महेंद्र राजा जैन

‘उपन्यास की कला’ पर विचार करते हुए अशोक वाजपेयी ने (कभी-कभार, 22 मार्च) लिखा है कि ‘‘उपन्यास का विधागत विवेक, उसकी विधागत प्रज्ञा या बुद्धि जिसे पश्चिम में ‘विजडम’ कहा जाता है, हमारे ध्यान में प्राय: नहीं आते। स्वयं हमारे उपन्यासकारों ने भी, एकाध अपवाद को छोड़ कर, इस पर बहुत कम लिखा है।

इसके बरक्स पश्चिम में, जिसे उपन्यास की जन्मभूमि माना जाता है, यहां तक कि आधुनिक यूरोप को उपन्यास का ही उत्पाद माना जाता है, विस्तार से ऐसा विचार हुआ है और स्वयं उपन्यासकारों ने किया है।’’ अपने इस कथन की पुष्टि के लिए उन्होंने आधा दर्जन ‘यूरोपीय’ उपन्यासकारों के उद्धरण भी दिए हैं। यूरोपीय उपन्यासकारों की सूची में उन्होंने अमेरिकी उपन्यासकार सूसन सौण्टैग को शामिल करने के साथ ही ‘इमर्सन के हवाले’ एक अमेरिकी उपन्यासकार का भी उल्लेख कर दिया है। पर यह कौन-सा अमेरिकी उपन्यासकार है- यह बताना या तो वे भूल गए या जानबूझ कर उसका नाम नहीं लिया। आखिर वे उसका नाम लिखना कैसे भूल गए?

इसी प्रकार उन्होंने लिखा है- ‘‘चेक-फें्रच उपन्यासकार मिलान कुंदेरा ने दो पुस्तकें इस विषय पर लिखी हैं’’, पर वे कौन-सी हैं- यह उन्होंने नहीं बताया। क्या वे नहीं चाहते कि जो पुस्तकें उन्होंने पढ़ी हैं, दूसरे भी उन्हें पढ़ें!

वाजपेयीजी का यह कहना सही नहीं है कि ‘स्वयं हमारे उपन्यासकारों ने भी, एकाध अपवाद को छोड़ कर, इस पर बहुत कम लिखा है।’ इस कथन की पुष्टि में उन्होंने केवल निर्मल वर्मा का नाम लेकर छुट्टी पा ली है, जबकि वास्तविकता यह है कि प्रेमचंद, अज्ञेय और जैनेंद्र कुमार सहित कई उपन्यासकारों ने इस विषय पर बहुत कुछ लिखा है। प्रेमचंद की राय में ‘मानव चरित्र पर प्रकाश डालना और उसके रहस्यों को खोलना ही उपन्यास का मूल तत्त्व है।’

‘हिंदी साहित्य कोश’ (संपादक: धीरेंद्र वर्मा) में ‘उपन्यास’ और ‘उपन्यास कला’ पर विजयबहादुर सिंह और देवराज उपाध्याय का सोलह पृष्ठों का लंबा लेख है, जिसमें विस्तार से उपन्यास का मूल प्राचीन भारतीय साहित्य में बताते हुए तब से आज तक के उपन्यास और उपन्यास कला पर विस्तार से विचार किया गया है।

विजयबहादुर सिंह के अनुसार ‘उपन्यास हमारे लिए कोई नूतन शब्द नहीं है और गुणाढ्य की वृहत कथा, पंचतंत्र, बौद्ध जातक कथाओं तक मजे में इसके सूत्र को खींच ले जाया जा सकता है… उपन्यास कभी कोई भी रूप धारण कर सकता है… इसमें मदोन्मत्त साहसिकों की कथा रह सकती है, पूरे समाज की कथा भी रह सकती है, कथानक न भी हो तो कोई परवाह नहीं… जीवित मनुष्यों की कथा की कोई बात नहीं, कब्र से उठ कर भी मनुष्य आ सकते हैं… इसमें एक दिन की, एक घंटे की तथा एक युग की कथा रह सकती है।

एक या अनेक पात्र रह सकते हैं। उपन्यास में केवल घटनाएं ही घटनाएं या केवल दृश्य ही दृश्य हो सकते हैं।… जिस अर्थ में आज हम उपन्यास को समझने के अभ्यस्त हो गए हैं, उसमें तानाशाही नहीं चल सकती, चाहे लेखक की हो या घटनाओं की। घटनाएं कैसी भी हों- लोक की, परलोक की, आकाश की, पाताल की, पर वे होंगी कार्य-कारण की शृंखला में आबद्ध, उनमें एक तारतम्य होगा, भले ही वे आंतरिक तथा सूक्ष्म हों वे हमारे जीवन के किसी पहलू को अवश्य रोशन करेंगी।… उपन्यास वास्तविक जीवन की काल्पनिक कथा है।’

अज्ञेय और जैनेंद्र कुमार ने ‘उपन्यास की कला’ के संबंध में भले कोई स्वतंत्र पुस्तक नहीं लिखी, पर जो कुछ छिटपुट लिखा है वह किसी भी दृष्टि से कम नहीं है। अज्ञेय ने ‘आलवाल’, ‘रचना: क्यों और किनके बीच’, ‘जोग लिखी’, ‘लिखि कागद कोरे’, ‘साहित्य और अन्य विद्याएं’, ‘आत्मनेपद’, ‘आधुनिक हिंदी साहित्य’, ‘अद्यतन’, ‘स्मृतिच्छंदा’, ‘अज्ञेय अपने बारे में’ आदि पुस्तकों में तो उपन्यास की कला पर लंबे-लंबे लेख लिखे ही हैं, साहित्यकारों से बातचीत में भी इस विषय पर बहुत कुछ कहा है। प्रेमचंद की राय में ‘मानव चरित्र पर प्रकाश डालना और उसके रहस्यों को खोलना ही उपन्यास का मूल तत्त्व है’।

अज्ञेय के इस कथन कि ‘यह एक अतिसरलीकरण है कि अतीत में हमारे पास उपन्यास था ही नहीं, बल्कि दावा किया जा सकता है कि उपन्यास मूलत; भारतीय उपज है- कहानी नहीं।’ (लिखि कागद कोरे) से अशोक वाजपेयी का यह दावा अपने आप खारिज हो जाता है कि पश्चिम को उपन्यास की जन्मभूमि माना जाता है।

अज्ञेय ने ‘उपन्यास की कला’ पर इतना कुछ लिखा है कि उन्हें संकलित कर पूरी पुस्तक तैयार की जा सकती है।

इसी प्रकार जैनेंद्र कुमार ने भी ‘साहित्य का श्रेय और प्रेय’, ‘समय और हम’, ‘समय, समस्या और सिद्धांत’, ‘स्मृति पर्व’ और ‘इतस्तत:’ में उपन्यास की कला पर विस्तार से विचार प्रकट किए हैं। जैनेंद्र कुमार का कहना है कि ‘अगर उपन्यास जीवन के विकास साधन के लिए है तो वास्तविकता उसकी मर्यादा नहीं हो सकती।… आगे के रास्ते को साफ-साफ आंखों में अंगुली डाल कर बताने वाला उपन्यास उपन्यास नहीं और साहित्य साहित्य नहीं।… उपन्यास और कहानी में किसी पात्र के मुंह से निकली अशिष्ट भाषा भी हो सकता है कि जुगुप्सा नहीं, अपितु आनंद की अनुभूति दे।… उपन्यास का हृदय सत्य है, केवल उसका शरीर वास्तव है।…

उपन्यास के पात्र हमारी आत्मा के प्रतीक हैं मताग्रह के नहीं।… उपन्यास को वास्तविकता पर नहीं, उससे ऊंचे पर होना होगा।… उपन्यास जीवन में गति देने के लिए है।… उपन्यास मनोविज्ञान का बंधुआ नहीं है।… उपन्यास में पात्र यथार्थ के संदर्भ से अधिक युक्त होते हैं काव्य में किंचित उत्तीर्ण भी हो सकते हैं।… उपन्यास में सत्यानुसंधान वह सजीव चिन्मय सत्य है, जो हर स्त्री-पुरुष के हृदय में हर श्वास के साथ धड़कता सुन पड़ सकता है।… वास्तविक होने की कोशिश करके उपन्यास अपने को निरर्थक ही कर सकता है।… समाज की राजनीति को ध्वस्त करने का कोई क्रांतिकारी लक्ष्य उपन्यास या साहित्य का नहीं हो सकता।… स्मृति और रुचि भी अपना खेल उपन्यास के कथानक के साथ खेला कराती है…’

वाजपेयीजी अगर अज्ञेय और जैनेंद्र कुमार को भूल गए हों तो कोई आश्चर्य की बात नहीं, पर उन्हें अपने समकालीन नामवर सिंह को तो याद रखना चाहिए था, जिन्होंने समय-समय पर पत्र-पत्रिकाओं और अपनी पुस्तकों में भी उपन्यास कला पर बहुत कुछ लिखा है। उनके अनुसार: ‘अंगरेजी ढंग के नावेल चाहे जितने यथार्थवादी दिखाई पड़ें अंतत: अनुकरणधर्मा थे, क्योंकि उनके पास यथार्थ में हस्तक्षेप करने वाली कल्पना ही नहीं थी… कहने वाले लाख कहें कि ब्रिटिश साम्राज्य में सूर्य नहीं डूबता और इस न्याय से अंगरेजी ढंग के नावेल को ही आख्यान की सार्वभौम विधा का आदर्श मानते रहें, लेकिन भारत के स्वतंत्रचेता लेखक ने इसे स्वीकार नहीं किया…

कैसी विडंबना है कि उन्नीसवीं शताब्दी में जब अंगरेजी ओरिएंटेलिस्ट कादंबरी, कथासरित्सागर, पंचतंत्र जैसी भारतीय कथाओं के पीछे पागल थे, भारतीय लेखक अंगरेजी ढंग का नावेल लिखने के लिए व्याकुल थे… तथाकथित अंगरेजी ढंग के नावेल का तिरस्कार करके ही बंकिमचंद्र के रोमांसधर्मी उपन्यासों ने भारतीय राष्ट्र के भारतीय उपन्यास की अपनी पहचान बनाने में पहल की… भारतीय उपन्यास की अस्मिता का निर्माण अंगरेजी उपनिवेशवाद के विरोध की प्रक्रिया में हुआ था, अंगरेजी ढंग के नावेल की नकल से नहीं।… उन्नीसवीं शताब्दी में उपन्यास के नाम पर जो कुछ हमारे यहां आया उसमें आपको दास्तान, किस्सागोई, आख्यानक और कथात्मकता आदि ये सारी चीजें मिलेंगी।…

उपन्यास शब्द और उपन्यास रूप-विधान दोनों हिंदी ने बांग्ला से लिया है, अब इस बात से बहुत से लोगों की नाक नीची होने लगी है।… ठेठ भारतीय उपन्यास मध्यवर्ग के महाकाव्य के रूप में नहीं, बल्कि ग्रामीण समाज के आख्यान के रूप में विकसित हुआ।… भारत में उपन्यास का उदय मध्यवर्ग की महागाथा के रूप में नहीं, बल्कि जीवन की महागाथा के रूप में हुआ।…’

अंत में मैं एक बार फिर अशोक वाजपेयी की टिप्पणी के उस अंश की ओर ध्यान दिलाना चाहता हूं, जो निश्चय ही मेरे समान कुछ अन्य पाठकों की भी समझ से बाहर की बात होगी। वाजपेयीजी के लिखे ‘आधुनिक यूरोप को उपन्यास का ही उत्पाद माना जाता है’ से क्या यह अर्थ लिया जाए कि उपन्यास ने आधुनिक यूरोप को जन्म दिया या और कुछ?

 

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