पिछले हफ्ते भारत और अमेरिका ने चुपचाप एक करार ‘लॉजिस्टिक्स एक्सचेंज मेमोरेंडम आॅफ एग्रीमेंट’ (लिमोआ) पर हस्ताक्षर किए। इस करार पर 2002 से ही चर्चा चल रही थी। वाजपेयी सरकार व यूपीए सरकार और खासकर एके एंटनी के कार्यकाल में रक्षा मंत्रालय इस करार के पक्ष में नहीं था। कांग्रेस पार्टी को भी एतराज था। वाम दलों ने प्रस्ताव का सख्त विरोध किया था। चर्चा चलती रही। अमेरिका ने इस तथ्य पर जोर दिया कि वह सौ देशों के साथ सैन्य साजो-सामान की मदद का करार (लॉजिस्टिक्स सपोर्ट एग्रीमेंट- एलएसए) कर चुका है। अमेरिका और भारत के बीच जिस करार पर हस्ताक्षर हुए वह एलएसए नहीं है बल्कि उसका तनिक बदला हुआ रूप है- लिमोआ। साफ है, दोनों पक्षों ने एक दूसरे की चिंताओं का खयाल रखा है। करार को सार्वजनिक नहीं किया गया है। इसे समझने के लिए हमारे सामने सिर्फ एक प्रेस विज्ञप्ति तथा भारत के रक्षामंत्री मनोहर पर्रीकर और अमेरिका के रक्षामंत्री एश्टन कार्टन की टिप्पणियां हैं। दोनों ने खूूब सावधानी बरतते हुए इस पर जोर दिया कि लिमोआ ‘सैन्य करार’ नहीं है।
किसे किसकी ज्यादा जरूरत है
फिलहाल हम अपने निष्कर्ष, प्राथमिक ही सही, केवल प्रेस विज्ञप्ति के आधार पर ही निकाल सकते हैं। करार दो भाग में है: एक हिस्सा उन वायदों की बात करता है जिन पर दोनों देश राजी हैं, और दूसरा हिस्सा उन वायदों से संबंधित है जो अलग-अलग मामले में समयानुसार किए जा सकते हैं।
दोनों देश पांच स्थितियों में सैन्य साजो सामान की मदद (लॉजिस्टिक्स सपोर्ट) मुहैया कराने के लिए वचनबद्ध हैं। ये स्थितियां हैं:
*एक दूसरे के यहां पोत के अधिकृत रूप से ठहरने पर;
*संयुक्त सैन्य अभ्यास;
*संयुक्त प्रशिक्षण;
*मानवीय सहायता; और
*आपदा राहत
सवाल है कि इस बात की कितनी संभावना है कि भारत रक्षा साजो-सामान की मदद के लिए अमेरिका से गुजारिश करेगा? ऐसा कितनी बार होगा कि भारतीय पोत (जहां एक ही विमानवाहक पोत है) बहुत दूर जाए और अमेरिकी बंदरगाह पर ठहरे? इस बात की कितनी संभावना हो सकती है कि भारतीय वायुसेना का कोई विमान अपने देश के अड््डों से कहीं बहुत दूर से उड़ान भरे, और वे ऐसा क्यों करेंगे? जहां तक मानवीय सहायता और आपदा राहत का सवाल है, क्या भारतीय कर्मी अमेरिका या यूरोप में तैनात किए जाएंगे? मेरे खयाल में, भारतीय फौजों को पाकिस्तान, चीन, नेपाल, बांग्लादेश और म्यांमा से लगी सरहदों से परे कहीं और तैनात किए जाने की संभावना नहीं है, अधिक से अधिक वे श्रीलंका या मालदीव जा सकती हैं। इनमें से किसी भी स्थिति में, इस बात की बहुत कम या न के बराबर संभावना है कि अमेरिका संबंधित करार के तहत रक्षा साजो-सामान की मदद की पेशकश करे।
दूसरी तरफ, इस बात की ज्यादा संभावना है कि अमेरिका को भारत की तटीय सेवाओं और रक्षा साजो-सामान की मदद की जरूरत पड़े। अमेरिका की सामरिक गतिविधि मध्य पूर्व, एशिया प्रशांत क्षेत्र और दक्षिण चीन सागर समेत दुनिया भर में है। अमेरिका के पोत और विमान इन क्षेत्रों में अक्सर गहन खोजबीन तथा निगरानी के लिए और कभी-कभी निरोधक कार्रवाई के मकसद से तैनात रहते हैं। वक्त ही बताएगा कि दोनों पक्षों में से कौन रक्षा साजो-सामान की मदद की मांग करता है, और कितनी बार? अमेरिका ने ऐसे सौ समझौते कर रखे हैं और भारत ने ऐसा समझौता पहली दफा किया है, यह तथ्य अपने आप में इस बात का पर्याप्त संकेत है कि किसे इसकी ज्यादा जरूरत है!
एक महत्त्वपूर्ण विचलन?
रक्षा साजो-सामान की सहायता की परिभाषा सामान्य है, पर कई बार सामान्य के बारे में भी अंदाजा लगाना कठिन हो जाता है। ‘रक्षा साजो सामान की सहायता, आपूर्ति और सेवाएं’ परिभाषित हैं जिनमें भोजन, पानी, सैनिकों को टिकाने की व्यवस्था, परिवहन-सुविधा, चिकित्सा सेवा, भंडारण सेवा, प्रशिक्षण, कल-पुर्जे, मरम्मत व रख-रखाव तथा जांच, और बंदरगाह की सेवाएं शामिल हैं। पहली दृष्टि में, इस सूची में कुछ भी गलत नहीं है। लाख टके का सवाल यह है कि इसे कैसे लागू किया जाएगा।उदाहरण के लिए, सैनिकों को टिकाने की व्यवस्था (बिलेटिंग) को लें। शब्दकोश के मुताबिक इसका अर्थ है वह स्थान जहां सैनिक डेरा डालते हैं। इसके अलावा करार में संचार, भंडारण, मरम्मत व रख-रखाव और उनकी जांच आदि सेवाओं की बात कही गई है। क्या अमेरिकी सैनिक भारत में डेरा डालेंगे? क्या इसकी संभावना है कि ‘भारतीयों’ को इस बात की इजाजत दी जाए कि वे अमेरिका को युद्धपोत और लड़ाकू विमान जैसी रक्षा सेवाएं मुहैया कराएं? क्या अमेरिका यह मांग नहीं करेगा कि अमेरिकियों (अममून रक्षाकर्मियों) को इन सेवाओं को मुहैया कराने की खातिर भारत में प्रवेश की अनुमति दी जाए? अगर ऐसा होता है, तो क्या यह पहली बार नहीं होगा कि भारत विदेशी रक्षाकर्मियों को भारतीय भूमि पर ठहरने की इजाजत देगा (संभवत: अस्थायी तौर पर)?
करार का दूसरा भाग संभावित वायदों से ताल्लुक रखता है। प्रेस विज्ञप्ति के मुताबिक, ‘किसी भी अन्य सहकारी प्रयास के लिए रक्षा साजो-सामान की सहायता अलग-अलग मामले में परिस्थितियों पर विचार करने के बाद ही मुहैया कराई जाएगी।’ अभी तक तो ठीक ही रहा, पर अब दोनों देशों के बीच फौजी सहयोग पर मौन सहमति दिखती है।
हाथ मिलाने से अधिक
बेशक, लिमोआ सैन्य करार नहीं है। फिर भी, यह कहना गलत नहीं होगा कि यह महज हाथ मिलाना नहीं है, यह उससे अधिक है। इस पर दुनिया भर की नजर है, खासकर चीन की, और रूस की, जो रक्षा के मामले में अब तक हमारा सबसे बड़ा सप्लायर रहा है। लिमोआ को नि:संदेह ‘एशिया की धुरी’ की अमेरिकी नीति पर भारत की मुहर के तौर पर देखा जाएगा। यही वजह है कि संपादकीयों और टिप्पणियों में आगाह किया गया है कि अमेरिका की ओर से भारत को ‘प्रमुख रक्षा साझेदार’ मान लिये जाने के बाद रक्षा सहयोग में बढ़ोतरी से भारत की रणनीतिक सैन्य तटस्थता या स्वतंत्र विदेश नीति की क्षमता प्रभावित नहीं होनी चाहिए।
यह सलाह जायज है, क्योंकि अमेरिका दो और ‘बुनियादी समझौतों’ के लिए इच्छुक है- द कम्युनिकेशंस इनटरोपरेबिलिटी ऐंड सिक्युरिटी मेमोरेंडम आॅफ एग्रीमेंट (सीआइएसएमओए) और बेसिक एक्सचेंज ऐंड कोआॅपरेशन एग्रीमेंट (बीइसीए)। अगर सरकार मानती है कि लिमोआ वाकई आपसी आदान-प्रदान का समझौता है- सिर्फ जुबानी नहीं, बल्कि उन लाभों के अर्थ में भी, जो देशों को प्राप्त होंगे, तो उसे संबंधित दस्तावेज को आम जानकारी में लाकर उस पर सार्वजनिक बहस आमंत्रित करनी चाहिए।