सौंदर्य-दृष्टि पर राममनोहर लोहिया ने दिलचस्प सवाल उठाया है कि दुनिया में गोरा रंग ही सुंदर क्यों माना जाता है? उनका उत्तर है कि इसलिए कि दुनिया पर गोरी चमड़ी वालों का शासन रहा है; अगर काले लोगों का रहा होता तो काला रंग सुंदर माना जाता। इसलिए सीता-सावित्री की जगह कृष्णा यानी द्रौपदी का आदर्श वे सामने रखते हैं। द्रौपदी सांवली थी, उसके पांच पति थे और वह तीखे सवाल उठाती थी। कुरु राजसभा में अपने सवालों से उसने बड़े-बड़ों को निरुत्तर कर दिया था। लोहिया को सवाल उठाने वाली द्रौपदी ज्यादा पसंद थी। रंगों के सौंदर्य के साथ आदर्शों का भी अपना सौंदर्य होता है। लोहिया समाज परिवर्तन के लिए हमारी जड़ीभूत सौंदर्य-दृष्टि पर जबर्दस्त हमला करते हैं। वास्तविक परिवर्तन सिर्फ सत्ता बदल जाने से नहीं, सुंदरता संबंधी सोच को भी बदलने से होगा। सौंदर्य दृष्टि में परिवर्तन का अर्थ है राजनीतिक सोच में भी परिवर्तन लाना।
सामाजिक सोच के बदलने से साहित्य के सौंदर्यशास्त्रीय सोच में कैसे फर्क आता है, इसका दिलचस्प उदाहरण है कबीर का काव्य। कभी कबीर की कविता को अनगढ़ कह कर कमतर महत्त्व दिया गया था, लेकिन प्रश्नाकुलता जैसे ही आधुनिकता की कसौटी बनी, प्रश्न उठाने वाले कबीर महत्त्वपूर्ण हो उठे। उनके अनगढ़पन के सौंदर्य के वैशिष्ट्य पर भी साहित्य-चिंतकों का ध्यान गया। प्रपद्यवादी कवि केसरी कुमार ने, जिन पर लोहिया के विचारों का गहरा असर था, कबीर-काव्य के अनगढ़ के सौंदर्य की ओर ध्यान आकृष्ट किया। कबीर व्यंग्य के कवि हैं। व्यंग्य के जरिए दूसरों पर चोट करते हैं। केसरी कुमार के अनुसार कबीर की कविता उस पत्थर की तरह है, जिसकी मारक क्षमता उसके अनगढ़पन के कारण बहुत बढ़ जाती है। कबीर के अनगढ़पन के सौंदर्य को देखने वाली यह साहित्य-दृष्टि पिछली सभी दृष्टियों से भिन्न है। इस भिन्नता का मूल कारण साहित्य-सौंदर्य के प्रतिमानों में निरंतर हो रहा परिवर्तन है।
यह दुनिया अगर परिवर्तनशील है और रोज बनती है, तो साहित्य के सौंदर्यशास्त्रीय प्रतिमान कैसे स्थिर होंगे? इसके उदाहरण हमारे साहित्य-इतिहास में भरे पड़े हैं। भरत मुनि से लेकर पंडितराज जगन्नाथ तक भारतीय साहित्यशास्त्र का गहन विस्तार बात का प्रमाण है कि साहित्य-सौंदर्य की हमारी दृष्टि गतिशील रही है और उसमें जीवन की तरह वैविध्य है। तुलसीदास के प्रशंसक शुक्लजी को राम इसलिए प्रिय हैं कि उनमें उन्हें कर्म का सौंदर्य नजर आता है। कर्म का सौंदर्य ही साहित्य की आधुनिक दृष्टि का मूल आधार है। तुलसीदास सीता के सौंदर्य का वर्णन करते हुए लिखते हैं: ‘सुंदरता कहुं सुंदर करइ, छविगृह दीप सिखा जनु बरइ।’ वैष्णव चेतना के साथ सौंदर्य चेतना में कैसे भारी परिवर्तन उपस्थित होता है, इसका दिलचस्प उदाहरण है मैथिलीशरण गुप्त का राम संबंधी काव्य। आधुनिक वैष्णव कवि गुप्तजी की सीता कैसी हैं? माता तो वे गुप्तजी की भी हैं, पर दूसरे अर्थ में। पंचवटी का जो सुंदर दृश्य है, वह यह कि ‘सीता मइया थीं आज कछोटा बांधें’। कछोटा बांध कर श्रम करती हुई सीता आधुनिक युग की श्रमशील स्त्री हैं। तुलसीदास के युग से गुप्तजी के समय तक सीता का रूप बदला है, तो इसका कारण यह है कि सौंदर्य को देखने की हमारी दृष्टि भी बदली है।
प्रेमचंद ने जब साहित्य के सौंदर्य के प्रतिमान बदलने की बात की, सुलाने वाले साहित्य की जगह जगाने वाले साहित्य की मांग की तो इसका कारण यह था कि नवयुग की हवाएं उस पर बदलाव के लिए दबाव डाल रही थीं। महाकाव्य के धीरोदात्त नायकों और पद्मिनी नायिकाओं का युग समाप्त हो गया, होरी और धनिया जैसे नायक-नायिकाओं का युग आ गया। रेणु की कहानी ‘तीसरी कसम’ की व्याख्या करते हुए विश्वनाथ त्रिपाठी ने हिंदी कथा-साहित्य में रेणु के एक मौलिक योगदान की चर्चा की है। वे कहते हैं कि रेणु ने ‘तीसरी कसम’ जैसी प्रेम कहानी का नायक हीरामन जैसे काले-कलूटे व्यक्ति को बना कर प्रेम कहानियों के नायकों की अवधारणा ही बदल दी। ‘तीसरी कसम’ की यह एकदम नई व्याख्या है। हीरामन के साथ प्रेम कहानी का नायक ही नहीं बदलता है, प्रेम कहानी संबंधी हमारी सौंदर्य-दृष्टि भी बदलती है। हिंदी कहानी में यह युगांतकारी बदलाव है। लोहिया ने अपने प्रसिद्ध लेख ‘सुंदरता और त्वचा का रंग’ में सौंदर्य के प्रचलित प्रतिमानों को बदल कर, जो आमतौर से ऊपरी हैं, आंतरिक सौंदर्य पर जोर देने की मांग की है। यह अद्भुत संयोग है कि एक ही समय में लोहिया और रेणु समाज और साहित्य में प्रचलित सौंदर्यशास्त्रीय प्रतिमानों को बदल कर उसे आंतरिक सौंदर्य से जोड़ने पर बल देते हैं।
गांधी और टैगोर के बीच जो पत्र-व्यवहार और विचार-विमर्श हुए उसे देखने पर पता चलता है कि चरखा को लेकर दोनों में तीव्र मतभेद थे। टैगोर चरखे की अर्थनीति से सहमत नहीं थे। गांधी ने जवाब में लिखा कि कवि तो कल्पना के भव्यलोक में रहते हैं, जबकि मैं दूसरे के बनाए चरखे का गुलाम हूं। अपने काम से कवि-कर्म को श्रेष्ठ मानते हुए गांधी ने टैगौर को सलाह दी: ‘अगर कवि… रोजाना आधा घंटा कातें (चरखे पर सूत) तो उनकी कविता और निखरेगी। कारण, तब उनकी कविता में गरीबों के दुख-दर्दों का आज की अपेक्षा कहीं अधिक सशक्त चित्रण होगा।’ इस तरह गांधी का जोर गरीबों के दुख-दर्द, श्रम, स्वावलंबन और सरल जीवन पर है। गांधी के लिए जीवन-सौंदर्य के स्रोत यही हैं, बेशक साहित्य सौंदर्य के भी।
रामविलास शर्मा ने कहा है कि संसार में रहे बिना सौंदर्यबोध संभव नहीं है और सौंदर्यबोध के बिना कलात्मक सृजन भी संभव नहीं है। अब अगर सौंदर्यबोध का आधार संसार है तो प्रश्न उठेगा कि संसार तो वर्ग-जाति स्त्री-पुरुष और काले-गोरे में बंटा है। अलग-अलग श्रेणियों से आने वाले रचनाकारों का सौंदर्यबोध क्या एक होगा? रामविलासजी यथार्थवादी साहित्य दृष्टि को इसका मुख्य आधार मानते हैं। लेकिन उनके यथार्थवाद की सीमाएं तो कविता संबंधी उनके मूल्यांकन में ही स्पष्ट हो जाती हैं। इसलिए दलित साहित्यकार अलग कसौटी और सौंदर्यशास्त्र की बात करते हैं। शरण कुमार लिंबाले ‘रूढ़ साहित्यिक कसौटी’ पर ‘नई साहित्यिक धारा’ का मूल्यांकन उचित नहीं मानते। वे पुराने सौंदर्यशास्त्र को आनंद पर आधारित मानते हैं, जबकि दलित साहित्य का आधार व्यथा और वेदना है। स्त्री-लेखन में सौंदर्य के प्रतिमान, पितृसत्ता से उपजी भाषा, मुहावरे, प्रतीक, बिंब आदि को बार-बार प्रश्नांकित किया जाता है।
भक्ति दर्शन के प्रकाश में लिखा गया साहित्य हो या आधुनिकता से प्रभावित साहित्य; उसके सौंदर्यबोध का आधार कोई न कोई वैचारिक दर्शन रहा है। आज जबकि बाजारवाद के प्रभाव में वैचारिक आदर्शों की चूलें हिल गई हैं और रचनाकारों के सामने कोई वैचारिक आदर्श नहीं है, तब प्रश्न पैदा होता है कि नई पीढ़ी के रचनाकारों का सौंदर्यबोध क्या है? प्लेटो ने कहा है कि सौंदर्य तो देखने वाले की दृष्टि में होता है। वैसे यह पूर्ण कथन नहीं है- दृष्टि तो महत्त्वपूर्ण है ही, दृश्य भी महत्त्वपूर्ण होना चाहिए। लोहिया का जोर भी दृष्टि पर है, दृश्य पर नहीं। प्रश्न है कि दृष्टि और दृश्य के द्वंद्व को ध्यान में रखे बिना क्या साहित्य के सौंदर्य पर बात हो सकती है? चरखा संबंधी टैगोर के साथ विवाद में गांधी का ध्यान इस द्वंद्व पर था। टैगोर की कविता और अपने चरखा को गांधी ने एक-दूसरे का ‘पूरक’ कहा है।
आज जबकि बाजारवाद के प्रभाव में वैचारिक आदर्शों की चूलें हिल गई हैं और रचनाकारों के सामने कोई वैचारिक आदर्श नहीं है, तब प्रश्न पैदा होता है कि नई पीढ़ी के रचनाकारों का सौंदर्यबोध क्या है? क्या दृष्टि और दृश्य के द्वंद्व को ध्यान में रखे बिना साहित्य के सौंदर्य पर बात हो सकती है?