सौरभ जैन
केंद्रीय कैबिनेट ने पॉक्सो कानून में संशोधन को मंजूरी दे दी है। बाल यौन उत्पीड़न रोकने के लिए बने इस कानून में संशोधन का उद्देश्य बच्चों के प्रति हो रहे अपराधों पर नकेल कसना है। इसी मंशा से इस कानून में फांसी की सजा तथा अन्य अपराधों पर कठोरतम दंड का प्रावधान किया गया है। पॉक्सो कानून की करीब दस धाराओं में संशोधन किया जाएगा। वैश्विक स्तर पर भी बाल अधिकारों की रक्षा के लिए ‘संयुक्त राष्ट्र बाल अधिकार संधि’ एक अंतरराष्ट्रीय समझौता है, जो सदस्य देशों को कानूनी रूप से बाल अधिकारों की रक्षा के लिए बाध्य करता है।
समाज को अपराध मुक्त बनाने का दायित्व पुलिस प्रशासन का माना जाता है। तर्क दिया जाता है कि कठोर दंड के भय से समाज में अपराधों में कमी आ सकती है, पर ध्यान रहे कि वर्तमान में जिस कानून में संशोधन किया जा रहा है, उसे 2012 में बनाया गया था। तब केवल बारह वर्ष तक के बच्चों के साथ होने वाले यौन अपराधों में फांसी की सजा निर्धारित थी। पॉक्सो कानून बनाते समय बच्चों के खिलाफ अपराधों को चिह्नित कर त्वरित सुनवाई हेतु विशेष अदालत का भी प्रावधान था।
आंकड़ों के मुताबिक 2016 में पॉक्सो कानून के अंतर्गत बच्चियों के साथ बलात्कार के 64,138 मामले दर्ज हुए। इस दौरान देश भर में बच्चों के खिलाफ कुल अपराध के मामलों में 13.5 फीसद वृद्धि दर्ज की गई। वहीं बिहार में इसमें एक सौ पांच फीसद की वृद्धि हुई है। मानवाधिकारों के लिए काम करने वाली संस्था ‘वर्ल्ड विजन इंडिया’ द्वारा किए गए सर्वेक्षण के अनुसार देश का हर दूसरा बच्चा यौन उत्पीड़न का शिकार है। हर पांच में से एक बच्चा यौन उत्पीड़न के खौफ से खुद को असुरक्षित महसूस करता है। हर चार में से एक परिवार ने बच्चे के साथ हुए यौन शोषण की शिकायत तक दर्ज नहीं करवाई।
पीड़ितों में लड़के-लड़कियों की संख्या लगभग बराबर बताई गई है। लगभग अट्ठानबे फीसद मामलों में बच्चों के परिचित या संबंधी ही यौन शोषण के आरोपी निकले। महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने भी अपनी रिपोर्ट में देश के 53.22 फीसद बच्चों के यौन शोषण का शिकार होने की बात स्वीकार की है। दिल्ली पुलिस के अपराध रिकॉर्ड के अनुसार हर हफ्ते करीब दो बच्चों के साथ यौन शोषण होने के मामले दर्ज होते हैं। यूनिसेफ द्वारा 2005 से 2013 के बीच किशोरियों पर किए गए अध्ययन के आंकड़े बताते हैं कि भारत की दस प्रतिशत लड़कियों को जहां दस से चौदह वर्ष से कम उम्र में यौन दुर्व्यवहार का सामना करना पड़ा, वहीं तीस प्रतिशत ने पंद्रह से उन्नीस वर्ष के दौरान यौन दुर्व्यवहार का सामना किया।
मध्यप्रदेश देश का पहला राज्य है, जिसने मंदसौर में स्कूली छात्रा के साथ हुई दुष्कर्म के मामले में फांसी का कानून बनाया था, लेकिन इस कानून के तहत किसी भी अपराधी को अब तक सजा नहीं हो पाई है। जबकि धारणा यह है कि सख्त कानून समाज को अपराध मुक्त बना सकता है। सख्त कानून की आवश्यकता से इनकार नहीं किया जा सकता, पर कानून बना देने मात्र से उसकी उपयोगिता सिद्ध नहीं हो सकेगी। कानून बनाने के साथ कानून का क्रियान्वयन भलीभांति हो सके, यह भी बेहद जरूरी है। कानून का क्रियान्वयन न्यायपालिका की जिम्मेदारी है।
देश में बलात्कार संबंधी मामलों के निपटारे के लिए 1023 त्वरित विशेष अदालतों की स्थापना आवश्यक है। इसके लिए कानून मंत्रालय के न्याय विभाग ने 767.25 करोड़ रुपए खर्च का अनुमान लगाया है। जब तक ये विशेष अदालतें आकार नहीं लेतीं तब तक न्याय की लंबी प्रक्रिया अपराध के दर्द को बढ़ाती रहेगी। देश में 2006 में यौन उत्पीड़न के मामलों में सजा की दर 51.8 फीसद थी, तो 2007 में यह दर 49.9 फीसद रही। 2008 में 50.5 फीसद पर आ गई, 2009 में 49.2 फीसद पर जा पहुंची। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो ने वर्ष 2016 के अदालतों के प्रकरण के विषय में बताते हुए यह जानकारी दी है कि वर्ष 2016 में देश की विभिन्न अदालतों में नए-पुराने सहित एक लाख बावन हजार एक सौ पैंसठ मामले चल रहे थे, पर मात्र पच्चीस मामलों का निपटारा हो सका।
न्यायाधीशों के रिक्त पद भी एक बड़ी चिंता का विषय है। फरवरी माह में सदन में कानून राज्यमंत्री ने बताया था कि देश में वर्ष 2014 में प्रति दस लाख व्यक्तियों पर न्यायाधीशों की संख्या 17.48 थी, जो वर्ष 2019 आते-आते प्रति दस लाख व्यक्ति पर 19.78 न्यायाधीश तक जा पहुंची है। देश के कुल पच्चीस उच्च न्यायालयों में केवल 679 न्यायाधीश कार्यरत हैं। इसका अर्थ यह है कि उच्च न्यायालय में न्यायाधीशों के चार सौ पद भरे जाने शेष हैं। न्यायपालिका के निचले क्रम में भी यही स्थिति देखी जा सकती है। इसका असर यह है कि अदालतों पर मामलों का बोझ बढ़ता चला जा रहा है। सात लाख छब्बीस हजार लंबित मामलों के साथ इलाहाबाद उच्च न्यायालय शीर्ष पर है, तथा चार लाख उनचास हजार लंबित मामलों के साथ राजस्थान उच्च न्यायालय दूसरे स्थान पर है। ऐसे में सिर्फ कानून के जरिए अपराध पर नियंत्रण संभव कैसे हो सकता है?
इस दिशा में दूसरी सबसे बड़ी समस्या लंबी न्यायिक प्रक्रिया और सुस्त पुलिस कार्यप्रणाली है। अपराध के ये तमाम आंकड़े इस भ्रम को दूर करते हैं कि कठोर सजा के भय से अपराधों में कमी आती है। वर्तमान में तो अपराधी अपराध करने के बाद कानून से बच निकलने के पैतरों की जानकारी के चलते निश्चिंत हो जाता है। अपराध करके उसे जरा भी अफसोस नहीं होता। अलवर में एक महिला के साथ कुछ समय पूर्व सामूहिक दुष्कर्म की वारदात हुई, लेकिन पुलिस ने रपट दर्ज करने में चार दिन लगा दिए। ऐसे कितने मामले हैं, जिनमें मामला मीडिया के समक्ष आने पर पुलिस कार्रवाई के लिए बाध्य होती है। भोपाल में एक कोचिंग छात्रा के दुष्कर्म मामले की जांच कर रही महिला अधिकारी पीड़िता के समक्ष जांच के दौरान हंसती हुई नजर आई। ऐसे में अगर कानून सख्त हो भी जाए, लेकिन उसका पालन करवाने वाले लोग अपने कर्तव्य पालन के प्रति ईमानदार न हों, तब किसे दोष दिया जाएगा?
लंबी न्यायिक प्रक्रिया का सबसे बेहतर उदाहरण निर्भया कांड है। 16 दिसंबर, 2012 को हुए निर्भया कांड के बाद सारा देश सड़कों पर उतर आया था, पर उस मामले में भी निर्णय आने में पांच वर्ष लगे, फिर पुनर्विचार याचिका के कारण एक वर्ष और बीत गया। 5 मई, 2017 को दिल्ली उच्च न्यायालय ने आरोपियों को फांसी की सजा पर मुहर लगाई थी, पर सर्वोच्च न्यायालय में पुनर्विचार याचिका दायर कर दी गई। इस तरह इस मामले में फैसला आने में सात वर्ष गुजर गए! यह ऐसा मामला था, जिसने सबको झकझोर कर रख दिया, और न्यायपालिका पर इस मामले की त्वरित सुनवाई का दबाव भी था, फिर भी इतना समय जब इस मामले में फैसला आने में लगा, तो महिला अपराध के अन्य मामलों में स्थिति कितनी गंभीर होगी, इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है।
बच्चों के साथ होने वाले अमानवीय अपराध संपूर्ण मानव समाज पर प्रश्नचिह्न लगाते हैं। मनुष्य के पशुवत आचरण पर रोक लगाने के लिए सख्त कानून की जरूरत है, पर कानून का पालन कराने वाली संस्थाओं की कमियों को दूर करते हुए न्यायिक प्रक्रिया की समय सीमा निर्धारित करने पर भी विचार किया जाना चाहिए।
