्ष पर निर्मित श्रीप्रकाश की ‘गोरु बारा’ एक महत्त्वपूर्ण फिल्म है। वहीं से मेघनाथ ने कई फिल्में बनाई हैं, जिनमें आदिवासी जीवन के यथार्थ को अभिव्यक्त किया गया है। इन्होंने ‘अखड़ा’ संगठन के बैनर तले दर्जनों लघु फिल्में बनाई हैं। कहा जा सकता है कि आदिवासी समाज के अतीत, वर्तमान और भविष्य को लेकर जितनी फिल्में झारखंड में बन रही हैं, उतनी भारत के अन्य किसी हिस्से में नहीं। नंदीग्राम की घटना पर केंद्रित अनिंदिता सर्वाधिकारी की फिल्म एक आधिकारिक श्रेणी का दस्तावेज है।
फिल्मों में आदिवासियों को जंगली और बर्बर दिखाने के पीछे काफी हद तक औपनिवेशिक मानसिकता जिम्मेदार है। हॉलीवुड सिनेमा में आदिवासियों को ‘खून का प्यासा’ बताया जाता रहा है। ‘टार्जन’ किस्म की फिल्मों के साथ इस मानसिकता की शुरुआत होती है। पिछले पांच वर्षों में बनी हिंदी फीचर फिल्मों को देखें, तो वही परंपरागत दृष्टिकोण सामने आता है। जब किसी आदिवासी मुद्दे पर कोई फिल्म बनाई जाती है, तो आदिवासी समाज का यथार्थ कहीं न कहीं दृष्टिगोचर होना चाहिए।
आश्चर्य की बात है कि हिंदुस्तान के पूरे फिल्मी इतिहास में एक भी ऐसा आदिवासी अभिनेता नहीं है, जो एक आदिवासी की तरह सोच सके, महसूस कर सके, बोल सके, अपने समाज के सिर पर मंडरा रहे बहुआयामी संकटों से मुक्ति पाने के लिए कुछ कर सके। यह सब करने के लिए चाहिए एक सुदृढ़ वैचारिकी, जो फिल्मकारों के पास नहीं है।

