मदन मोहन के संगीत और लता मंगेशकर के गाए गानों में आखिर ऐसा क्या है, जो संगीत प्रेमियों को सालों से आकर्षित कर रहा है। लता मंगेशकर ने लगभग हर संगीतकार के साथ काम किया। मगर ऐसा लगता है मानो लता की आवाज को पूर्णता मदन मोहन के संगीत में ही मिलती है। इन गानों को सुनकर ऐसा अहसास होता है, जैसे लंबे समय से धूप में चल रहे किसी पथिक को किसी घने पेड़ की छाया मिल गई हो। मदन मोहन का संगीत ऐसा ही सुकून देता है।
यकीन नहीं आता है तो एक नजर डालिए- ‘बैयां न धरो…’, ‘माई री मैं कासे कहूं पीर..’ (दस्तक), ‘आज सोचा तो आंसू भर आए…’, ‘बेताब दिल की तमन्ना…’ (हंसते जख्म), ‘फिर वही शाम वही गम…’, ‘वो चुप रहें तो मेरे…’(जहांआरा), ‘वो भूली दास्तां…’(संजोग), ‘यूं हसरतों के दाग…’, ‘उनको ये शिकायत है कि…’ (अदालत), ‘मैंने रंग ली आज चुनरिया…’ (दुल्हन एक रात की), ‘छाई बरखा बहार…’, ‘तेरी आंखों के सिवा…’ (चिराग), ‘हुस्न हाजिर है मोहब्बत की सजा पाने को…’ (लैला मजनंू)…. यह सूची काफी लंबी है। बहुत मुमकिन है कि इस लता-मदन मोहन का कोई गाना छूट जाए। ये ऐसे गाने हैं जिन्हें संगीतप्रेमी बार बार सुनने की तमन्ना रखता है।
पचास के दशक में जब मदन मोहन ने अपने करिअॅर की शुरुआत की थी, तब फिल्मजगत में दिलीप कुमार, देव आनंद और राज कपूर की तिकड़ी लोकप्रिय थी। दिलीप कुमार की फिल्मों में नौशाद, देव आनंद की फिल्मों में सचिन देव बर्मन और राज कपूर की फिल्मों में शंकर जयकिशन संगीत दे रहे थे। ऐसे में अन्य संगीतकारों के लिए फिल्मजगत में अपना मुकाम बनाना काफी कठिन काम था। यह चुनौती मदन मोहन के सामने भी थी। उन्हें बड़े और स्थापित निर्माताओं की फिल्में नहीं मिल रही थीं। उनकी फिल्म का संगीत तो सराहा जाता था मगर फिल्म सफल नहीं होती थी। असफलता के इस चक्रव्यूह में मदन मोहन अंत तक फंसे रहे। हालांकि 1970 की फिल्म ‘दस्तक’ के लिए मदन मोहन को सर्वश्रेष्ठ संगीतकार का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था। मगर तब तक वह बुरी तरह टूट चुके थे। उनकी फिल्म ‘लैला मजनंू’ (1976) को अपार लोकप्रियता मिली थी, मगर इसके प्रदर्शन से पहले ही मदन मोहन का इंतकाल (14 जुलाई, 1975) हो गया था। इसके चार गाने संगीतकार जयदेव ने तैयार किए थे।
राजेंद्र कृष्ण, राजा मेहंदी अली खां, कैफी आजमी, साहिर लुधियानवी, हसरत जयपुरी, इंदीवर जैसे गीतकारों ने मदन मोहन के लिए गाने लिखे। मगर आनंद बख्शी जैसे लोकप्रिय गीतकार को मदन मोहन के लिए गाने लिखने का मौका नहीं मिला। दोनों सेना में थे और फिल्मों की दुनिया में सक्रिय हुए। दोनों गायक भी थे और फिल्मों में कुछेक गाने भी गाए। राजेंद्र कृष्ण, मदन मोहन के गहरे मित्र थे और उन्होंने 250 से ज्यादा गाने मदन मोहन के लिए लिखे।
25 जून 1924 को बगदाद में पैदा हुए मदन मोहन के पिता चुन्नीलाल कोहली इराकी पुलिस में अकाउंटेंट जनरल थे और चाहते थे कि उनका बेटा सेना में जाए। पिता की इच्छा का खयाल करते हुए मदन मोहन सेना में चले गए मगर उनका दिल संगीत से लग चुका था। मदन मोहन की मां भी गायिका थीं। द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद मदन मोहन ने सेना से इस्तीफा दे दिया और लखनऊ आ गए। लखनऊ में वह आॅल इंडिया रेडियो से जुड़ गए और असिस्टेंट म्यूजिक अरेंजर के रूप में काम करने लगे थे। लखनऊ में सही माने में मदन मोहन में संगीत जागा। यहां उनकी निकटता सिद्धेश्वरी देवी और बेगम अख्तर जैसी नामचीन गायिकाओं से हुई। यहीं गजल और ठुमरी ने उनके अंदर जड़ें जमार्इं। लखनऊ में मदन मोहन ने संगीत की जमकर अड्डेबाजी की।
मगर मदन मोहन का संगीत की दुनिया से जुड़ना पिता को रास नहीं आया। सख्त और अनुशासनप्रिय पिता से जब मदन मोहन ने साफ कह दिया कि वह संगीत की दुनिया में काम करेंगे, तो वह बड़े नाराज हुए। पिता ने उन्हें वैसे ही घर से बाहर निकाल दिया था, जैसे संगीतकार नौशाद को उनके पिता ने निकाला था। लगभग दो सालों तक मदन मोहन मशहूर निर्देशक जेपी दत्ता के लेखक पिता ओपी दत्ता के घर में रहे, जहां उनकी दोस्ती गीतकार राजेंद्र कृष्ण से हुई। यह दोस्ती काफी लंबी चली और राजेंद्र कृष्ण ने मदन मोहन के लगभग छह सौ गानों में से सबसे ज्यादा गाने लिखे। मदन मोहन शुरुआत में संगीतकार सचिन देव बर्मन और श्याम सुंदर के सहायक भी रहे।
कुछ छिटपुट काम के जरिए मदन मोहन ने जीविकोपार्जन करने की कोशिशें की। 1948 में ‘आंखें’ से मदन मोहन के करिअॅर की शुरुआत हुई। इसमें वह लता मंगेशकर से गवाना चाहते थे। दोनों का साथ पहले से ही था। ‘शहीद’ फिल्म के लिए मदन मोहन और लता मंगेशकर ने एक गाना गाया था, मगर वह गाना फिल्म में नहीं रखा गया और न ही रिकॉर्ड पर आया था। यह भाई बहन के रिश्तों पर बना गाना था, जिसके बाद दोनों के बीच भाई बहन का स्नेह पैदा हुआ। मदन मोहन ने कहा कि जब वह संगीतकार बनेंगे तो अपनी फिल्म में लता मंगेशकर से गवाएंगे, मगर व्यस्तता के चलते लता मंगेशकर ‘आंखें’ में नहीं गा पाई थीं। हालांकि बाद में लता-मदन मोहन का साथ काफी लंबा चला। लता, मदन को राखी बांधती थीं।
मदन मोहन एकमात्र ऐसे संगीतकार है जिनकी बनाई हुई धुनें उनके निधन के दो दशक बाद भी इस्तेमाल की गर्इं। 1980 में मदन मोहन की अंतिम फिल्म ‘चालबाज’ रिलीज हुई थी। यह कमोबेश नए कलाकारों को लेकर बनी फिल्म थी। यश चोपड़ा ने कभी मदन मोहन का संगीत अपनी फिल्म में नहीं लिया था। मगर 2004 में वह ‘वीर जारा’ बना रहे थे, तो उन्हें मदन मोहन की याद आई। चोपड़ा ने ‘वीर जारा के लिए मदन मोहन की बनाई हुई वे धुनें इस्तेमाल कीं, जो किसी फिल्म में इस्तेमाल नहीं हो पाई थीं। 2004 में रिलीज हुई ‘वीर जारा’ का गाना ‘जानम देख लो मिट गई दूरियां…’ काफी लोकप्रिय हुआ। मदन मोहन गाने की धुन बनाने के बाद रिहर्सल करते थे, फिर गाना रिकॉर्ड करते थे। कई दफा तो वह एक गाने की पांच सात धुनें तक तैयार कर लेते थे।
मदहोश’, ‘शबिस्तान’ (51), ‘गेटवे आॅफ इंडिया’, ‘देख कबीरा रोया’ (57), ‘अदालत’ (58) ‘संजोग’ (61), ‘अनपढ़’ (62), ‘आप की परछाइयां’, ‘हकीकत’, ‘जहांआरा’, ‘वो कौन थी’ (64), ‘दुल्हन एक रात की’, ‘मेरा साया’ (66), ‘चिराग’ (69), ‘दस्तक’, ‘हीर रांझा’ (70), ‘बाबर्ची’ (72), ‘हंसते जख्म’, ‘हिंदुस्तान की कसम’ (73), ‘मौसम’ (75), ‘लैला मजनूं’ (76) जैसी फिल्मों में मदन मोहन ने मधुर संगीत दिया।
मदन मोहन के गानों की खूब तारीफें हुर्इं, मगर बॉक्स आॅफिस सफलता के बिना सब कुछ बेमानी साबित हो रहा था। मदन मोहन को पहली सिल्वर जुबली फिल्म के लिए 16 सालों तक इंतजार करना पड़ा। 1964 में ‘वो कौन थी’ के रूप में उन्हें पहली सिल्वर जुबली फिल्म मिली। फिल्म जगत में जिस तरह से मदन मोहन की उपेक्षा हो रही थी, उसने उन्हें तोड़ दिया और वह शराब में डूब गए। खाने और गाने से मोहब्बत करनेवाले मदन मोहन को आमतौर से अपनी गजलों के लिए याद किया जाता है। मगर उन्होंने हर तरह के गाने बनाए। ‘चिंचपोकली हो हो चिंचपोकली, तू छोकरा मैं छोकरी…’ (शबिस्तान, 51) में उन्होंने श्मशाद बेगम के साथ खुद गाया था। ‘बाबर्ची’ के ‘भोर आई गया अंधियारा…’ में मन्ना डे, लक्ष्मी शंकर, निर्मला देवी, हरिंद्रनाथ चट्टोपाध्याय के साथ किशोर कुमार से भी गवाया। पहले इस फिल्म में सी रामचंद्र संगीत दे रहे थे। उनके फिल्म छोड़ने के बाद मदन मोहन ने इस फिल्म के लिए चार गाने तैयार किए थे।
काबिल होने के बावजूद जिस तरह मदन मोहन फिल्म जगत में हाशिये पर रहे। अलग अलग शिविरों में बंटे फिल्म जगत में यह कोई नई बात नहीं थी। हालांकि निधन के बाद भी मदन मोहन के संगीत की लोकप्रियता कम नहीं हुई है। उनके संगीत का नशा किसी मादक पदार्थ की तरह धीरे धीरे चढ़ता है और फिर सुननेवाले को अपने आगोश में ले लेता है। आज भी फ्लॉप फिल्मों के हिट संगीतकार मदन मोहन के प्रशंसकों की बड़ी संख्या है और संगीत की चर्चा होती है तो उनकी ही फिल्म ‘बागी’ में मजरूह सुलतानपुरी के लिखे गाने की याद दिला देती है- हमारे बाद अब महफिल में अफसाने बयां होंगे, बहारें हमको ढूंढ़ेगीं न जाने हम कहां होंगे…’