पूरन सरमा

जनसत्ता 28 सितंबर, 2014: किसी विधा के लेखन में सोद्देश्यता उसकी पहली शर्त मानी जाती रही है। बिना कथ्य के लिखने का कोई अर्थ नहीं रह जाता। इस दृष्टि से सतीश अग्निहोत्री अपने व्यंग्य संग्रह तहं-तहं भ्रष्टाचार में शिल्प के साथ कथ्य के स्तर पर भी काफी हद तक सफल रहे हैं। अग्निहोत्री करीब चार दशक से लेखन में प्रवृत्त हैं, इसकी स्पष्टता उनके व्यंग्यों में निहित विषयों की भरमार देख कर लग जाता है। वे जहां व्यंग्य रचनाओं में विसंगतियों की चुन-चुन कर खबर लेते दिखाई देते हैं, वहीं वे अपने कल्पनालोक में कथालोक का ताना-बाना भी बुनते हैं। हां, कभी-कभी पाठक को यह जरूर लग सकता है कि वे जिस आम आदमी और बेताल के माध्यम से गल्प बनाते हैं, वह कहीं बार-बार दोहराए जाने से उबाऊ न बना दे। पर आश्वस्त तब होना पड़ता है, जब वैविध्य के साथ अग्निहोत्री पौराणिक कथा साहित्य के शिल्प को नए मुहावरे के साथ गढ़ते जाते हैं। प्रसिद्ध व्यंग्यकार ज्ञान चतुर्वेदी ने इस संग्रह की प्रशस्ति में ठीक ही कहा है- ‘सतीश अग्निहोत्री के इस व्यंग्य संग्रह की अधिकांश रचनाओं में व्यंग्य कौशल बेहद मैच्योरली बरता गया दिखता है। व्यंग्य के उनके विषय तो नए हैं ही, उनको पौराणिक तथा लोकगल्पों से जोड़ने की उनकी शैली भी बेहद आकर्षक है। आप मजे-मजे में सब कुछ पढ़ जाते हैं…।’ इस कथन से असहमत नहीं हुआ जा सकता।

इन व्यंग्यों में नौकरशाही, लालफीताशाही, भ्रष्टाचार, पारिवारिक चलन का नया संसार और बाजार की मनमानी पर वे जम कर बरसते और अपने आदमी की जबान से उसे त्रस्त होते भी दर्शाते हैं। अग्निहोत्री स्वयं प्रशासनिक सेवा के अधिकारी होते हुए भी सरकार की उदासीनता और वहां व्याप्त भ्रष्टाचार को उघाड़ते और निर्भय होकर अपने विचारों की अभिव्यक्ति करते हैं। ‘टिकटार्थी की मौत’ की ये पंक्तियां जितनी रोचक हैं, उतनी ही खुलासे के साथ बात को भी रख पाती हैं: ‘नारद के पास अनुभवों का भंडार था। त्रिलोक में विचरते समय वे कई तरह की घटनाओं से दो-चार हुआ करते थे। बहुत कम लोगों को पता था कि उन्होंने पृथ्वी पर कई साल एक प्रधानमंत्री के विशेष सहायक के शरीर में घुस कर बिताए थे। उस बेचारे सहायक का नाम नारद मुनि पड़ गया था। उन्हें अब भी याद है- खुद का रुतबा, दबदबा, दर्शनार्थियों की भीड़, टिकटार्थियों की तिकड़में…।’ उनका यही कौशल उनकी रचनाओं को एक खास दर्जा दिलाने में सफल रही है।

‘फाइल की शादी’ में तो उन्होंने नौकरशाही की बखिया उधेड़ कर रख दी है। वे ऋषि कण्व की कन्या चंचला के वर की खोज में हमारी व्यवस्था की चिंदी-चिंदी कर डालते हैं। कण्व अपनी कन्या के लिए मंत्री से लेकर लिपिक कुमार तक की यात्रा करते हैं, ताकि चंचला अपने मनपसंद वर से शादी कर सके, लेकिन चंचला बड़े, आला अधिकारियों और अपने पिता कण्व को अपनी पसंद शर्मा कर बता देती है। इसमें व्यंग्यकार आम आदमी से यह कहलवा कर कहानी की इति करता है, जिसमें लिपिक कुमार को सर्वशक्तिमान बताया जाता है: ‘‘आम आदमी ने ठंडी सांस भरी और कहा- ‘हे वेताल! मुझे पता था कि तुम ऐसा ही सीधा सवाल पूछोगे। चंचला को कण्व ने भले ही मानव रूप दिया हो, पर थी अतंत: वह एक फाइल। सो, अपने अतीत से पूरी तरह मुक्त तो नहीं हो सकती थी। लिपिक और फाइल का संबंध तो अन्योन्याश्रित है। फाइल ही क्लर्क को उसकी सारी शक्ति प्रदान करती है। सो, वह उसे यत्न से संभाल कर रखता है। फाइल नहीं, तो क्लर्क कुछ नहीं और क्लर्क नहीं तो फाइल भी कुछ नहीं। अत: लिपिक कुमार के प्रति उसका अनुराग स्वाभाविक था।’’ इस कथन में ‘फाइल की शादी’ व्यंग्य की संपूर्णता सामने आ जाती है और चंचला फाइल का सच भी।

‘कुंभकर्ण फिर सो गया है’ में भी अग्निहोत्री ने नौकरशाही का पर्दाफाश किया है कि जो व्यवस्था पूरे दस माह सोती है और फरवरी-मार्च में बजट के खर्च को अंतिम रूप देने के लिए जाग उठती है, गहरी नींद में सोया व्यवस्था का कुंभकर्ण इकतीस मार्च तक जागता है और वह फिर गहरी नींद को समर्पित हो जाता है। यहां भ्रष्ट व्यवस्था पर नुकीला व्यंग्य है। ‘पुस्तक विके्रता भी खुश है। लाइब्रेरी वाले धड़ाधड़ किताबें खरीदे चले जा रहे हैं। क्योंकि इकतीस मार्च से पहले पैसे खर्च करने हैं। अगर दोस्तोवस्की, निर्मल वर्मा, प्रेमचंद न मिल रहे हों तो न सही। फिर हैराल्ड रॉबिस और फिल्मी दुनिया भी चलेंगे।’ इस तरह व्यंग्यकार छोटी-छोटी बातों पर कटाक्ष करता और अपने कथ्य और कथा को गतिमान करता है। इस तरह की रचनाओं की संग्रह में भरमार है।
‘किस्सा किरासन का’ में लेखक ने दहेज लोलुपों पर वार किया है। यह वार भी हल्का नहीं है। रोचकता और मारकता से भरपूर। रसोई में मिट््टी के तेल का डिब्बा है। नई नवेली दुल्हन को रसोई में प्रवेश करा कर दरवाजा बंद कर दिया जाता है और हमारी लोलुप सामाजिकता दुल्हन को मिट््टी के तेल की जकड़ में लेकर जला डालती है। ‘किरासन को अब और देर नहीं करनी थी। दुल्हन की विनती सुन कर वह नहीं पसीजा। आखिर उसे भी तो बढ़ती स्पर्धा में अपनी बढ़त कायम रखनी थी। धुएं का गुबार और बड़ा हो गया था। तीखी महक वाले रंगहीन ज्वालाग्राही द्रव के फव्वारे से दुल्हन का सारा शरीर भीग गया। वह दरवाजे की ओर भागी और प्राणपण से उसे खोलने का प्रयास करने लगी, पर तब तक उसके कपड़े आग पकड़ चुके थे।’

‘त्रिशंकु की हवाई यात्रा’ के उल्लेख के बिना भी बात अधूरी रहेगी। त्रिशंकु, जैसा कि हम जानते हैं न आसमान का और न धरती का, बल्कि वह बीच में लटका पेंडुलम है, जो अपने अस्तित्व के लिए प्रयत्नशील तो रहता है, लेकिन कोई भी उसे इस बीच की स्थिति से बाहर नहीं आने देता। लेखक ने इसमें भाषा और गल्प का अद्भुत कौशल दिखाया है। त्रिशंकु की अवस्था का चित्रण अद्भुत कल्पनालोक को जीवंत करता है और अंत में वह विमान की सीढ़ी के पहले पायदान पर ही अटक कर रह जाता है। इसकी ये पंक्तियां दिलचस्प हैं: ‘जहां तक समाधान का प्रश्न है, दोनों पक्षों के अड़ियल रवैए को देखते हुए वही एक समाधान संभव था। इंद्र की साख बच गई, क्योंकि त्रिशंकु विमान में सवार होकर यात्रा नहीं कर पाया। विश्वामित्र की साख भी बची, क्योंकि त्रिशंकु वापस धरती पर नहीं उतरा।’

ऐसे गल्प कथानकों के माध्यम से ‘तहं तहं भ्रष्टाचार’ अपने उद्देश्य में सफल रहा है और वह पौराणिक पात्रों के नए संदर्भों के साथ जीवंत भी रहता है। ऐसे निराले कथा-बिंब व्यंग्यों को पठनीय तो बनाते ही हैं, लेखक की गहरी सूझ-बूझ का भी परिचय देते हैं। अपने सांस्कृतिक और पौराणिक अध्ययन की पुष्टि से सतीश बार-बार अपनी साख को पैनी धार देते नजर आते हैं।

संग्रह के ‘रामराज्य आने में अभी देर है’, ‘गुरुकुल’, ‘मिट्टी के रास्तों का देश’ व्यंग्य विशेष उल्लेखनीय हैं, जहां लेखक का ज्ञान सामने आता है। वहीं वह कटाक्ष की धार को कुंद भी नहीं होने देता। यह संग्रह अपनी उपस्थिति बहुत धमक के साथ दर्ज कराता है और जीवन की सच्चाइयों से रूबरू भी।

तहं तहं भ्रष्टाचार: सतीश अग्निहोत्री; राजकमल प्रकाशन, 1-बी, नेताजी सुभाष मार्ग, दरियागंज, नई दिल्ली; 250 रुपए।

 

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