हाल ही में महिला समानता दिवस की सौवीं वर्षगांठ मनाई गई। पर एक सदी बीत जाने के बावजूद महिला समानता का यक्ष प्रश्न ज्यों का त्यों खड़ा है। कुछ प्रश्न तो ऐसे हैं, जिनका तार्किक उत्तर ढूंढ़ने के प्रत्येक प्रयास निरर्थक सिद्ध होते हैं। उन्हीं प्रश्नों में से एक है कि क्यों बिना किसी वैधानिक आधार के भारत में महिला और पुरुष की विवाह की वैधानिक आयु में अंतर है। दुनिया के ज्यादातर देशों में लड़के और लड़कियों की विवाह की आयु एक समान है। फिर भारत में विसंगति क्यों है। लड़के और लड़कियों की विवाह की आयु एक समान करने की जनहित याचिका उच्च न्यायालय में लंबित है।

उल्लेखनीय है कि विधि आयोग ने 2018 में विवाह से संबंधित कानून पर गहनता से विचार किया था, फिर उसने विवाह की समान आयु के विषय में अपना परामर्श देते हुए कहा था कि अगर वयस्कता के लिए समान आयु को मान्यता है, जो कि सभी नागरिकों को अपनी सरकार चुनने का अधिकार प्रदान करता है, तो निष्चित ही वे अपना जीवन साथी सुनने में भी सक्षम होंगे।

इससे पहले भी फरवरी, 2008 में विधि आयोग ने अपनी एक रिपोर्ट में वैयक्तिक और पूरे समाज के लिए किसी गंभीर परिणाम से बचने के लिए लड़के और लड़कियों दोनों के लिए विवाह की आयु अठारह वर्ष निर्धारित करने की सिफारिश की थी। यों इस साल जून में केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने मातृत्व की आयु, मातृ मृत्यु दर और महिलाओं से संबंधित मुद्दों की जांच करने के लिए एक कार्यबल का गठन किया है। वह गर्भावस्था, प्रसव और उसके पश्चात विवाह की आयु और मातृत्व के सहसंबंध की जांच करेगा, जो कि विवाह की आयु निश्चित करने में एक निर्णायक भूमिका निभाने की संभावना रखती है।

यह गंभीरता से मनन करने का विषय है कि विवाह की समान आयु अठारह वर्ष होनी चाहिए या इक्कीस वर्ष। दूसरा तथ्य यह भी विचारणीय है कि क्या विवाह की आयु समान करने मात्र से महिलाएं अपने जीवन और मातृत्व की सुरक्षा का अधिकार प्राप्त कर लेंगी। यह पहला अवसर नहीं है जब विवाह की वैधानिक आयु चर्चा का विषय बनी हुई है। 1884 में औपनिवेशिक भारत में डॉक्टर रुख्माबाई प्रकरण और 1889 में फुलमोनी की मौत के बाद यह मामला पहली बार गंभीर मुद्दा बना था।

रुख्माबाई ने बचपन की शादी को मानने से इनकार कर दिया था, वहीं ग्यारह वर्ष की फुलमोनी की मृत्यु पैंतीस साल के पति के जबरिया यौन संबंध बनाने यानी दुष्कर्म की वजह से हुई थी। फुलमोनी के पति को हत्या की सजा तो मिली, पर वह दुष्कर्म के आरोप से बरी हो गया। तब बाल विवाह की समस्या से निपटने के लिए ब्रिटिश सरकार ने 1891 में सहमति की आयु का कानून बनाया।

इसके अनुसार यौन संबंध के लिए सहमति की आयु बारह वर्ष सुनिश्चित की गई, हालांकि उस समय भी यही सच था कि बारह वर्ष की आयु किसी भी लिहाज से संबंध स्थापित करने या विवाह के लिए उचित नहीं है। 1929 में शारदा एक्ट में लड़कों की अठारह और लड़कियों के लिए चौदह वर्ष विवाह की आयु निर्धारित की गई, जिसमें 1978 में संशोधन कर लड़कों की विवाह की वैधानिक आयु इक्कीस साल और लड़कियों के लिए अठारह साल की गई।

बीते दशकों में विवाह की वैधानिक आयु के संबंध में कोई महत्त्वपूर्ण चर्चा नहीं हुई है, क्योंकि वैधानिक स्तर पर अठारह वर्ष लड़कियों की विवाह की आयु होने के बावजूद दुनिया भर की एक तिहाई लड़कियां बाल विवाह के बंधन में भारत में ही बांधी जाती रही हैं। भारत में विवाह की न्यूनतम आयु, खासकर महिलाओं के लिए, सदा एक विवादास्पद विषय रहा है। जब भी इस प्रकार के नियमों में परिवर्तन की बात की गई है, सामाजिक और धार्मिक रूढ़िवादियों का कड़ा विरोध देखने को मिला है।

उसके पीछे स्पष्ट धारणा है कि जितनी देरी से लड़कियों का विवाह होगा, उतना ही उन्हें अपने पति के घर से सामंजस्य बिठाने में परेशानियों का सामना करना पड़ेगा, क्योंकि परिपक्वता व्यक्ति को अपने अधिकारों और स्वाभिमान की रक्षा के प्रति जागरूक करती है। भारतीय परिवार ही नहीं, विश्व के अधिकांश पितृसत्तात्मक समाजों में परिवार के साथ सामंजस्य, त्याग और निरंतर घरेलू श्रम करने की अपेक्षा सिर्फ स्त्री से की जाती है।

लड़कियों को पराया धन मानने की मानसिकता बदलना सहज नहीं है और यह स्थिति गांव से लेकर शहरों में समान रूप से व्याप्त है। लड़की के जीवन की वास्तविक सफलता उच्च शिक्षा में नहीं, बल्कि उच्च पदस्थ वर से विवाह करने में है। ऐसी सोच रखने वाली मानसिकता यह विचार करने को कदापि तैयार नहीं है कि कम उम्र में लड़कियों का विवाह संस्थागत बाल श्रम के साथ उनके जीवन की समाप्ति के रास्ते भी बनाता है।

2017 की विश्व बैंक और इंटरनेशनल सेंटर फॉर रिसर्च आॅन वुमेन की एक रिपोर्ट बताती है कि अगर भारत सरकार बाल विवाह पर रोक लगा दे, तो आने वाले सात वर्षों में स्वास्थ्य देखभाल संबंधी खर्च में पैंतीस हजार करोड़ रुपए बच सकते हैं। यह अकल्पनीय है कि एक सामाजिक बुराई किस प्रकार सामाजिक व्यवस्था को ही आघात नहीं पहुंचाती, बल्कि अर्थव्यवस्था को भी भारी नुकसान पहुंचाती है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक किशोरावस्था में गर्भावस्था से एनीमिया, मलेरिया, एचआइवी और अन्य यौन संचारित संक्रमण, प्रसवोत्तर रक्त स्राव और मानसिक विकार जैसी स्वास्थ्य समस्याएं हो सकती हैं। भारत में वर्ष 2017 में गर्भावस्था और प्रसव से संबंधित जटिलताओं के कारण साढ़े तीन हजार महिलाओं की मृत्यु हुई थी।

यह दुखद है कि भारत में जिस समय महिलाओं को उनके भविष्य और शिक्षा की ओर ध्यान देना चाहिए उस समय उन्हें विवाह के अवांछित दायित्वों से लाद दिया जाता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन मानता है कि मां बनने के लिए महिला की उम्र कम से कम बीस वर्ष होनी चाहिए। उसके मुताबिक विश्व भर में पंद्रह से उन्नीस साल की लड़कियों की मौत गर्भावस्था में होने वाली जटिल स्थितियों के कारण होती है। अगर इस पूरे परिप्रेक्ष्य में लड़कियों की वैधानिक विवाह की आयु बढ़ाने पर विचार किया जाए, तो यह स्वागत योग्य है।

यह पृष्ठभूमि भी विचारणीय है कि लड़के और लड़कियों की वैधानिक आयु में अंतर संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) और अनुच्छेद 21 (गरिमा के साथ जीवन जीने का अधिकार) का उल्लंघन है, पर उससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण, उच्चतम न्यायालय के इस निर्णय पर गंभीरता से विचार करने का समय है, जो बाल विवाह को पूरी तरह से अवैध घोषित करने की अपेक्षा सरकार से कर रहा है।

संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि दशकों के अनुभव और अनुसंधान से स्पष्ट है कि बिल्कुल निचले स्तर पर जमीनी दृष्टिकोण के जरिए स्थायी परिवर्तन लाने में ज्यादा मदद मिलती है। लड़कियों को शिक्षा दिलाने, उन्हें जीवन कौशल सिखाने और पुरुषों को सामाजिक परिवर्तन में सम्मिलित करने से यकीनन भविष्य में सुधार की संभावना बढ़ जाएगी। महिलाओं को समर्थन देती अर्थव्यवस्थाएं और कानूनी प्रणालियां इस तरह पुनर्गठित की जानी चाहिए कि प्रत्येक महिला को समानता के स्तर पर खड़ा किया जा सके।